कशीनाथ सिंह जी की “काशी का अस्सी” पढ़ने के बाद जो एक खुन्दक मन में निरंतर बनी है वह है – मेरे पुरखों और मां-पिताजी ने भाषा तथा व्यवहार की इतनी वर्जनायें क्यों भर दीं मेरे व्यक्तित्व में. गालियों का प्रयोग करने को सदा असभ्यता का प्रतीक बताया गया हमारे सीखने की उम्र में. भाषा का वह बेलाग पक्ष जिन्दगी में आ ही नहीं पाया. और अगर “काशी का अस्सी” छाप भाषा अपने पास होती तो अकेले थोड़े ही होती? साथ में होती अलमस्त जीवन पद्यति. वह जो अस्सी/बनारस की पहचान है.
मुझे अपने कुली-जमादार नाथू की याद हो आती है. नाथू 60-70 कुलियों का सरगना था. स्टेशन पर पहुंचते ही मेरी अटैची ढ़ोने को जाने कहां से अवतरित हो जाता था. उसकी भाषा का यह हाल था कि वाक्य के आदि-मध्य-अंत में मानव के दैहिक सम्बन्धों का खुला वर्णन करने वाले शब्दों (अर्थात गाली) का सम्पुट अवश्य होता था. हमसे सम्प्रेषण में बेचारा बड़ी मुश्किल से उन शब्दों को अलग कर बात कर पाता था. पर ह्यूमेन क्वालिटी और लीडरशिप में अच्छे-अच्छे पढ़े-लिखे साभ्रांत पानी भरते नजर आयेंगे उसके सामने.
इसलिये मित्रों, अच्छी भाषा आपको अच्छा मनई बनाती हो; यह कतई न तो नेसेसरी कण्डीशन है, न सफीशियेण्ट ही. आप अच्छी भाषा से अच्छे ब्लॉगर भले ही बन जायें!
मैने अपनी पत्नी से (जिनकी पैदाइश बनारस की है) साफ-साफ पूछ लिया है कि क्या “काशी का अस्सी” की भाषा सही मायने में बनारस/अस्सी की रोजमर्रा की भाषा है? उन्होने कहा – बिल्कुल. और यह भी जोड़ा कि लड़की होने पर भी यह सुनने में कुछ अटपटा नहीं लगता था. जो संस्कृति का अंग है सो है।
“हंसी धीरे-धीरे खत्म हो रही है दुनिया से. पश्चिम के लिये इसका अर्थ रह गया है – कसरत, खेल. क्लब, टीम, एसोसियेशन, ग्रुप बना कर निरर्थक, निरुद्देश्य, जबरदस्ती जोर-जोर से “हो-हो-हा-हा” करना. इसे हंसी नहीं कहते. हंसी का मतलब है जिन्दादिली और मस्ती का विस्फोट, जिन्दगी की खनक. यह तन की नहीं, मन की चीज है….”
—– “काशी का अस्सी” के बैक कवर से.
