पश्चिम रेलवे के रतलाम मण्डल के स्टेशनों पर रॉबर्ट फ्रॉस्ट की कविता का हिन्दी अनुवाद टंगा रहता था। यह पंक्तियां नेहरू जी को अत्यन्त प्रिय थीं:
गहन सघन मनमोहक वन, तरु मुझको याद दिलाते हैं
किन्तु किये जो वादे मैने याद मुझे आ जाते हैं
अभी कहाँ आराम बदा यह मूक निमंत्रण छलना है
अरे अभी तो मीलों मुझको , मीलों मुझको चलना है ।
अनुवाद शायद बच्चन जी का है। उक्त पंक्तियां मैने स्मृति से लिखी हैं – अत: वास्तविक अनुवाद से कुछ भिन्नता हो सकती है।
मूल पंक्तियां हैं:
But I have promises to keep
And miles to go before I sleep
And miles to go before I sleep.
कल की पोस्ट “एक सामान्य सा दिन” पर कुछ टिप्पणियां थीं; जिन्हे देख कर यह कविता याद आ गयी। मैं उत्तरोत्तर पा रहा हूं कि मेरी पोस्ट से टिप्पणियों का स्तर कहीं अधिक ऊंचा है। आपको नहीं लगता कि हम टिप्पणियों में कही अधिक अच्छे और बहुआयामीय तरीके से अपने को सम्प्रेषित करते हैं?!
कल बिजनेस स्टेण्डर्ड का विज्ञापन था कि वह अब हिन्दी में भी छप रहा है। देखता हूं कि वह इलाहाबाद में भी समय पर मिलेगा या नहीं। “कारोबार” को जमाना हुआ बन्द हुये। यह अखबार तो सनसनी पैदा करेगा!
1969 में जब मैं रेलवे में भर्ती हुआ तो ये पंक्तियां इलेक्ट्रिकल फोरमैन आफिस में देखी थीं।
अभी कहाँ आराम बदा ये मौन निमन्त्रण छलना है,
अरे अभी तो मीलों मुझको, मीलों मुझको चलना है।
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एल्लो कल्लो बात, हमारी टिप्पणियों से तो हमारा नेट कनेक्शन भी परेशान हो गया था इसीलिए कल की पोस्ट पर हम आज टिपिया रहे हैं। वैसे सई कहा आपने!!
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