अपनी इस बुधवासरीय अतिथि पोस्ट में वनस्पति विज्ञानी श्री पंकज अवधिया पारम्परिक चिकित्सा पर अपने विचार रख रहे हैं। पारम्परिक चिकित्सा का विषय बहुत कुछ योगिक ज्ञान के विषय सा ही है। कुछ समय से हम आम आदमी में भी योग विषयक हलचल देख रहे हैं। कुछ वैसा की राग पारम्परिक चिकित्सा के विषय में भी जगे – यह आशा की जानी चाहिये। आप पंकज जी का लेख पढ़ें:
इस बार मैं आपको अपने वानस्पतिक सर्वेक्षणों के दौरान हुये विभिन्न अनुभवों के विषय मे बताना चाहता हूँ जिससे आप भारतीय वनस्पतियों और इनसे सम्बन्धित पारम्परिक चिकित्सकीय ज्ञान के विषय मे कुछ जान पायें। कुछ वर्षो पहले मुझे उत्तरी छत्तीसगढ़ के पारम्परिक चिकित्सकों से एक विशेष प्रकार की लकड़ी के विषय मे पता चला। ये पारम्परिक चिकित्सक उच्च रक्तचाप की चिकित्सा करने मे दक्ष हैं। उनके इलाज का तरीका बड़ा ही सरल है। वे रोगी को इस विशेष लकड़ी का टुकडा थमा देते हैं और कस कर पकड़ने को कहते हैं। थोड़ी ही देर मे आश्चर्यजनक रूप से रोगी आराम महसूस करने लगता है और जल्दी ही ठीक हो जाता है। यह सब पारम्परिक चिकित्सको की निगरानी मे होता है। इस लकडी को स्थानीय भाषा मे तेन्गुली कहते है। इसका वृक्ष बहुत बड़ा होता है। जब मैने इसके विषय मे जानकारी एकत्र की तो विश्व साहित्य मे इसके अन्य औषधीय गुणों के विषय मे तो पता चला पर उच्च रक्तचाप मे इस तरह के उपयोग की बात नही मिली। मैने अपने शोध लेखों मे इसका वर्णन किया। बाद मे जब मैं मैदानी क्षेत्र के पारम्परिक चिकित्सकों से मिला तो उन्होने इस प्रयोग मे रूचि दिखायी और बताया कि वे इस बारे मे नही जानते हैं।
तीर-धनुष से आज के युग में शिकार करने वाले वनवासियों से मुझे इस वृक्ष मे विषय में एक और जानकारी मिली। वे जब भी जंगल जाते हैं तो इस पेड़ को काटते चलते हैं। छोटा पौधा दिखा नहीं कि वे सब काम छोड़कर इसे काटने मे जुट जाते हैं और काटकर ही दम लेते हैं। ऐसा क्यों? भला ऐसी क्या दुश्मनी? उन्होने बताया कि जब वे निशाना लगाकर तीर चलाते हैं तो यह पेड़ तीर की दिशा बदल देता है। वे इसे चुम्बकीय प्रभाव कहते हैं। चूँकि शिकार ही उनकी आजीविका का मुख्य सहारा है इसलिये वे इस व्यवधान पैदा करने वाले पेड़ को काट देते हैं। मैने एक बार फिर विश्व साहित्य का सहारा लिया पर मुझे इस विषय में कोई जानकारी नही मिली। मैने अपने वैज्ञानिक मित्रो को यह बात बतायी तो उन्होने मजाक उडाया।
मै फिर से उत्तरी छत्तीसगढ के पारम्परिक चिकित्सको से मिला तो उन्होने बताया कि आम लोग जिन्हे उच्च रक्तचाप होने की सम्भावना हो इसकी लकडी की बनी चप्पल प्रयोग कर सकते हैं। साथ ही पुराने रोगी विशेष प्रकार के पलंग का इस्तमाल कर सकते हैं। यह तो बड़ा ही रोचक ज्ञान है। हमारे आस-पास कितने ही रोगी हैं और हम अब तक इस सरल प्रयोग से अंजान रहे। हमारे अपने पारम्परिक चिकित्सक इस ज्ञान को संजोये रहे और हम उन्हे नीम-हकीम कहते रहे। उनका यह ज्ञान असंख्य लोगो को राहत पहुँचाने के अलावा हजारों लोगो को रोजगार दिलवा सकता है। क्यो न इस ज्ञान के आधार पर ग्रामीण स्तर पर उद्योग लगाये जायें और फिर शहर जाकर रोजगार खोज रहे युवाओं को पलन्ग और अन्य उत्पाद बनाने का प्रशिक्षण दिया जाये। वे ही इसकी मार्केटिंग करें और इस तरह ग़ाँव के ज्ञान से सीधे गाँव का ही लाभ हो। कितना अच्छा लगता है यह सब सोचना पर जमीनी स्तर पर यह एक असम्भव सा कार्य है।
