जीवन मूल्य कहां खोजें?


(यह पोस्ट मेरी पिछली ’यदि हमारे पास चरित्र न हो’ विषयक दोनो पोस्टों पर आयी टिप्पणियों से प्रेरित है)

नीति शतक का जमाना नहीं। धम्मपद का पढ़वैया कौन है? तिरुवल्लुवर को कौन पढ़/पलट रहा है? भग्वद्गीता के दैवीसम्पद (अध्याय १६) का मनन कौन कर रहा है? रामचरित मनस के उस प्रसंग को कौन खोज रहा है जिसमें राम कहते हैं कि वह रथ कोई और है जिसपर आरूढ़ होकर विजय मिलती है –

सुनहु सखा कह कृपानिधाना। जेहिं जय होइ सो स्यंदन आना।।
सौरज धीरज तेहि रथ चाका। सत्य सील दृढ़ ध्वजा पताका।। —

आइये; अतीत की पुनर्कल्पना करें। वर्तमान स्थिति में राम-रावण संग्राम हो तो राम हार जायेंगे क्या? दुर्योधन भीम की छाती फाड़ कर रक्त पियेगा? द्रौपदी वैश्या बनने को मजबूर होगी? अर्जुन कृष्ण की बजाय शल्य को अपना सारथी और शकुनि को सलाहकार बनाना पसन्द करेगा? मां सीता मन्दोदरी की सखी(?) बन जायेंगी? पाण्डव नारायणी सेना को ले कर महाभारत मे‍ जायेंगे – कृष्ण का साथ नहीं मागेंगे? गीता को पोर्नोग्राफी की तरह बैन कर दिया जायेगा या फ़िर संविधान संशोधन से “यत्र योगेश्वर: कृष्णौ—” को उसमें से निकाल दिया जायेगा?

अगर, टेलीवीजन तथाकथित बाबाओं के वह प्रवचन दिखा रहा है जिससे लोगों में चरित्र के प्रति आस्था समाप्त हो गयी है – हो रही है – तो यही सब सम्भावनायें हैं।

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अतीत की पुनर्कल्पना करें। वर्तमान स्थिति में राम-रावण संग्राम हो तो राम हार जायेंगे क्या? दुर्योधन भीम की छाती फाड़ कर रक्त पियेगा? द्रौपदी वैश्या बनने को मजबूर होगी? अर्जुन कॄष्ण की बजाय शल्य को अपना सारथी और शकुनि को सलाहकार बनाना पसन्द करेगा? मां सीता मन्दोदरी की सखी(?) बन जायेंगी?
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अगर जैसा इष्ट देव सांकृत्यायन टिप्पणी में कहते हैं – अखबार, सिनेमा और संसद – यही जीवन मूल्य परोस रहे हैं और लोग उसे मिष्टान्न की तरह (अपशिष्ट पदार्थ की तरह नहीं) ग्रहण कर रहे हैं तो यह सब भयावह यथार्थ है! (मैं यह भली प्रकार समझता हूं कि इष्ट देव सांकृत्यायन स्वयम इन अपशिष्ट जीवन मूल्यों के वकील नहीं हैं – वे तो मात्र व्याप्त स्थिति का वर्णन कर रहे हैं।)

शायद यह नहीं है। और इसमें विश्वास ही भविष्य की आशा की किरण है।

मित्रों जीवन मूल्य खोजने के लिये आप अखबार, सिनेमा, संसद के प्रहसन और टेलीवीजन में जेड गुडी/शिल्पा शेट्टी का कार्यक्रम न तलाशें। स्कूल – कालेज के कार्यक्रमों में मुख्य अतिथि की तरह शोभायमान सांसद बन बैठे लोकल माफिया को अपना रोल माडल न मानें। और आपको लगता है कि यही लोग सफल हैं तो अपनी सफलता की परिभाषा के छद्म को पहले दूर करें।

आप यह न समझें कि मैं आपको यह टेलीवीजन वाले बाबा की तरह प्रवचन दे रहा हूं। वरन् जब मैं यह लिख रहा हूं तो मैं अपने आप को आश्वस्त करने का यत्न कर रहा हूं कि अन्धकार के समय में भी दीपक का कार्य चरित्र में आस्था ही कर सकती है।

