मेरे मित्र श्री रमेश कुमार (जिनके पिताजी पर मैने पोस्ट लिखी थी) परसों शाम मुझे एसएमएस करते हैं – एनडीटीवी इण्डिया पर वृद्धों के लिये कार्यक्रम देखने को कहते हैं. कार्यक्रम देखना कठिन काम है.पहले तो कई महीनों बाद टीवी देख रहा हूं तो “रिमोट” के ऑपरेशन में उलझता हूं. फिर वृद्धावस्था विषय ऐसा है कि वह कई प्रकार के प्रश्न मन में खड़े करता है.
कल मैं विदेशी अर्थ-पत्रिका (इकनॉमिस्ट) में वृन्दावन में रह रही विधवाओं के बारे में लेख पढ़ता हूं. दिन में ६-८ घण्टे भजन करने के उन्हे महीने में साढ़े चार डालर मिलते हैं. विधवा होना अपने में अभिशाप है हिन्दू समाज में – ऊपर से वॄद्धावस्था. वाराणसी में भी विधवाओं की दयनीय दशा है. यहां इलाहाबाद के नारायणी आश्रम में कुछ वृद्ध-वृद्धायें दिखते हैं, जिनमें सहज उत्फुल्लता नजर नहीं आती.
मै अपने वृद्धावस्था की कल्पना करता हूं. फिर नीरज रोहिल्ला की मेरी सिन्दबाद वाली पोस्ट पर की गयी निम्न टिप्पणी याद आती है –
.….लेकिन मैने कुछ उदाहरण देखे हैं जो प्रेरणा देते हैं । मेरे Adviser ६७ वर्ष की उम्र में भी Extreme Sports में भाग लेते हैं । Hawai के समुद्र की लहरों में सर्फ़ करते हैं, पर्वतारोहण करते हैं । उन्होनें Shell में २६ वर्ष नौकरी करने के बाद १९९३ में प्रोफ़ेसर बनने का निश्चय किया ।
२००० के आस पास एक नये शोध क्षेत्र में कदम रखा और आज उस क्षेत्र के विशेषज्ञ हैं।
इसके अलावा जिन लोगों के साथ मैं बुधवार को १० किमी दौडता हूँ उनमें से अधिकतर (पुरूष एवं महिलायें दोनो) ५० वर्ष से ऊपर के हैं । कुछ ६० से भी अधिक के हैं । इसके बावजूद उनमें कुछ नया करने का जज्बा है। ये सब काफ़ी प्रेरणा देता है।
अक्सर हमारे पुराने अनुभव हमारी पीठ पर लदकर कुछ नया करने की प्रवत्ति को कुंद कर देते हैं। आवश्यकता होती है, सब कुछ पीछे छोडकर फ़िर से कुछ नया सीखने का प्रयास करने की।
अपने चारो ओर देखेंगे तो रास्ते ही रास्ते दिखेंगे, किसी को भी चुनिये और चलते जाईये, कारवाँ जुडता जायेगा।
हां, बदलते समय के साथ वृन्दावन और काशी की वृद्धाओं के प्रति समाज नजरिया बदल कर कुछ और ह्यूमेन नहीं बन रहा – यह देख कर कष्ट होता है.
अरुण “पंगेबाज” कल लिख रहे थे कि प्रधान मन्त्री आतंक से मरने वालों के परिवारों के लिये कुछ करने की बात करते हैं. मनमोहन जी तो सम्वेदनशील है? इन बेचारी वृद्धाओं को जबरन ६-८ घण्टे कीर्तन करने और उसके बाद भी पिन्यूरी (penury) में जीने से बचाने को कोई फण्ड नहीं बना सकते? और आरएसएस वाले बड़े दरियादिल बनते हैं; वे कुछ नहीं कर सकते? इन बेचारियों को किसी कलकत्ते के सेठ के धर्मादे पर क्यों पड़े रहने दिया जाये? बुढ़ापा मानवीय गरिमा से युक्त क्यों नहीं हो सकता?
