पर्यावरण के मुद्दे ॥ नीलगाय अभी भी है शहर में


Gyan(265)

टेराग्रीन (Terragreen) पत्रिका का नया अंक »

इस वर्ष इण्टरगवर्नमेण्टल पेनल ऑन क्लाइमेट चेंज (IPCC) और अल-गोर को संयुक्त रूप से नोबल शांति पुरस्कार दिये जाने के कारण पर्यावरण का मुद्दा लाइमलाइट में आ गया है।  कल मैने टेराग्रीन (Terragreen) नामक मैगजीन का एक अंक ४० रुपये खर्च कर खरीद लिया। यह पत्रिका श्री आर.के पचौरी सम्पादित करते है। श्री पचौरी आइ.पी.सी.सी.के चेयरपर्सन भी हैं- और उनके संस्थान को नोबल पुरस्कार मिलने पर भारत में निश्चय ही हर्ष का माहौल है। मेरे ख्याल से टेराग्रीन का यह अंक अखबार की दुकान पर इसी माहौल के चलते दिखा भी होगा – यद्यपि यह पत्रिका अपने पांचवे वर्ष के प्रकाशन में है। पत्रिका के दिसम्बर-जनवरी के इस अंक में श्री पचौरी का एक साक्षात्कार भी छपा है।

इस अंक में एक लेख भोजन में एडिटिव्स पर भी है। और वह मुझे काफ़ी क्षुब्ध/व्यथित करता है। जिन तत्वों की बात हो रही है, उनका मैं पर्याप्त प्रयोग करता हूं। यह टेबल उनका विवरण देगी: 

खाद्य पदार्थ रसायन खतरे
अप्राकृतिक स्वीटनर (ईक्वल, सुगर-फ्री) जिनका मैं बहुत प्रयोग करता हूं – कैलोरी कम रखने के चक्कर में। एसपार्टेम फीनाइल्केटोन्यूरिया और मानसिक क्षमता में कमी (Phenylketoneuria and mental retardation)
चिकन बर्गर मोनो सोडियम ग्लूटामेट या अजीनोमोटो अस्थमा, ग्लाकोमा औए डायबिटीज
सॉसेज और फास्ट फ़ूड (नूडल्स आदि) मोनो सोडियम ग्लूटामेट या अजीनोमोटो अस्थमा, ग्लाकोमा औए डायबिटीज
केचप सेलीसिलेट्स (salicylates) जिंक की कमी वाले लोगों में श्रवण शक्ति का क्षरण
जैम सेलीसिलेट्स (salicylates) जिंक की कमी वाले लोगों में श्रवण शक्ति का क्षरण
मिण्ट फ्लेवर्ड च्यूइंग-गम और माउथ फ्रेशनर   सेलीसिलेट्स (salicylates) जिंक की कमी वाले लोगों में श्रवण शक्ति का क्षरण
मुझे तो सबसे ज्यादा फिक्र आर्टीफीशियल स्वीटनर की है। इसका प्रयोग बीच बीच में वजन कम करने का जोश आने पर काफी समय तक करता रहा हूं। टेराग्रीन की सुनें तो इससे मानसिक हलचल ही कुंद हो जायेगी!
पर क्या खाया जाये मित्र? चीनी बेकार, नमक बेकार, वसा बेकार। ज्यादा उत्पादन के लिये प्रयुक्त खाद और कीटनाशकों के चलते अन्न जहरीला। दूध मिलावटी। दवाओं और एडिटिव्स के भीषण साइड इफेक्ट्स!
टेराग्रीन जैसी पत्रिकायें किसी को तो नोबेल पुरस्कार दिलाती हैं और किसी को वातावरण में जहर घुला होने का अवसाद बांटती हैं।Confused
अगला अंक मैं खरीदने वाला नहीं!