चलिये, मैं एक बार अपने और आपके फायदे के लिये लिख दूं वे गुणसूत्र जो चरित्र/सफलता के मूल में हैं – Gyan(218)

  • युगों से संचित सत्य-ज्ञान पर विश्वास
  • सत्य, मधुर और हितकर वाणी
  • प्रसन्नता, मृदुता, मौन, आत्मसंयम और आत्म शुद्धि
  • अभय (निर्भयता), दान, अध्ययन, तपस्या, सरलता, क्रोध का उत्तरोत्तर अभाव और शान्ति
  • अनिन्दा, दया, अलोभ, धीरता और क्षमा
  • साहस, पवित्रता, विश्वस्तता की प्रचुरता और अभिमान का अभाव।

बेन्जामिन फ्रेन्कलिन अपनी आटोबायोग्राफी में चरित्र निर्माण के प्रयोग की बात कहते हैं। वे एक समय में एक गुण पर ध्यान केन्द्रित करते हैं। और वे महान चरित्र बन पाये सतत अभ्यास से। (आप उनकी आटोबायोग्राफी के आठवे‍ अध्याय का अवलोकन करें। हाइपर लिन्क किये पन्ने के लगभग बीच में स्क्रॉल कर पंहुचें। वहां उन्होने १३ गुणों और उनके अभ्यास की चर्चा कर रखी है। आपको अंग्रेजी में पढ़ना पड़ेगा।)

भविष्य चाहे जैसा हो, वह फ्रेन्कलिन जैसे चरित्र को आदर से याद करेगा; हमारे तथाकथित सफल लोकल नेता को नहीं!


पता नहीं यह कैसे आ रहा है कि सफलता के धनात्मक गुणों में विश्वास कम हो गया है। स्टीफन कोवी और शिव खेड़ा/रॉबिन शर्मा की पुस्तकें अभी भी बेस्ट सेलर में हैं। नेपोलियन हिल की ”लॉ ऑफ सक्सेस” का पारायण करने वाले अनेक हैं। बाइबल, भग्वद्गीता और रामचरितमानस की सीरियस स्टडी करने वाले अभी भी हैं और बढ़ रहे हैं।

शायद हिन्दी ब्लॉग जगत में ही कुछ लोचा है।Thinking

वैसे मैं जानता हूं – ज्यादा चरित्र-फरित्र ठेला तो मूढ़-मति अवार्ड फाउण्डेशन एक अवार्ड हमें भी थमा देगा!


Published by Gyan Dutt Pandey

Exploring village life. Past - managed train operations of IRlys in various senior posts. Spent idle time at River Ganges. Now reverse migrated to a village Vikrampur (Katka), Bhadohi, UP. Blog: https://gyandutt.com/ Facebook, Instagram and Twitter IDs: gyandutt Facebook Page: gyanfb

15 thoughts on “जीवन मूल्य कहां खोजें?

  1. पता नहीं क्यों, पर मुझे ना तो आध्यात्म में रुचि है और ना ही भगवान में श्रध्दा.. पर पढ़ने की आदत ऐसी है की कुछ भी मिल जाने पर पढ़ जाता हूँ, इसी कारण से मैंने गीता-पुराण से लेकर बाइबिल और कुरान भी पढ़ा हूँ.. और जब आपका लिखा पढने का लत एक बार लग जाए तो बस पढ़ते जाने का मन करता है.. अंत वाला स्माइली देख कर चेहरे पर मुस्कान आ गई थी..