बन्धुओं, अगर कुछ ब्लॉग केवल वयस्कों के लिये होते तो मैं “काशी का अस्सी” के अंश जरूर लिखता – भले ही वह लिखना मुझे बुरी हिन्दी वाला केटेगराइज्ड कर देता. फिलहाल मैं अनुरोध ही कर सकता हूं कि 75 रुपये के राजकमल प्रकाशन के पेपरबैक में “काशी का अस्सी” पढ़ें। वैसे हार्ड बाउण्ड में भी बुरा सौदा नहीं है।
कुछ मुहं ऐसे होते हैं जिनसे निकली गालियां भी अश्लील नहीं लगती . कुछ ऐसे होते हैं जिनका सामान्य सौजन्य भी अश्लीलता में आकंठ डूबा दिखता है . सो गालियों की अश्लीलता की कोई सपाट समीक्षा या परिभाषा नहीं हो सकती . उनमें जो जबर्दस्त ‘इमोशनल कंटेंट’ होता है उसकी सम्यक समझ जरूरी है . गाली कई बार ताकतवर का विनोद होती है तो कई बार यह कमज़ोर और प्रताड़ित के आंसुओं की सहचरी भी होती है जो असहायता के बोध से उपजती है . कई बार यह प्रेमपूर्ण चुहल होती है तो कई बार मात्र निरर्थक तकियाकलाम .काशानाथ सिंह (जिनके लेखन का मैं मुरीद हूं)के बहाने ही सही पर जब बात उठी है तो कहना चाहूंगा कि गालियों पर अकादमिक शोध होना चाहिए. ‘गालियों का उद्भव और विकास’, ‘गालियों का सामाजिक यथार्थ’, ‘गालियों का सांस्कृतिक महत्व’, ‘भविष्य की गालियां’ तथा ‘आधुनिक गालियों पर प्रौद्योगिकी का प्रभाव’आदि विषय इस दृष्टि से उपयुक्त साबित होंगे.उसके बाद निश्चित रूप से एक ‘गालीकोश’ अथवा ‘बृहत गाली कोश’ तैयार करने की दिशा में भी सुधीजन सक्रिय होंगे .
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मैंने तो “काशी का अस्सी” का नाम भी नहीं सुना था, लेकिन आपने इसको पढ़ने की जिज्ञासा उत्पन्न कर दी है। वैसे तो मैने गाँवों में महिलाओं का वाग्युद्ध सुना है; एक वाक्य में दस दस गालियाँ। दाद देनी पड़ती है उनकी वाक्यपटुता की।
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काशी का अस्सी की दूसरी समीक्षा.. लगता है किताब खरीदनी ही पड़ेगी..धन्यवाद ज्ञान जी.. और जो कथ्य होगा वो तो होगा ही.. पर अकेले गालियो के लिये भी मैं खरीद लूँगा .. उनको सुनकर तो खूब आनन्द लिया गया है अब पढ़ कर भी लिया जाय..
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“काशी का अस्सी” तो मैनें नहीं पढ़ा है, अब लगता है आपके कथन के बाद पढ़ना ही पड़ेगा।गालियों से भरी रचना के संदर्भ में मुझे, डाक्टर राही मासूम रज़ा का “आधा गांव” याद है जो कि एक बेहतरीन रचना है
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भैया अब सब कूछ डिब्बा बन्द का जमाना है,डिब्बे मे मुह डाला हो हो कर हस लिये लगता तो यही है आने वाले व्क्त मे क्रेडिट कार्ड स्वैप किया हस लिये ,रो लिये डिब्बे मे से आवाज आयेगी अगर आप और रोना या हसना चाहते है तो दुबारा स्वैप करे
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आजकल की युवा पीढ़ी तो बिना एक-आध गाली के बात ही नही कर सकती है।हंसी का मतलब है जिन्दादिली और मस्ती का विस्फोट, जिन्दगी की खनक। यह तन की नहीं, मन की चीज है॥आज के समय मे इसका महत्त्व कम होता जा रहा है क्यूंकि मशीनी जिंदगी जो होती जा रही है।
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आप इच्छीत न लिख पाए तो ब्लोग की महत्ता वहीं खत्म हो गई समझो.
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अब क्या कहें..भारत में हमने भी यह दोहरा व्यक्तित्त्व खूब जिया है. राजनित में जो थे…बाहर अलग भाषा और घर अलग//// 🙂
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अनूप जी के कमेंट पर:…कुछ गालियों के चलते मैं उनका लेख देख तमाशा लकड़ी का यहां पोस्ट करना चाहते हुये भी नहीं पोस्ट कर पाया! अब सोचते हैं कर ही दिया जाये!बिल्कुल करें सुकुल जी. अच्छी हिन्दी की महंतई बन्द होनी चाहिये.
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पांडेयजी, कुछ गालियों के चलते मैं उनका लेख देख तमाशा लकड़ी का यहां पोस्ट करना चाहते हुये भी नहीं पोस्ट कर पाया! अब सोचते हैं कर ही दिया जाये!
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