हिन्दी ब्लॉगरी में अनेक खेमे हैं और उनके अनेक चौधरी हैं (जीतेंद्र चौधरी से क्षमा याचना सहित). ये लोग टिल्ल से मामले पर बड़ी चिल्ल-पों मचाते हैं. अब पता नहीं कूड़े का नारा कहां से आया, पर एक रवीश जी ने पंत को रबिश क्या कहा कि हल्ला मच गया. मानो पंत जी का हिन्दी साहित्य में स्थान हिन्दी ब्लॉगरी के मैदान में ही तय होना है!
एक मुसीबत है कि आप इन जूतमपैजार पर अथॉरिटेटिव तरीके से नहीं लिख सकते. कौन कहां गरिया रहा है; कौन कहां थूक रहा है; कौन कहां चाट रहा है – आप समग्र तरीके से तभी लिख सकते हैं जब आप सभी ब्लॉगों की चिन्दियां समग्र रूप से बीन रहे हों. यह काम रोबोट ही कर सकता है पर रोबोट ब्लॉग पोस्ट नहीं लिख पायेगा.
असल में; हिन्दी साहित्य वाले जो हिन्दी ब्लॉगरी में घुसे हैं, उनको गलतफहमी है कि हिन्दी ब्लॉगरी हिन्दी साहित्य का ऑफशूट है. सेंसस करा लें – अधिकांश हिन्दी ब्लॉगरों को हिन्दी साहित्य से दूर दूर का लेना-देना नहीं है. पर जबरी लोग पंत जी को लेकर सेण्टीमेण्टल हुये जा रहे हैं.
पंत/निराला/अज्ञेय पढ़ना मेरे लिये कठिन कार्य रहा है। (मेरी चिदम्बरा की प्रति तो कोई जमाने पहले गायब कर गया और मुझे उसे फिर से खरीदने की तलब नहीं हुई)। वैसे ही आइंस्टीन का सापेक्षवाद का सिद्धांत बार-बार घोटने पर भी समझ में नहीं आता है। साम्यवाद तो न समझने का हमने संकल्प कर रखा है। पर इन सब को न जानना कभी मेरे लिये ब्लॉग पोस्ट लिखने में आड़े नहीं आया। रेल गाड़ी हांकने के अनुभव में और आस-पास से जो सीखा है; उतने में ही मजे में रोज के 250 शब्द लिखने का अनुष्ठान पूरा हो जाता है. इस ब्लॉगरी में और क्या चाहिये?
लोग अभी ब्लॉगरी नहीं कर रहे. अभी कुछ तो पत्रकार होने के हैंगओवर में हैं. वे अपने सामने दूसरों को मतिमन्द समझते हैं. सारी राजनीति/समाज/धर्म की समझ इन्ही के पल्ले आयी है. इसके अलावा हिन्दी वाले तो कट्टरपंथी धर्म के अनुयायी मालूम होते हैं जहां पंत/निराला/अज्ञेय की निन्दा ईश निन्दा के समतुल्य मानी जाती है; और जिसका दण्ड सिर कलम कर देने वाला फतवा होता है. यह हिन्दी कट्टरपंथी बन्द होनी चाहिये. हिन्दी ब्लॉगरी हिन्दी साहित्य का ऑफशूट कतई नहीं है – यह साहित्य वालों को बिना लाग लपेट के स्पष्ट हो जाना चाहिये।
डिस्केमर : (१) मैने रवीश जी वाली पंतजी को रबिश कहने की पोस्ट नहीं पढ़ी है. अत: यह उसके कण्टेण्ट पर कोई टिप्पणी नहीं है. (२) मेरे मन में पंत/निराला/अज्ञेय के प्रति; बावजूद इसके कि वे मेरी समझ में कम आते हैं; बड़ी श्रद्धा है।
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फुट नोट: मैने रवीश जी की कविता पढ़ ली है। उन्होने पंत जी की कविता को रबिश नहीं किया है – शायद नामवर सिन्ह जी को किया है। पर नामवर जी भी बड़े नाम हैं. वे भी अपनी समझ में नहीं आते. अत: जहां पंत लिखा है – (हेडिंग सम्मिलित है) वहां पंत/नामवर पढ़ें. शेष पोस्ट यथावत!