शहर में नीलगाय

नील गाय की चर्चा पर्यावरण से जुड़ा मुद्दा है।

अपनी ब्लॉगरी की शुरुआत में मैने मार्च’२००७ में एक पोस्ट लिखी थी – शहर में रहती है नीलगाय। मेरे घर के पास नारायण आश्रम की हरित पट्टी में आश्रम वालों ने गाये पाली हैं। उनके साथ एक नीलगाय दिखी थी इस वर्ष मार्च के महीने में। वह कुछ समय तक दिखती रही थी पर फिर दिखना बंद हो गया। अब अचानक फ़िर वह पालतू पशुओं से थोड़ी अलग चरती दिखी। मुझे सुकून आया कि वह यहीं है।

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यह चित्र मोबाइल के कैमरे से उतना साफ नहीं आया है। वह कुछ दूरी पर थी और मौसम भी कुछ साफ कम था।

मैने मार्च में लिखा था कि नीलगायों की संख्या कम हो रही है। पर वह सही नहीं है। दशकों से बाढ़ नहीं आयी है गंगा नदी में और उसके कारण नीलगाय जैसे जंगली पशुओं की संख्या बढ़ रही है जो कछार की जमीन पर उगने वाली वनस्पति पर जिन्दा रहते हैं।

[फोटो देख कर भरतलाल उवाच: अरे मोरि माई, ई त लीलगाय हौ। बहुत चोख-चोख लम्मा लम्मा सींघ हो थ एनकर। पेट में डारि क खड़बड़ाइ देइ त सब मालपानी बहरे आइ जाइ। (अरे मां! यह तो लीलगाय है। बड़े नुकीले और लम्बे सींग होते हैं इनके। किसी के पेट में भोंक कर खड़बड़ा दे तो पेट का सारा माल पानी बाहर आ जाये!) मैने पाया कि ग्रामीण परिवेश का होने के कारण वह अधिक जानता है नीलगाय के बारे में। वह यह भी जानता है कि यदा कदा रेबिड होने – पगलाने पर, नीलगाय किसानों की जिंदगी के लिये भी खतरा बन जाती है। यद्यपि सामान्यत: यह डरपोक प्राणी है।] 


अगर मैं कुछ दिनों में गूगल रीडर के स्क्रॉलिंग ब्लॉगरोल (हाइपर लिंक के पुच्छल्ले का अन्तिम आइटम) पर लिखूं तो मुख्य बात होगी कि आप गूगल रीडर का प्रयोग करते हैं या नहीं अपनी ब्लॉग व अन्य फ़ीड्स पढ़ने के लिये। अगर नहीं करते तो इस ट्यूटोरियल से वीडियो देख कर गूगल रीडर का परिचय प्राप्त करें। (बोलने वाली बड़ी तेज-फर्राटेदार अंग्रेजी बोलती है। जरा ध्यान से सुनियेगा।Happy)


Published by Gyan Dutt Pandey

Exploring village life. Past - managed train operations of IRlys in various senior posts. Spent idle time at River Ganges. Now reverse migrated to a village Vikrampur (Katka), Bhadohi, UP. Blog: https://gyandutt.com/ Facebook, Instagram and Twitter IDs: gyandutt Facebook Page: gyanfb

14 thoughts on “पर्यावरण के मुद्दे ॥ नीलगाय अभी भी है शहर में

  1. अभी बनारस से सड़क के रास्ते चुनार गया था. रास्ते में एक-दो खेतों में नीलगाय दिख गयी. बहुत खुशी हुई.

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  2. ज्ञान जी, आजकल आप एक लेख में इतना अधिक मसाला डालने लगे हैं कि डर लगने लगा है कि यह जल्दी ही आपको थका देगा. ईश्वर न करे कभी ऐसा हो. नीलगाय की कहानी एकदम दिल को छू गई. जब से मेरे पास मेरा अपना मकान है (1990 से) तब से हमारे आसपास के तमाम प्रकार के जानवर एवं चिडियों को देखना/खिलाना नियम बन गया है. कई बार घर में जहरीले सांप दिखे तो भी बच्चों को खुशी हुई (इस इलाके में जहरीले सांप बहुत हैं).ईश्वर करे कि आपका हर पाठक इसी तरह प्रकृति से प्रेम करे.चित्र के लिये आभार. कुछ न हो उससे यह दूर से लिया गया चित्र मन को तृप्ति देता है.

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  3. चिंता में पड़ गए हैं कि लिस्ट में पहले को छोड़ कर बाकि सब भोज्य पदार्थ हमारे जीवन में हैं..छोड़ने का उपाय ढूँढना होगा…

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  4. खान पान के मामले में परम्परावादी होना सबसे फायदेमंद होता है…एक कहावत है जैसा खाए अन्न वैसा बने मन…..मैं कहूँगा कि मन जैसा होगा प वासे ही हो जाते हैं…इसलिए शोच समझ कर खाएँ…….भरत की बात के अनुवाद की आवश्यकता नहीं थी….

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