मेरी सरकारी कार कॉण्ट्रेक्ट पर है। ठेकेदार ने ड्राइवर रखे हैं और अपनी गाड़ियाँ चलवाता है। ड्राइवर अच्छा है। पर उसे कुल मिलते हैं 2500 रुपये महीना। रामबिलास रिक्शेवाला भी लगभग इतना ही कमाता है। मेरे घर में दिवाली के पहले पुताई करने वाले आये थे। उन्हें हमने 120 रुपया रोज मजूरी दी। उनको रोज काम नहीं मिलता। लिहाजा उनको भी महीने में 2000-2500 रुपये ही मिलते होंगे।
कल मैं अपनी पत्नी के साथ टेलर की दूकान पर गया। मास्टर ने दो कारीगर लगा रखे थे। उनसे मैने पूछा कितना काम करते हो? कितना कमाते हो? उन्होने बताया कि करीब 10-12 घण्टे काम करते हैं। मास्टर ने बताया कि दिहाड़ी के 100 रुपये मिलते हैं एक कारीगर को। कारीगर ने उसका खण्डन नहीं किया। मान सकते हैं कि इतना कमाते हैं। यह भी पड़ता है 2500 रुपया महीना।
मेरी पत्नीजी का अनुमान है कि अगर घर का हर वयस्क इतना कमाये तो परिवार का खर्च चल सकता है। यह अगर एक बड़ा अगर है। फिर यह भी जरूरी है कि कोई कुटेव न हो। नशा-पत्ती से बचना भी कठिन है।
कुल मिला कर इस वर्ग की आमदनी इतनी नहीं है कि ठीक से काम चल सके।
‘ब’ बम्बई से मुझे फोन करता है – भैया, बम्बई आई ग हई (भैया बम्बई आ गया हूं)। उसे मैने सीड मनी के रूप में 20,000 रुपये दिये थे। कहा था कि सॉफ्ट लोन दे रहा हूं। साल भर बाद से वह 500 रुपये महीना ब्याज मुक्त मुझे लौटाये। उस पैसे को लेकर वह बम्बई पंहुचा है। बाकी जुगाड़ कर एक पुरानी गाड़ी खरीदी है और बतौर टेक्सी चलाने लगा है। मैं पैसे वापस मिलने की आशा नहीं रखता। पर अगर ‘ब’ कमा कर 4000-5000 रुपया महीना बचाने लगा तो उसका पुण्य मेरे बहुत काम आयेगा।
‘स’ मेरे पास आया था। बोला मूंदरा पोर्ट (अडानी का बन्दरगाह, गुजरात) जा रहा है। उसका भाई पहले ही वहां गया था – 8-10 महीना पहले। वह 7000 रुपया महीना कमा रहा है। इसे 3500 रुपया शुरू में मिलेगा पर जल्दी ही यह भी 7000 रुपया कमाने लग जायेगा।
मैं तुलना करता हूं। अपने ड्राइवर को कहता हूं कि बम्बई/अहमदाबाद क्यों नहीं चला जाता। भरतलाल के अनुसार खर्चा-खुराकी काट कर एक टेक्सी ड्राइवर वहां 5000 रुपया महीना बचा सकता है। मैं ड्राइवर से पूछता हूं कि वह इलाहाबाद में क्यों बैठा है? वह चुप्पी लगा जाता है। शायद स्थितियाँ इतना कम्पेल नहीं कर रहीं। अन्यथा मैं तो इतने लोगों को देख चुका हूं – यहां इलाहाबाद में और वहां बम्बई गुजरात में – कि सलाह जरूर देता हूं –
भाई, बम्बई जाओ, गुजरात जाओ।
आपके अनुसार यह सलाह उचित है या नहीं?
हम क्या बोलें, देश से दूर विदेश में …. अब तो बस जो उत्तरदायित्त्व उठाएँ हैं उन्हें निभाना कर्तव्य मानकर चलते जा रहे हैं.