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  2. “गिला करते हो क्यों तुम तेज़ चलती इन हवाओं से मज़ा तो है तभी जब इनमें तुम दीपक जला पाओ “सोच हमेशा सकारात्मक हो रावण हर युग में राम से हारता ही रहेगा.बहुत ज्ञान वर्धक बात लिखी है आप ने लेकिन निराशा को जीवन में स्थान न दें.नीरज g

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  3. @ संजय तिवारी – मैने YSS की पुस्तकें पढ़ी हैं। परमहंस योगानन्द जी की दो भागों में गीता पर टीका का यदा-कदा सन्दर्भ लेता रहता हूं। क्रिया योग का अभ्यास नहीं किया है। श्रीकृष्ण का यह विलक्षण चित्र उनके केलेण्डर की मोबाइल के कैमरे से फोटो ले कर लगाया है।

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  4. आपके ब्लाग पर कृष्ण की जो फोटो लगी है वह बताती है कि आप योगदा सत्संग सोसायटी के संपर्क में है. क्या आप क्रियायोग का अभ्यास करते हैं?

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  5. ज्ञानदत्तजी,आपकी आज की पोस्ट बार बार पढी । पिछले कुछ महीनों से कई सवाल मन को बोझिल बना रहे थे; कई पुरानी धारणाओं को मेरा चिंतन चुनौती दे रहा था । आज आपकी पोस्ट ने उस चेन रिएक्शन को एक उत्प्रेरक की तरह गति प्रदान कर दी है । आखों में आखें डालकर कुछ प्रश्नों के उत्तर तलाशने ही होंगे । आमतौर पर मैं प्रवचन नहीं सुनता, न ही व्यक्तित्व को सुधारने सम्बन्धी किताबे पढता हूँ । “Quotable quotes” पढकर मैं आज तक प्रसन्न नहीं हुआ क्योंकि मुझे पता था कि मन/वचन और कर्म की दुर्बलतायें हमें उन गुणों की तरफ़ ललचाई नजरों से देखने को प्रेरित करती हैं फ़िर कुछ समय बाद आप अगर उन गुणों को आत्म-सात न कर सकें तो बडा कष्ट होता है (काफ़ी लोग Quotable quotes पढकर क्षणिक आनन्द लेकर भूल भी जाते हैं, अगर ऐसा कर सकें तो कोई समस्या न हो )।लेकिन संभवत: जीवन के इस मोड पर कुछ Basic Premises बनाने ही पडेंगे या पुरानों का पुनरावलोकन करना ही पडेगा जिनके आधार पर जीवन के निर्णय किये जा सकें । आपने जिस सरलता से कुछ सूत्र बताये हैं, उनके लिये आपको साधुवाद ।

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  6. क्षमा करें ज्ञानजी, मुझे लगता है अब आप गलत सोच की ओर बढ़ रहें है की लोग चरित्र की बात सुनना नहीं चाहते. सच्चाई यह है की दुनिया में भलाई ही ज्यादा है वरना दो दिन में यह ढ़ेर हो जाये. लोगो को अच्छी बातें पसंद है इसी लिए मात्र अच्छी बाते करने मगर उन पर अमल न करने वालो से नाराज है और ऐसे दिखते हर व्यक्ति को शक की नजरों से देखते है. आज नेता अपना विश्वास खो चुके है कोई कहता है की मैं ईमानदार नेता हूँ तो यह एक चुटकुला ही लगेगा. वैसा ही हाल पत्रकारों का है, बाबाओं का है. लोग पहले के मुकाबले ज्यादा सजग और व्यवहारीक हुए है.

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  7. ज्ञान जी , समाज के ऊपरी सतह पर आज जो कुछ भी हो रहा हो लेकिन भीतर ही भीतर अब भी सेवा,ईमानदारी,सच्चाई,नारी के प्रति सम्मान और आध्यात्मिकता के मूल्य बने हुए हैं. हाँ वे दब ज़रूर गए हैं लेकिन नष्ट नहीं हुए. सन 1994 के विद्यार्थी जब आज मेल और फोन के माध्यम से अपना आदर भाव दिखाते हैं तो मन मानने को तैयार नहीं होता कि जीवन मूल्यों के प्रति आस्था नष्ट हो गई है. परत दर परत चढ़ी धूल को हटाने की देर है और यह काम हम सबको मिलकर करना है. आपने आभासी दुनिया में इस कार्य का श्री गणेश कर ही दिया है.