उम्र का एक ऐसा पड़ाव जिसमे शरीर कुछ-कुछ साथ देना कम कर देता है। जी हां , वृद्धावस्था। इसमे कुछ दुख तो शारीरिक अस्वस्थता के कारण ही पैदा होते हैं। ऐसे बुजर्ग ुर्लोगों के लिए अब कंेद्र सरकार स्वास्थ योजना के तहत वृद्धावस्था क्लीनिक का उद्घाटन राजधानी के जनकपुरी मे किया गया। इस क्लीनिक मे चिकित्सकों का प्यार और उनके द्वारा किया गया इलाज बुढी आंखों मे फिर से नई जान डाल सकता है।वृद्धावस्था रोग विशेषॾ इस क्लीनिक मे जांच के लिए दिनों के हिसाब से मौजूद रहेंगे। इन विशेषॾों द्वारा वृद्ध लोग अपनी बीमारियों से निज़ात पाने के लिए बेहतर इलाज का फायदा उठा सकते हैं।बुढापा आने के साथ ही शरीर की प्रतिरोधक ॿमता भी धीरे-धीरे कम होने लगती है और इंसान को कई तरह की बीमारियों से जुुझना पड़ता है। ऐसे मे इस तरह की योजना बुजुर्गों के लिए काफी सहायक सिद्ध हो सकती है। वृद्धावस्था एक ऐसी उम्र जिसमे बुजुर्गों को ज्यादा समझने की जरूरत होती है। शरीर को न जाने कितने रोगों से लड़ने की ॿमता चाहिए होती है लेकिन शरीर कहीं न कहीं साथ कम कर ही देता है। बुजुर्गों के लिए गुरूवार को राजधानी मे केंद्र सरकार स्वास्थ योजना के तहत वद्धावस्था क्लीनिक का उद्घाटन सीजीएचएस के महानिदेशक ने किया। चिकित्सकों का प्यार और उनके द्वारा किया गया इलाज इन बुढी आंखों मे फिर से नई जान डाल सकता है। – गिरीश निशाना
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वृद्धावस्था के कुछ दुख तो शारीरिक अस्वस्थता के चलते होते हैं। इस उम्र मे बुजुर्गों को ज्यादा समझने की जरूरत होती है। चिकित्सकों का प्यार और उनके द्वारा किया गया इलाज इन बुढी आंखों मे फिर से नई जान डाल सकता है। – गिरीश निशाना
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मार्मिक विषय चुना मगर तटस्थता से निर्वाह हुआ। समीर जी सही कहते हैं, मीलों लंबी बात की जा सकती है इसपर ।
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ज्ञानदत्त जी ,नमस्ते ! बडा गँभीर विषय लिया है आपने ..”किस्मत का नहीँ दोष बावरे, दोष नहीँ भगवान का,दुख देन इन्सान को जग मेँ, काम रहा इन्सान का !”ये मेरे पापा, ( स्व. पँ.नरेन्द्र शर्मा )का लिखा एक बडा पुराना गीत है -बुढापा और मृत्यु अटल सत्य हैँ – दुर्दशा ,गरीबी एक अभिशाप है मनुष्यता पे -सच,आपने गहरी बात आरँभ की है, आगे बढाइये .हम भी साथ हैँ( और एक बात..मेरे नानाजी सेन्ट्रल रेल्वे मेँ प्रमुख केरेज़ और वेगन इन्स्पेक्टर थे ..अँगेरेजोँ के जमाने मेँ )..स स्नेह,– लावण्या
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मुश्किल यही है कि हम सब जानते है और समय-समय पर चर्चा कर अपने संवेदनशील होने का दम्भ भरते है। पर कुछ करते नही है। क्यो न हम चिठठाकार इस पर समाधान तक विचार करे और फिर उसे मूर्त रूप भी प्रदान करे? आखिर किसी को तो आगे आना होगा। मै तैयार हूँ? क्या आप सब तैयार है? ऐसा न हो कि कल सब भूलकर एक नयी पोस्ट लिख दी जाये। कुछ अधिक कडवा लिख दिया हो तो क्षमा
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यह आपने इतना अधिक गंभीर विषय चुना है कि इस पर मीलों तक बात की जा सकती है. एक पन्ने की चन्द लाईनों में तो मैं इसे शीर्षक ही मानूँगा, प्रस्तावना भी नहीं.जिस तरह हमें बताया गया है कि बुढ़ापा काटे नहीं कटता, उसी तरह मैने पाया है कि मात्र अपनी पुरानी ओढ़ी सोच की वजह से यह सुधारे नहीं सुधरता.