आदि शंकराचार्य को कर्ममीमांसक मण्डन मिश्र से शास्त्रार्थ करना था जिससे कि काशी के पण्डित उन्हें मान्यता दे दें. वे महिष्मति में मण्डन मिश्र का घर ढ़ूंढ़ रहे थे. राह में एक स्त्री कपड़े धो रही थी. उससे शंकराचार्य ने मण्डन मिश्र के घर का पता पूछा तो उस स्त्री ने एक श्लोक में उत्तर दिया:
”यह जगत स्थायी है या नश्वर, जिस दरवाजे पर तुम्हें पिंजरे में रखी तोतियां यह चर्चा करते मिल जायें वह मण्डन मिश्र का घर है.”
दण्डी स्वामी ने क्या अनुमान लगाया होगा, वे ही जानें. आम आदमी तो ग्लेमराभिभूत हो जायेगा – अरे जिसके तोते इतने विद्वान हैं वह तो अजेय पण्डित होगा!
शंकराचार्य मण्डन मिश्र के घर पंहुचे. अठ्ठारह दिन शास्त्रार्थ हुआ. मण्डन मिश्र हार गये.
मुझे तो यही लगता है कि मण्डन मिश्र ने ब्रह्म ज्ञान को मात्र रटंत विद्या बना दिया था. जो वे कहते रहे होंगे, वही शिष्य बारम्बार रटते रहे होंगे. तोते की प्रजाति बारबार कही बात जल्दी सीखती है, सो तोते भी ब्रह्मज्ञान की बातें करते होंगे. आदिशंकर ने उस कपड़े धोने वाली की जब विद्वतापूर्ण बात सुनी होगी तो उन्हें (यह मेरा अनुमान है) विश्वास हो गया होगा कि मण्डन मिश्र को हराना कठिन नहीं है.
किसी सामान्य व्यक्ति को यह निष्कर्ष अटपटा लग सकता है. वास्तव में भारत में बारम्बार यह समय आता है जब हमारा सांसारिक और ब्रह्म ज्ञान जड़, सड़ान्ध युक्त, जटिल और थ्योरिटिकल (रुक्ष नियम संगत) हो जाता है. उस समय एक शंकराचार्य की आवश्यकता होती है मण्डन मिश्र की रूढ़ता को ध्वस्त करने के लिये!
यह कथा यहीं समाप्त नहीं होती.
शंकर और मण्डन मिश्र के शास्त्रार्थ पर निर्णय भारती – मण्डन मिश्र की पत्नी ने दिया था. पर पति के हार जाने पर भारती ने शंकराचार्य को शास्त्रार्थ की चुनौती दी – यह कह कर कि भार्या यद्यपि दूसरे शरीर में होती है पर धर्म से पति-पत्नी एक हैं. भारती ने शंकर से गृहस्थ जीवन से सम्बन्धित प्रश्न किये. शंकर को उसका कोई अनुभव नहीं था. अत: उत्तर देने के लिये शंकर ने महीने भर का समय मांगा. वे एक गृहस्थ के शरीर में जा कर अनुभव ले कर आये और तब भारती को उत्तर दिये. तात्पर्य यह है कि थ्योरिटिकल ज्ञान के साथ प्रयोग (एक्सपेरिमेण्टेशन) करने की आवश्यकता अनिवार्य है. शंकर एक जीवंत बौद्धिक की तरह यह जानते थे और उसके प्रति समर्पित थे. तभी वे देश को कर्मकाण्डियों से मुक्त करा पाये.
मुझे वर्तमान में हिन्दी भी मण्डन मिश्र के कर्मकाण्डीय ज्ञान की तरह जड़, रुक्ष, जटिल और थ्योरिटिकल लगती है. आधुनिक (और कम्प्यूटर के) युग में प्रयोगधर्मिता की कसौटी पर इस भाषा को बहुत बदलना होगा. मण्डन मिश्र स्टाइल की रूढ़ता और अभिमान इसे बहुत समय तक वर्तमान रूप में जिन्दा नहीं रख सकेगा. इसमें बहुत से नये परिशोधनात्मक प्रयोग करने होंगे. इसे उबारने के लिये तीक्ष्ण, उत्साही और प्रयोगधर्मी व्यक्तियों की आवश्यकता है.
विद्वान लोग मेरे उक्त वर्णन में छिद्र ढ़ूंढ़ सकते हैं. मण्डन मिश्र की पत्नी के नाम पर विवाद हो सकता है. कर्ममीमांसा का मैने कोई अध्ययन नहीं किया है. मैं कथा का केवल आधुनिक सन्दर्भ में प्रयोग भर कर रहा हूं.
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बहुत बढि़या विश्लेषण. अतुल
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देवनागरी(हिन्दी) में तकनीकी दृष्टि से परिवर्तन करने की आपकी मांग एकदम प्रासंगिक है। इस सम्बन्ध में व्यावहारिक कार्य शुरू हो चुके हैं। यहाँ एक नजर डालें – डीटीपी एवं ग्राफिक्स सॉफ्टवेयरों में देवनागरी युनिकोड की असमर्थता
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अद्भुत पोस्ट . इसे सिर्फ़ आप ही लिख सकते थे . सच! हमें कर्मकांडीय तोतारटंत और थ्योरिटिकल ज्ञान के स्थान पर जीवंत बौद्धिक और नवाचार को प्रोत्साहित करने वाला संवाद चाहिये . आपका कथा-रूपक परम्परा और नवाचार के उसी स्वस्थ-सार्थक संवाद की ओर संकेत करता है .
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यह कहानी, कानून के स्कूलों में अक्सर बतायी जाती है। इससे पता चलता है कि न्यायधीश को किस प्रकार का होना चाहिये। यदि एक तरफ उसके पति भी हों तो भी फैसला न्याय के पक्ष में देना चाहिये।
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