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  8. बाबा सच्चानंद आफ डेरा लुच्चा सौदा की किताब-मौजूदा समय का युगधर्म के कुछ अंश-हर युग में सवाल उठता है कि कौन हार रहा है,कौन जीत रहा है। सच्चा हार रहा है या झूठा हार रहा है। वत्स सही देखें, तो सब हार रहे हैं, जो जीते हुए लगते हैं, वो भी मौत से हार रहे हैं। बड़के से बड़के सिकंदर, अकबर कोई भी ना जीता मौत से। सो जीते हुए हार रहे हैं और हारे हुए तो हार ही रहे हैं। असली सत्य है मौत। उससे पहले का सत्य है जीवन। जीवन को डिफाइन नहीं किया जा सकता है। जीवन को फ्रेमवर्क में नहीं बांधा जा सकता है। हर व्यक्ति का धर्म उसका स्वभाव से संचालित होता है, संचालित होना चाहिए। जैसा कि गीता में भगवान श्री कृष्ण ने कहा है कि अपने स्वभाव में ही जीना चाहिए, स्वभाव ही स्वधर्म है। किसी का स्वधर्म मौज में रहना होता है, किसी का स्वधर्म नोटों की खोज में होता है,किसी का स्वधर्म कन्याओं को गिफ्ट रोज देने में होता है, सबको अपने धर्म का पालन करना चाहिए। आदमी को तजुरबों से सीखना चाहिए। अकलमंदी तजुरबों से आती है। तजुरबे अपनी मनमानी करने से आते हैं। मनमानी की भावना नितांत उच्च कोटि की बेवकूफी से आती है। तो यूं हम कह सकते हैं कि बेवकूफी से अंतत अक्लमंदी पैदा होती है। कबीरदास ने कहा है कि एक डाल पर बैठ्या रे दोनों, कौन गुरु कौन चेला,गुरु की करनी गुरु भरेगा,चेले की करनी रे चेला।सब अपनी अपनी करें, सब अपनी अपनी भरें। जिसका मन हो इंटरेस्टिंग करे,जिसका मन हो नान इंटरेस्टिंग करे। पर मन बहुत बदमाश टाइप होता है,ये या तो ठुकाई से मानता है, या फिर गहरे ध्यान में जाने से। गहरे ध्यान में जाने के लिए मन को एकदम शून्य करना होता है, मन को शून्य करने के लिए जरुरी है, ऐसा शून्य, जो तर्कों से परे हो। तर्कों से परे ध्यान होता है,और तर्कों से परे ही आलोक पुराणिक का अगड़म-बगड़म होता है। अत हम कह सकते हैं कि मन के शून्य का मन की मुक्ति का रास्ता आलोक पुराणिक के ब्लाग http://www.alokpuranik.com से ही जाता है।

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  9. ये शाश्वत मूल्य हैं। ये थे, हैं और रहेंगे। यह अलग बात है कि कभी-कभी ऐसे लोग अल्पमत में दिखते हैं।प्रोपेगण्डा में अफ़रा-तफ़री दीखती है लेकिन मजे की बात है कि बेईमान आदमी भी ईमानदार साथी खोजता है। जहां तक अवार्ड फ़ाउन्डेशन वाली बात है तो जिसके पास जो होगा देगा। और कल ही हमने एक शिष्टाचार वाली किताब में पढ़ा -उपहार लेते समय उसे मुस्कराते हुये ग्रहण करना चाहिये। जब आपको कोई अवार्ड मिले तो मुस्कराइयेगा जरूर!

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  10. सही टिप्पणी >>> शानदार विचार!!आदतन टिप्पणी>>> हिंदी ब्लॉग जगत में ही नई जी हर तरफ़ लोचा है!! इधर लोचा, उधर लोचा। बोले तो जिधर देखो उधर लोचा। जिधर लोचा नई होता उधर अपन सब की नज़रें खुद ब खुद लोचा तलाशने लगती क्योंकि हम हो गए है लोचे के आदी, जिधर बिलकुल भी लोचा नई हो वहां अटपटा सा लगने लगता है!!अवार्ड तो मिलना ही मिलना है जी आपको!! यह श्री श्री 840 आवारा महाराज की भविष्यवाणी है, इसलिए ठेलते रहिए बस!!

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