पहले तो आधुनिक विज्ञान इसे नहीं मानेगा। फिर उसे असर दिखने लगेगा तो वैलीडेशन के नाम पर शोधकर्ता इस ज्ञान को आधुनिक प्रयोगशालाओ मे ले जायेंगे। धीरे-धीरे पारम्परिक चिकित्सको को प्रक्रिया से हटा दिया जायेगा। फिर कुछ महीनों बाद इसे असफल प्रयोग घोषित कर दिया जायेगा। आम लोग भूल जायेंगे। कालान्तर में कुछ वर्षो मे इससे सम्बन्धित पेटेंट का समाचार आप पढेंगे। ज्यादातर लोग तो इसे भूल चुके होंगे पर जिन्हे याद होगा वो फिर ठण्डी आह भरकर कहेंगे कि यह तो हमारा ज्ञान था।
आज ज्ञान जी के चिठ्ठे के माध्यम से मै आप सब से यह अनुरोध करना चाहूंगा कि आप सभी इस पर विचार कर ऐसे उपाय सुझाये जिससे ग्रामीण हितो की रक्षा हो सके और हम एक माडल बना दे ताकि आगे परेशानी न हो। हमारे देश मे बहुत सी संस्थाए इन जमीन से जुडे लोगों के हित के नाम पर करोड़ों रूपये सरकार से लेती हैं पर उनकी गतिविधियाँ भी कम सन्दिग्ध नही हैं। यदि देश के ज्ञान को बाहर ले जाने का यह थोडा सभ्य तरीका है – कहा जाये तो गलत न होगा। अत: ऐसी संस्थाओ से परहेज ही सही है।
आप विचारें और कृपया अपने विचार बतायें।
पंकज अवधिया
© इस लेख पर सर्वाधिकार पंकज अवधिया का है।
पंकज अवधिया ने इस ब्लॉग पर बहुत पोस्टें कण्ट्रीब्यूट की हैं। उन पोस्टों ने आप सब का ध्यान वनस्पति जगत और पारम्परिक चिकित्सा की अनेक अनजानी विलक्षणताओं के बारे में ध्यान आकर्षित कराया है। समस्या इसके व्यापक प्रसार और औषधियों/उपकरणों को सरलता से उपलब्ध कराने की है। मुझे लगता है कि उसके लिये उपलब्ध मार्केटिंग तकनीकों और निर्माण/प्रबंधन की आधुनिक (पर ईमानदार) सोच और पारम्परिक ज्ञान की सिनर्जी की आवश्यकता है।
यह काम कठिन हो सकता है; पर असम्भव तो हर्गिज नहीं। और जैसा पंकज जी कह रहे हैं – हम नहीं चेते तो इसे बाकी दुनियां के लोग झटक ले जायेंगे। और उसमें देर नहीं लगेगी।
एक और बात – ये छत्तीसगढ़ी ब्लॉगर क्या खाते हैं कि इनमें इतनी ऊर्जा है? मैं सर्वश्री पंकज, संजीत और संजीव की बात कर रहा हूं? कल पहले दोनो की पोस्टें एक के बाद एक देखीं तो विचार मन में आया। इनकी पोस्टों में जबरदस्त डीटेल्स होती हैं। बहुत विशद सामग्री। इन्हीं के इलाके के हमारे इलाहाबाद के मण्डल रेल प्रबंधक जी हैं – दीपक दवे। बहुत काम करते हैं। पता नहीं सोते कब हैं।
आप सभी की प्रेरित करने वाली टिप्पणियो के लिये आभार। ज्ञान जी को भी एक बार फिर धन्यवाद मुझे आपके सामने लाने के लिये।
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Ab dhanyawaad dekar to kya time waste karun.Gyan bhale shoonya ho iske bare me,par ispar vishwaash itna hai ki sachmuch kuch karna chahti hun.Mera mail id hai ranjurathour@gmail.com apne samast samarthya ke saath parstut hun.Main yadi aapke abhiyaan me koi bhi kaam aa sakun to aadesh kijiyega.Man me kuch karne ki adamya aastha ho to raste nikal hi aate hain.Kyonki ishwar saath ho leta hai naa.
