पश्चिम रेलवे के रतलाम मण्डल के स्टेशनों पर रॉबर्ट फ्रॉस्ट की कविता का हिन्दी अनुवाद टंगा रहता था। यह पंक्तियां नेहरू जी को अत्यन्त प्रिय थीं:
गहन सघन मनमोहक वन, तरु मुझको याद दिलाते हैं
किन्तु किये जो वादे मैने याद मुझे आ जाते हैं
अभी कहाँ आराम बदा यह मूक निमंत्रण छलना है
अरे अभी तो मीलों मुझको , मीलों मुझको चलना है ।
अनुवाद शायद बच्चन जी का है। उक्त पंक्तियां मैने स्मृति से लिखी हैं – अत: वास्तविक अनुवाद से कुछ भिन्नता हो सकती है।
मूल पंक्तियां हैं:
But I have promises to keep
And miles to go before I sleep
And miles to go before I sleep.
कल की पोस्ट “एक सामान्य सा दिन” पर कुछ टिप्पणियां थीं; जिन्हे देख कर यह कविता याद आ गयी। मैं उत्तरोत्तर पा रहा हूं कि मेरी पोस्ट से टिप्पणियों का स्तर कहीं अधिक ऊंचा है। आपको नहीं लगता कि हम टिप्पणियों में कही अधिक अच्छे और बहुआयामीय तरीके से अपने को सम्प्रेषित करते हैं?!
कल बिजनेस स्टेण्डर्ड का विज्ञापन था कि वह अब हिन्दी में भी छप रहा है। देखता हूं कि वह इलाहाबाद में भी समय पर मिलेगा या नहीं। “कारोबार” को जमाना हुआ बन्द हुये। यह अखबार तो सनसनी पैदा करेगा!
फ़्रॉस्ट की उपर्युक्त पंक्तियों का जो अनुवाद आपने दिया है वह बच्चन जी ने किया है . संदर्भित वन की तरह बहुत मनमोहक अनुवाद है . बचपन से ही इसे अपनी डायरी में उतार रखा था . पर सुप्रसिद्ध समालोचक चंद्रबली सिंह मूल कविता की गति-यति-प्रकृति के हिसाब से इसे बहुत अच्छा-सच्चा अनुवाद नहीं मानते हैं . उन्होंने भी इस कविता — स्टॉपिंग बाइ वुड्स ऑन अ स्नोवी ईवनिंग — का हिंदी में अनुवाद किया है . अपनी मान्यता के अनुसार . ढूंढ कर पोस्ट करूंगा .
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श्श्श आलोक जी चुटकला जरा धीरे से सुनाइए, कोई सुन न ले , आप का महाराष्ट्रा में घुसना मुश्किल हो जाएगा, फ़िर पत्नी जी को क्या समझाएगें, वैसे ये सुकीर्ति वाला मंत्र हमें भी सिखाइए, कुछ तो ठीक से लिखेगें, लेख न सही तो टिप्पणी ही सही। ज्ञान जी पोस्ट में टिप्पणी देने की गुंजाइश होती है तभी टिप्पणी दे तें हैं। ये सच है कि आप के ब्लोग पर टिप्पणीयां पढ़ने का मजा आ जाता है, जहां अनूप जी और आलोक जी एक साथ मिल जाएं वहां तो ऐसा धमाल होना ही है…:)
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बात तो आपने पते की कही है. टिप्पणियों का स्तर सचमुच कई बार लेखों से बेहतर हो जाता है. पर आखिर इसका श्रेय किसे दिया जाये… चिट्ठाकार को या टिप्पणीकार को? सोच कर बता दीजियेगा 🙂
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रोज का लेखक दरअसल सेंसेक्स की तरह होता है। कभी धड़ाम हो सकता है, कभी बूम कर सकता है। वैसे, आलोक पुराणिक की टिप्पणियां भी ओरिजनल नहीं होतीं, वो सुकीर्तिजी से डिस्कस करके बनती है। सुकीर्तिजी कौन हैं, यह अनूपजी जानते हैं।लेख छात्रों के चुराये हुए होते हैं, सो कई बार घटिया हो जाते हैं। हालांकि इससे भी ज्यादा घटिया मैं लिख सकता हूं। कुछेक अंक पहले की कादम्बिनी पत्रिका में छपा एक चुटकुला सुनिये-संपादक ने आलोक पुराणिक से कहा डीयर तुम मराठी में क्यों नहीं लिखते। आलोक पुराणिक ने पूछा-अच्छा अरे आपको मेरे लिखे व्यंग्य इत्ते अच्छे लगते हैं कि आप उन्हे मराठी में भी पढ़ना चाहते हैं। नहीं-संपादक ने कहा-मैं तुम्हारा मराठी में लेखन इसलिए चाहता हूं कि सारी ऐसी तैसी सिर्फ और सिर्फ हिंदी की ही क्यों हो।
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आलोकजी की टिप्पणीयाँ इसलिए ज्यादा अच्छी होती है क्यों की वे विद्यार्थियों के लेखों की तरह चुराई हुई नहीं होती 🙂
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भाई हमारा तो मानना है की आपकी पोस्ट जोरदार होती है और उस टिप्पणियां लाजवाब।हमेशा ही कुछ नया और अच्छा मिलता है पढने के लिए।
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अपना मत यदि एक लंबे लेख के बजाय एक छोटी सी टिपण्णी में समाह्रत किया जाए तो स्तर सुधरेगा ही. वैसे भी जो मजा एक चुटीली सी टिपण्णी में है वो एक लेख में कहाँ? सौरभ
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सच है. टिप्पणी लिखने में हम ज्यादा सहज महसूस करते हैं. बहुत मज़ा आता है. अब तो हमने सोचा है कि जितनी भी टिप्पणियां लिखी हैं, उसे कॉपी करके रख लेंगे. फिर शायद वही टिप्पणियां कभी पोस्ट लिखने के काम आयें….
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दिनेश जी की बात से सहमत हूँ। क़ही पर टिप्पणियो को भी एक साथ रखना चाहिये।
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aapki posts se svayam ko relate kar paati huun asaani se ,isliye vishay munbhaatey hain…
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