जब से रेलवे की स्थापना हुयी है, रेल कर्मियों की सेलरी (मासिक तनख्वाह) बांटने का काम कैश ऑफिस के कर्मी करते रहे हैं। जब मैने रेलवे ज्वाइन की थी तब मुझे भी तनख्वाह कैश में मिलती थी। डिविजनल पेमेण्ट कैशियर (डीपीसी)1 आता था नियत दिन पर और हम सभी नये रेल अधिकारी रेलवे स्टॉफ कॉलेज वडोदरा में लाइन लगा कर अपना पेमेण्ट लेते थे। यह कैश सेलरी लेने का तरीका करीब ८-१० साल चला। पोस्टिंग होने पर हमारा चपरासी कमरे में ला कर कैश दे देता था और हस्ताक्षर करा ले जाता था। उसके बाद सेलरी हमारे बैंक अकाउण्ट में सीधे जाने लगी। यह झंझट खतम हो गया। बाद में बैंकों का कामकाज सुधरा तो दफ्तर/घर में बैठे-बैठे बैलेन्स देखने या ट्रॉंजेक्शन करने की सहूलियत हो गयी।
पर हमारे बहुत से रेलकर्मी अभी भी कैश में सेलरी डीपीसी के माध्यम से लेते हैं। मैने देखा है कि जब वे सेलरी ले रहे होते हैं तब यूनियन के चन्दा उगाहक और महजनी पर उधार देने वाले प्रतीक्षा कर रहे होते हैं कि कर्मचारी के हाथ पैसे आयें और वे अपना हिस्सा खसोटें। कुछ कर्मचारी कैश मिलने पर सीधे राह पकड़ते हैं मधुशाला की – जो उनकी राह देख रही होती हैं। कोटा (राजस्थान) में मेरा बंगला चपरासी था – पारसिंग। उसकी पत्नी उसके सेलरी मिलने के दिन रिक्शे पर बैठ कर दफ्तर में झाड़ू लेकर आती थी जिससे कि वह येन केन उससे सेलरी के पैसे ले सके। अन्यथा पारसिंग उसमें से काफी हिस्सा दारू पर उड़ा देता। कई बार तो उसकी पत्नी को सर्वजनिक रूप से पारसिंग पर झाड़ू से प्रहार भी करना होता था।
कई बार महाजनों से तंग आ कर रेलकर्मी अपने किसी और स्थान पर तबादले की चिरौरी भी करते है।
पर जब रेलवे यत्न करती है कि कर्मचारी अपना बैंक अकाउण्ट खोलें और उनकी सेलरी सीधे बैंक में जाये तो बहुत से लोग उसके विरोध में खड़े हो जाते हैं। मजदूर यूनियनों को यह कर्मचारी के मौलिक अधिकार पर हनन प्रतीत होता है। वे बैंकों की अक्षमता, अकाउण्ट दफ्तर की लापरवाही, कर्मचारी को पैसे की तुरन्त जरूरत, कर्मचारी के अनपढ़ होने और बैंक अकाउण्ट न मेण्टेन कर पाने जैसे कई तर्क देते हुये यह ज्वलंत मुद्दा बनाते हैं कि सेलरी कैश में ही दी जाये। उसमें उनका अपना स्वार्थ होता है यूनियन के चंदे का कलेक्शन। अगर सेलरी बैंक में जाने लगी तो उनके चन्दे में भारी गिरावट आयेगी।
मजे की बात है कि यही अशिक्षित कर्मचारी जब रिटायर होता है तो ओवरनाइट अपना बैंक अकाउण्ट खोलने और उसे चलाने में सक्षम हो जाता है। उसके लिये यूनियन कोई मुद्दा नहीं बनातीं। रिटायर आदमी को उसकी पेंशन बैंक के माध्यम से ही मिलती है।
न जाने कब तक कैश में सेलरी बंटने की प्रथा चलती रहेगी!
1. जब मैं उदयपुर में रेलवे ट्रेनिंग केन्द्र का प्रधानाचार्य था तब डीपीसी बड़ी हस्ती होता था। वह अजमेर से आता था। उसे लेने के लिये ट्रेनिंग केंद्र की बस उदयपुर रेलवे स्टेशन जाती थी। सवेरे से ही सभी चर्चा रत होते थे कि आज डीपीसी साहब आ रहे हैं। उस कैशियर की अटैची/ब्रीफकेस पकड़ने और ले कर चलने को कई कर्मचारी आतुर होते थे। डीपीसी साहब का चाय-पानी-भोजन फ्री होता था। कैसे – यह मैं आज तक नहीं जान पाया!
मेरी पत्नी को बहुत कष्ट है जब सेलरी बेंक में जाने लगी है। पहले उन्हे सेलरी की पाई-पाई मैं हाथ में थमाता था। उसमें से वह तय करती थीं कि कितना बैंक में जायेगा और कितना उनके पास रहेगा। सेलरी बैंक में जाने पर यह सहूलियत जाती रही!
जैसा अनूप जी ने कहा कि ये लफ़ड़ा सब जगह है। कई कंपनियों में पगार सीधा पत्नी के हाथ में दी जाती है अगर पति शराबी हो तो और वेलफ़ेअर डिपार्टमेंट ऐसा करने की सलाह दे तो। युनिअन और महाजन की त्रासदी से निजाद पाने का एक ही तरीका है कि मजदूरों की शिक्षा का स्तर बड़े चाहे कपंयुटर लिटरसी ही की बात क्युं न हो। हमारे यहां बहुत सारे महिला सघटन इसके बारे में बहुत अच्छा काम कर रहे हैं।
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यह अलग बात है कि बैंक में तनख्वाह जमा होने से वह सुख हासिल नही होता जो हाथ में आए नोटों से मिलता है, लेकिन वह सुख क्षणिक होता है ! वैसे बैंक में सैलरी जाने से अब कैसी समस्या? अब तो ऐ. टी.एम् का ज़माना है , जब जरूरत पड़े निकाल लीजिये !
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तनख्वाह सीधे बैंक अकाऊंट में आना ही सबसे सही है पर जैसा कि आलोक जी ने कहा कि तनख्वाह पाने का सुख तो वाकई हाथ में नोट आने पर ही होता है। बैंक में तनख्वाह जमा होने से वह सुख हासिल नही होता जो हाथ में आए नोटों से मिलता है।रही बात यूनियन की तो ये नेतागिरी तो सब जगह लोचे करती है, चाहे रोजमर्रा की ज़िंदगी हो या फिर यूनियन।डी पी सी साहब वाली जानकारी पहली बार मिली। शुक्रिया।
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मेरे एक परिचित थे दूबे जी यी पाण्डे जी वो रेल यूनियन के नेता था…दिन भर पोस्टआफिस की ओर वाले स्टैंड पर विराजते थे और महीने के आखीर में नहा-धो कर तनखाह बंटनेवाले माहौल का आनन्द लेते थे…मुझे लगता है कि वे भी चंदा उगाहते थे…
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