फलाने जी का फोन – “जी आपके लिये मैं वो ढिमाकी वाली कालजयी पुस्तक की फोटो कॉपी भेज रहा हूं. मुझे लगा कि आप ही सुपात्र हैं उसे पढ़ने के. आउट ऑफ प्रिंट है, इसलिये फोटो करा कर भेज रहा हूं. 0420 एक्स्प्रेस के एसी कोच अटेण्डेण्ट के पास रखवा दी है. कलेक्ट कर लीजियेगा.” आप इस फोन पर इतरा सकते हैं. कोई तो है जो आपको इंटेलेक्चुअल मानता है. आपको कालजयी पुस्तक की फोटो कॉपी के लिये सुपात्र मानता है.
पर दुनियां मित्रों, मालवी में कहें, तो इतनी सही-साट नहीं है. सब चीजों में पेंच हैं. पहला तो ये कि आपको उस पुस्तक को ब्राउज कर उन सज्जन को टिपेरात्मक धन्यवाद देना होगा. दूसरे, किताब भेजने वाले सज्जन का दूसरा फोन – जो कुछ ही दिन बाद आने वाला है; धोबी पाट साबित होगा.
और दूसरा फोन कालजयी पुस्तक मिलने के 4 दिन बाद आ ही गया. पहले तो 5 मिनट दुआ सलाम. आपके कुत्ते-बिल्ली तक का हाल चाल पूछ डाला. उसके बाद मुद्देपर. उनके साले के भतीजे के भांजे का बहनोई (?) बोलांगीर से बैंगलूर जा रहा है. बड़ी अच्छी सैलरी वाला जॉब मिला है इंफोसिस में. छोड़ा नहीं जा सकता. जाना जरूरी है. ट्रेन में जगह नहीं मिल रही. अब आपका ही सहारा है. साथ में उसकी बीवी और मां भी जा रही हैं (मॉरल सपोर्ट को क्या?). फिर तीन लोगों के टिकट नम्बर आदि का लिखवाना.
अगले दिन आप बेवकूफ की तरह ढ़ूंढते फिरें कि आपके जान पहचान का कौन सी रेलवे का कौन मित्र इनके साले के भतीजे के भांजे के बहनोई को कुनबे सहित यात्रा का आपात कोटा से रिजर्वेशन करा देगा. उस मित्र को फोन कर आप भी दुआसलाम/ कुत्ते-बिल्ली का हाल पूछें. यानि एक कालजयी पुस्तक की फोटो कॉपी के ऋण चुकाने में लंठ की तरह अपना समय बरबाद करते रहें!
इसको बुद्धिमान लोग सोशल नेटवर्किंग कहते हैं – आप किसी का काम करें, फिर उससे अपना काम करायें. पर मैं इसे गदहपचीसी कहता हूं. सबसे बड़ा सिरदर्द और मूर्खता.
और आगे सुनें : इस सोशल नेटवर्किंग का बीटा संस्करण.
मैने अपने जूनियर से यह रोना रोया. वह बोला – साहब यह तो कुछ नहीं. आपको तो केवल इमरजेंसी कोटा के लिये फोन घुमाने हैं. मेरे तो गांव से चच्चा फोन करते हैं – फलाने जी शहर आयेंगे; उनका फलानी गाड़ी का टिकट खरीद लेना. कोटा रिलीज करा लेना. दो दिन के मेहमान रहेंगे – सो ठहरने का इंतजाम कर लेना और गाड़ी पर बिठा देना. उनके परिवार में लड़का है. आईएएस का इम्तहान दे रहा है. खातिर जरा ठीक से करना. अगली साल उससे गुड्डो की शादी का कांटा फिट करना है. अब साहब, आपकी सोशल नेटवर्किग तो इसके सामने बहुत सरल है! मुझे अपने दर्द से बड़ा दर्द दिख गया और मैं सुखी हो गया.
मित्रों, दुनिया में फ्री लंच नाम की कोई चीज नहीं होती! आपको कोई किताब उपहार में दे तो मान कर चलें कि समस्या पीछे–पीछे आने वाली है!