क्या वजह है कि नीरज जिन बुजुर्गवार की बात कर रहे हैं और वैसे ही पश्चिम के अनेकानेक बुजुर्ग आपको हवाई में, फ्लोरीडा में, आस्ट्रेलिया के समुन्द्री तटों पर, स्विट्जरलैंड़ की हसीन वादियों से लेकर राजस्थान भ्रमण, केरल में छुट्टी मनाते हर जगह मिल जायेंगे और उनसे कहीं अधिक स्वस्थय और बेहतर स्थिती में रह रहे हम अपने बुढ़ापे, परिवार और मकान का रोना लिये घरों में दुबके पड़े हैं.क्यूँ बुढ़ापा हमें रोमांचित करने की बजाय, आतंकित करता हैआवश्यक्ता है हमारी स्वयं की विचारधारा और जीवनशैली में आमूलचूर परिवर्तन की.कभी निश्चित आपसे इस विषय पर लम्बी चर्चा होगी और जरा हट के कॉलम जो मैने शुरु किया है, उसमें भी इस हिस्से की थोड़ी बहुत भागीदारी जरुर होगी.सहजता से स्थितियाँ यूँ बन जाना चाहिये कि बुढापे का हम इन्तजार करें – एज़ ए वेकेशन बिफोर फाइनल जर्नी…एक ऐसा वेकेशन जिसके लिये हमने जिन्दगी भर इन्तजार किया है, काम किया है, तैयारी की है-हर पहले मनाये वेकेशन से ज्यादा रोमांचित करता गरिमामय वेकेशन–वरना तो फाँसी के इन्तजार में जेल में रोज घुट घुट कर मरते कैदी और एक बुजुर्ग में क्या फर्क रह जायेगा मात्र तारीख की निश्चितता के.हमारे बच्चे तो हमारे साथ फाइनल जर्नी पर नहीं जा रहे हैं और न ही अभी उन्होंने जीवन में इतना कुछ किया है कि वो फाइनल ग्रेन्ड वेकेशन मनायें. इसलिये इसे हमें ही मनाना होगा..अपनी मर्जी का..अपनी स्टाईल में. कोई जरुरी नहीं कि पहाड़ में जाये..अपने घर में रहें मगर बुढापे का उत्सव जरुर मनायें. लाइफ टाईम अचिवमेन्ट टाईप.बात लम्बी हो रही है…बहुत लम्बी की जा सकती है. मगर विराम देता हूँ. शायद मोटी तौर पर अपनी कुछ बात कह पाया.
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आलोक पुराणिक जी सही कह रहे हैं
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सच है, कि देश मे विधवाओं और बूढों की दशा शोचनीय है। धर्म के नाम पर ना जाने क्या क्या होता है। विधवाओं की स्थिति पर बनी फिल्म वाटर ने काफी कुछ स्थिति बयां कर दी है। हम बस इनकी दुर्दशा पर बेबस बैठे आंसू ही बहा सकते है।कभी कभी तो लगता है कि सब कुछ छोड़-छाड़ कर भारत आ जाऊं और वैचारिक सहयोगियों के साथ मिलकर एक वृद्द आश्रम की स्थापना करूं (ये मेरा भविष्य का ड्रीम प्रोजेक्ट है) लेकिन फिर लगता है कि कमिट करना तो आसान है, क्या निभाना उतना आसान रहेगा, जब तक कि आप स्वयं वहाँ उपस्थिति ना हो।अलबत्ता एक बात तो पक्की है, भविष्य के बुजुर्ग (यानि हम लोग) आर्थिक रुप से इनसे बेहतर स्थिति मे रहेंगे। अब देखो क्या होता है।
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मार्मिक है। कभी कभी बूढ़ा होने से डर लगता है। पर डर कर भी क्या होगा।
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दादा जल्द ही आप मेरे ब्लोग पर सचित्र पढेगे..मेरा वादा है..मै सिर्फ़ इतना जानता हू कि अगर आप इस सच्चाई को देखले तो दो चार दिन खाना ना खा पायेगे..ये वृद्धाये यहा पुरे देश से सिर्फ़ संपत्ती विवादो और पीछा छूडाने के लिये छोड दी जाती है ,सबसे ज्यादा बंगाल से आती है राजा राम मोहन राय की धरती से ,जो उन्होने सुधारा था उसका दूसरा जुगाड है ये….दिन भर भजन करने के बाद २५ पैसे और ५० ग्राम चावल ..आपने शायद अभी कही भी लौकी तोरी के पत्ते बिकते नही देखे होगे..यहा बिकते है..जिसे ये चावल के साथ उबाल कर खाती है जवान महिलाये कुछ ज्यादा पा जाती है पर उसकी कीमत वही है..मुझ इसी लिये धर्म स्थलो से घृणा है और मै इन जगहो पर सिर्फ़ एक पर्यटक की हैसीयत से ही जाता हू..सिजदा करने की इच्छा नही होती…
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