हिंदी दिवस पितृपक्ष में मनाये जाने वाला ऐसा श्राद्ध है जब हिंदी को श्रद्धांजलि दी जाती है या यूं कहा जाए कि तिल,यव,मधु एवं जल से तर्पण किया जाता है ताकि पितरों के लोक में अतृप्त,प्यासी हिंदी की आत्मा अंजलि भर जल लेकर तृप्त हो सके और फिर साल भर भूलोक खासकर भारतभूमि की ओर उसकी आत्मा भी नहीं भटक सके । क्योंकि, ठीक इसी के बाद देबी पक्ष अर्थात शारदीय नवरात्र का आगमन होता है और हमारे हर्ष में फिर वर्ष पर्यन्त खलल नहीं ड़ाले । —अंजन कुमार सिन्हा,ओडि़शा
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ब्लॉगिंग यानी चिट्ठाकारी स्वतंत्र विधा है . यह किसी का ऑफ़शूट नहीं है . न तो साहित्य का और न ही पत्रकारिता का . भला हो इस चिट्ठाकारिता का, कि जीवन के विभिन्न क्षेत्रों के और विभिन्न व्यवसायों के तरह-तरह की विशिष्टता और विशेषज्ञता वाले लोग जो सामान्यतः लेखन से दूर थे वे अपनी अब तक अनुपयुक्त ऊर्जा और ललक के साथ इस संभावनाशील माध्यम की ओर प्रवृत्त हुए .हिंदी में इसका इसलिए और ज्यादा महत्व है कि इसमें अपनी भाषा में अपने को अभिव्यक्त करने वाला आत्मीयता का तत्व भी जुड़ जाता है .भाषा-साहित्य के थिर जल में, जो लगभग काला जल होता जा रहा था, इन नए आए चिट्ठाकारों ने नए प्राण फूंक दिए हैं . एक नए किस्म की प्राणशक्ति भर दी है .जीवन के अलग-अलग क्षेत्रों और अलग-अलग सामाजिक धरातलों से आए ये चिट्ठाकार अपने साथ एक विशिष्ट किस्म की भाषा-संजीवनी लेकर आए हैं .भविष्य में जब नई सदी में हिंदी के स्वास्थ्य-लाभ और स्वास्थ्य-सुधार तथा नई हिंदी की निर्मिति पर शोधपूर्ण चर्चा होगी, तब साहित्य और पत्रकारिता से जुड़े लोगों की भाषा और विषयवस्तु से कहीं अधिक महत्व उन चिट्ठाकारों की भाषा और विषयवस्तु का ठहरेगा जो अपनी नई भंगिमा और नए तेवर के साथ इतर क्षेत्रों से आए हैं .
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ज्ञानदत्तजी आप अपने 250 शब्दों वाले ज्ञान की गंगा बहाते रहें, क्योंकि कूड़ा भी डाला जा रहा है ऐसा अरुणजी ने बताया है, और आपकी ज्ञानगंगा के मुरीद, तलबगार हम जैसे बहुत से लोग हैं। यदि आइंसटीन का सापेक्षतावाद नहीं समझ में आया तो हम समझा देते है। “कुछ चिट्ठों पर आप टिप्पणियाँ करके किसी बात का विरोध करते हैं तो वे उतने ही जोर शोर से बार बार वही लिखते हैं। अर्थात् वे चिट्ठे आपकी टिप्पणियों के सापेक्ष हैं।”रही बात पंतजी की कविताओं की तो हम तो चार लाइन नहीं लिख सकते हैं तो उस व्यक्ति को कैसे कुछ कह सकते हैं। हमसे तो एक रोटी ठीक से गोल नहीं बनती इसलिए जो बीवी बनाए वही ठीक है। कुछ लोग सोचते हैं कविताओं में भी सामाजिक, राजनैंतिक, आर्थिक, और सारी समस्याएँ ही होना चाहिए। अब ग़लती तो पंत की ही है जो उनके मन में इस धरती की, इस प्रकृति की रमणीयता देख कविता उपजी।
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आपने यह अच्छा किया जो जाले झाड दिए । पता नहीं क्यों यह बात होली के डांडे की तरह ठोक दी गई है कि लेखन का मतलब साहित्य स्रजन ही होता है । अलेखक को तो लेखक बनाए जाने में कोई हर्ज नहीं किन्तु असाहित्यकार को जबरिया साहित्यकार क्यों बनाया जाता है – समझ नहीं पडता ।ब्लाग को ब्लाग ही रहने दो, साहित्य में अंजाम न दो ताकि इसका आनन्द आता रहे । फैक्ट्री के फिनिश्ड प्राडक्ट बनने से बचने दीजिए । कुछ अनगढ बातें हो जाने दीजिए ।ब्लाग का खुरदरापन ही इसकी खूबसूरती और खूबी है । यदि इसे भी साहित्यकारों ने हथिया लिया तो बाकियों का क्या होगा ।
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blogging is a medium by which people who are involved with various jobs in life express their feelings . bloggers are not doing it as full time profession and bloging is not fro earning bread and butter for these bloggers . where as sahitykar , kavi and others were earnign there lively hood thru thier wirtings . so critizing theiur work is not in the previeww of bloggers but yes you as blgger have freedome to wirte what ever you want . still too much haas been writen on these issues in hindi litrature .
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आपने अपने मन की लिखी. आपने मानो हमारे मन की लिखी. बस लिखते रहें जो जी को अच्छा लगे. विवाद कहाँ है?आप अच्छा लिखते हैं, हमें पढ़ना अच्छा लगता है आपका लिखा, तो हम पढ़ते हैं, पढ़ते रहेंगे, टिपियाते रहेंगे.
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आप तो बस जम गए. मस्त लिखा है.
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