पाण्डेय जी ये सोशल नेटवर्किन्ग की कथा अनन्त आपने आम कर के कुछ तो हम लोगो का भार हल्का किया ये अलग बात है कि मान्ग कर मत पढो खरीद कर पढो बार बार लिखने के बाद भी किताबे माग कर ही पढी जाती है वैसे ही इसे पढ के भी सम्बन्धो को भुनाने की राजनिति जारी रहेगी “और परतापगढ जाने आने का यदि सोच ही लिया है तो आफ्टर आल आप मेरे चाचा के मामा के दादा के बुआ के लडके के पता नही और क्या क्या हो . . . . और लालू जी के साथ हो रेलवे का सारा टेन्सन तो आपको ही लेना होगा ! और कोन देखेगा ”
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रिजरवेशन तो हमें भी नहीं मिलता इलाहाबाद से लौटने पर । हालांकि हम सौ में से निन्यानवे बार रिटर्न टिकिट लेकर ही रवाना होते हैं । अब आप हैं तो आइंदा से रिटर्न की चिंता नहीं करे क्या । हा हा हा । इस हाथ दे और उस हाथ ले वाला सिस्टम तो हमारे शहर मुंबई की पहचान है । हम कई बार भुगत चुके हैं ।
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आलोक पुराणिक उवाच -ताजिंदगी आपको किताब भेजकर कभी परेशान नहीं करेंगे। अगर आप हमें सिर्फ एक आश्वासन दे दें कि जब जरुरत होगी, आप हमारा रिजर्वेशन करा देंगे।… आप हमें भले आदमी दिख रहे हैं, तो आपको धमका रहे हैं कि रिजर्वेशन करवा दीजियेगा ये सरे आम धमकी! हम समझते थे कि ब्लॉगरी में शराफत जिन्दा है. यह नहीं मालूम था कि व्यंग लिखने वाले भी कट्टा रख कर व्यंग लिखते हैं. क्या चाहते हैं – हम भी किसी माफिया-ओफिया को दोस्त बनायें? 🙂
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आजकल जमाना ही सोसल का है… कोई सोसल इंजीनियरिंग की बात कर रहा है कोई सोसल नैटवर्किंग की .. आप भी कम नहीं …बातों बातों में बता ही दिये कि किताब भिजवाओ रिजर्वेशन करवाओ.. बताईये कौन सी भिजवायें जी … ??
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सत्य बचन महाराज। कई दुखती रगें आपके हाथ में आ गई।
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कसम से पांडेजी हम वादा करते हैं, ताजिंदगी आपको किताब भेजकर कभी परेशान नहीं करेंगे। अगर आप हमें सिर्फ एक आश्वासन दे दें कि जब जरुरत होगी, आप हमारा रिजर्वेशन करा देंगे। वरना बता दूं कि एक किताब तो आ चुकी है, और चार इस साल आने वाली है। समझ लीजियेगा।सरजी, वेद-पुराण लिखने वाले हमारे पूर्वज विकट उस्ताद थे, एक ने लिखा है कि इस दुनिया में कोई किसी का मित्र नहीं, कोई किसी का शुभचिंतक नहीं है, कोई किसी का बेटा नहीं है, कोई किसी का बाप नहीं है, बाप जब बेटे को प्यार करता है, तो उसके माध्यम से वह खुद को ही प्यार करता है। तो जब कोई आपकी प्रशंसा करता है, तो समझिये कि वह तारीफ का एक्चजेंज आफर चाहता है, या रिजर्वेशन। दिल्ली में एक रिजर्वेशन सक्षम अधिकारी को मैं जानता हूं, उन्हे कई कवियों ने कालजयी रचनाकार घोषित कर रखा है। एक बार उन्होने मुझसे भी अपने लिखे पर राय मांगी, तो मैंने बताया कि सच बोलने की हिम्मत नहीं, झूठ मैं बोलना चाहता। भाई साहब बुरा मान गये। अब ना होते वहां मेरे रिजर्वेशन। पर बहूत बाद में अकल आ गयी कि बुरी कविता को अच्छा कहने से बेहतर कि रिजर्वेशन की लाइन में दो घंटे लग जाओ। अब जब भी मैं रिजर्वेशन कराने के लिए दो घंटा खड़ा होता हूं, तो खुद को बताता रहता हूं, लगा रह प्यारे, ये हिंदी साहित्य के शुद्धीकरण में तेरा योगदान है। पर आप हमें भले आदमी दिख रहे हैं, तो आपको धमका रहे हैं कि रिजर्वेशन करवा दीजियेगा, वरना पांच किताबें आपके घर का पता पूछेंगी। आलोक पुराणिक09810018799
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दद्दा आपका फोन नम्बर क्या है? जब टिप्पीयाते है तो कभी कोई काम अड़ गया तो याद कर सकते है ना…..जात्रा तो लगी रहती है.
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हुम्म…चलिए, एक रास्ता तो आपने जाने अनजाने सुझा ही दिया. इमर्जेंसी के लिए आपके टेस्ट का एक दो कितबवा अभी से खरीदे लेते हैं.
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सत्य!! ऐसे बिरले ही होंगे जो आपका काम करने या कुछ देने के बाद किसी ना किसी तरीके से वसूली ना सोचें।
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बात तो सच सी लगती है-मगर हम बचे हैं. किताब तो कई पुरुस्कार में दबा गये मगर काम के लिये कोई फोन अभी तक बजा नहीं. आपका सुन कर डर लगा है. सोचते हैं फोन नम्बर बदलवा दें. 🙂
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