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ज्ञान जी मैं पिछले कई दशकों से मुम्बई हूँ, मेरे घर में तीन सदस्य और सब कमाऊ, 2500 से कही कहीं ज्यादा, मजे की जिन्दगी, पर ये कहना की इतनी बचत हो सकेगी जितनी आप हिसाब लगा रहे है तो गलत हैं। आलोक जी सही कह रहे है कि हर शहर के अपने दु:ख हैं और सागर जी भी सही कह रहे है कि दूर के ढोल सुहावने लगते है। हमसे पूछिए हम छोटी जगह जा कर बस जाने का सपना देखते हैं जो कभी पूरा नहीं होगा,
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ये सही है कि २५०० रूपये महीना कम है पर कम से कम अपनों के साथ तो रह रहा है।और जैसा कि आपकी पत्नी ने कहा वैसा भी आम तौर पर होता है। मतलब एक घर मे कई कमाने वाले।और पैसा तो ऐसी चीज है कि अगर है तो भी आदमी परेशान और नही है तो भी आदमी परेशान ही रहता है।
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ज्ञानदत्त जी नमस्कार ,हिन्दी ब्लोगिंग के क्षेत्र मैं थोड़ा नौसिखिया हूँ. काकेश जी के ब्लॉग पर आपकी टिप्पणियां पढीं तो खिंचा आया. आपके सवाल को यदि थोड़ा व्यापक बना कर मैं अपने ऊपर लागू करूँ तो यही कहूँगा कि पैसा तो है मगर वो घर वो गलियारा कहाँ ? व्यापक बनाने की बात इसलिए क्योंकि मैं थोड़ा “हाई एंड” का वर्कर हूँ 🙂
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मैं तो बम्बई भी रह चुका और गुजरात में भी… बस इतना क्हना चाहूंगा कि दूर के ढोल बड़े सुहावने लगते हैं।
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पहले ऐसा सलाह देने लायक बन तो जाऊं!! अभी तो खुद ही सलाहें झेलता रहता हूं!!
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अपन ज्ञानी है न सेंटीं हुए जा रहे है. आदमी खुद ही तय करे की उसे क्या चाहिए? और फिर अपना गंतव्य तय करे. ज्यादा मजूरी चाहिए तो वैसी जगह जाये, शांति चाहिये तो वैसी जगह जाये. यहाँ बात ज्यादा कमाने की हो रही है तो ज्ञानजी ने सही सलाह दी है.
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जहां कमाई की संभावनाएं वहां जाना चाहिए। वैसे बंबई क्यों, दुबई, या अमेरिका की सलाह दी जा सकती है। छोटे शहरों के अपने आनंद हैं, अपने सुख हैं, अपने दुख हैं। मुंबई दिल्ली खासी परीक्षा लेते हैं, पर इस परीक्षा में जो पास हो लेता है, वह कम से कम इस दुख से बच जाता है कि वह सिर्फ ढाई हजार कमाता है। पर इन शहरों में अलग किस्म के दुख घेर लेते हैं। बात ये है जी लाइफ ससुरी दुखों का एक्सचेंज आफर है, इलाहाबाद के दुखों का एक्सचेंज मुंबई के दुखों से कर लो। मुंबई के दुखों का एक्सजेंट टोरंटो के दुखों से कर लो। नये दुख कुछ समय तक सताते हैं, फिर आदत हो जाती है। वैसे व्यावहारिक सलाह यही है कि जहां चार पैसे ज्यादा मिलें, बंदे को चला जाना चाहिए। जेब में पैसे हों, तो कुछ दुख झेलेबल हो जाते हैं। घर-परिवार-नाते-रिश्तेदारों की नजदीकी फालतू की बात है, जहां बंदा चार पैसे कमाता है, सब कुछ वहीं बन जाता है।
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आप हमारे ब्लॉग पर पोस्ट की ग़ज़ल का ये शेर तो पढे ही होंगे :”वो ना महलों की झूटी शान में है जो सुकूं गावं के मकान में है “मुम्बई या गुजरात में पैसा कमाया जा सकता है लेकिन उसकी बहुत भारी कीमत अदा करनी होती है. हर कोई इलाहबाद से आके “अमिताभ” नहीं बन जाता.बाकि नसीब अपना अपना, कोशिश करने में कोई हर्ज़ नहीं .नीरज
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