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पारम्परिक चिकित्सा को आगे चलकर और भी लोकप्रिय होना ही है लेकिन तब ही जब हम इसे बचाए रखने में सहायक और सफल साबित होंगे!!शुक्रिया कि आपने हम छत्तीसगढ़िए ब्लॉगर्स पर ऐसी विश्लेषणात्मक नज़र डाली, दर-असल हमारे ब्लॉग जगत पर एक सबसे वरिष्ठ छत्तीसगढ़िया बैठे हुए हैं जिनकी ऊर्जा के सामने हम कुछ नही और हम शायद उनसे ही प्रेरित हैं, वह वरिष्ठ छत्तीसगढ़िया ब्लॉगर है “रवि रतलामी जी”। तखल्लुस भले ही रतलामी लिखने से अपनी कर्मभूमि रतलाम के प्रति उनका लगाव जाहिर होता है लेकिन हैं तो वह मूलत: छत्तीसगढ़ से। @आलोक पुराणिक जी, अपन यह छत्तीसछुरा अवार्ड लेने के लिए तैयार है पन किसी छप्पनछुरी के हाथों दिलवाएंगे तब ही न 😉
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मेरी रूची पारम्परिक चिकित्सा में रही है. इस प्रकार के लेख सुकून देते है.
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इस तरह की चिकित्सा पद्धति आज की जरुरत बनती जा रही है ,और उसे बढावा मिलना ही चाहिये।आलोक जी की बात से मैं सहमत हूं। 2009 छत्तीसछुरा ब्लाग अवार्ड संजीतजी को देकर इसकी शुरुआत की जा सकती है।मैं आलोक जी का अनुमोदन करती हूं।
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बहुत बढिया जानकारी । केरल में भी इसी तरह का इलाज किया जाता है उच्च रक्तचाप का । किसी विशेष लकडी के बने प्याले में रात भर पानी भर कर रख दिया जाता है और सुबह इसे दवा के रूप में पी लेते है । इन पेडों की तकनीकी जानकारी आप उपलब्ध करायें तो शोधकर्ता इसे एक प्रोजेकट के रूप में शुरू कर सकते हैं ।
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इस पोस्ट के लिये आपका और पंकज जी का धन्यवाद. हमें इस तरह की चिकित्सा पद्यति को लोकप्रिय बनाना होगा.
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दिनेश राय जी बिल्कुल ठीक कह रहे हैं कि आधुनिक शोध प्रणाली के अंतर्गत इस की रिसर्च नितांत आवश्यक है। वे कुछ बाद में भी बताने की बात कह रहे हैं…..उस की इंतजार रहेगी।
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भई वाह वाह है जी। सच्ची में छत्तीसगढ़ में एक से एक उर्जावान लोग हैं।वो कानपुर के आसपास एक मुहावरा चलता है ना छप्पनछुरी, उसे छत्तीसछुरे टाइप कुछ होना चाहिए था। छत्तीसगढ़ में एक खास बात और भी है कि ऊर्जावान प्रतिभावान तो और इलाकों से भी है, पर अधिकतर मामलों में ऊर्जा और प्रतिभा एक विकट किस्म की एरोगेंस लेकर आती है। छत्तीसगढ़ी इस व्याधि से मुक्त हैं। छत्तीसछुरे मुहावरे को पापुलर कीजिये। 2009 छत्तीसछुरा ब्लाग अवार्ड संजीतजी को देकर इसकी शुरुआत की जा सकती है।
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ज्ञान जी। आदिवासियों में और हमारी जनता के बीच अनुभव के ज्ञान का भंड़ार है। आवश्यकता उस ज्ञान को आधुनिक शोध प्रणालियों के आधार पर परखने की है। ये होने लगे तो मानवता की बहुत बड़ी सेवा होगी। मगर शोध के परिणाम तो आज कल सारे बहुराष्ट्रीय निगमों के पास पेटेण्ट हो जाते हैं। मुझे कभी समय हुआ तो इन सब चीजों के बारे में बताउंगा। हाँ साथ साथ हमारी आयुर्वेद की पुस्तकों में भी बहुत कुछ भरा पड़ा है उन के पुनःअध्ययन की भी आवश्यकता है।
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