सवेरे साढ़े नौ बजे दफ्तर के लिये निकलता हूं तो फाफामऊ जाने वाली रेल लाइन के पास अण्डरब्रिज के समीप सौ-डेढ़ सौ दिहाड़ी मजदूर इंतजार करते दीखते हैं। यह दृष्य बहुत से शहरों में लेबर चौराहों या मुख्य सड़क के आसपास दीखता है। राज-मिस्त्री, बिजली का काम जानने वाले, घर की पुताई करने वाले या किसी भी प्रकार की साधारण मजदूरी के लिये उपलब्ध लोगों का जमावड़ा होता है। अन-ऑर्गनाइज्ड सेक्टर के कामगार। इन्ही के बूते पर बहुत सा निर्माण कार्य हो रहा है।
जहां ये लोग इकठ्ठा होते हैं, वहां रेल की संकरी पुलिया है। सड़क भी ऊबड़ खाबड़ है। लिहाजा वाहन धीरे धीरे निकलता है वहां से। सड़क के दोनो ओर बैठे हुये लोगों का अच्छा अवलोकन हो जाता है। कुछ तो पूरी बांह का स्वेटर पहने, मफलर लगाये और सिर पर टोपी रखे होते हैं। कुछ के पास तो गरम कपड़े दीखते ही नहीं। यूंही कंपकंपाते गुड़मुड़ बैठे नजर आते हैं। कुछ के पास साइकलें होती हैं। कुछ बिना साइकल होते हैं। इक्का-दुक्का के पास दोपहर के भोजन के डिब्बे भी नजर आते हैं।
««« यह देखें चलती कार में से चित्र लिया है दिहाड़ी मजदूरों के जमावड़े का। निश्चय ही पूरा परिदृष्य चित्र में नहीं आ पाया है।
बहुतों के पास कुछ औजार नजर आते हैं – फर्श–दीवार बनाने, जमीन लेवल करने के औजार। वे औजार वाले निश्चय ही कुशलता रखते होंगे। शायद उनकी मजदूरी भी ज्यादा होती हो|
उनमें शेव किये, नहाये-धोये, कंघी किये नजर नहीं आते। बिल्कुल जरूरी नित्यकर्म से निवृत्त और चाय की दुकान पर एक बन्द और चाय का सेवन कर बैठे प्रतीत होते हैं वे सब।
ऐसा नहीं कि घण्टा-आध घण्टा में उन सब को काम मिल जाता हो और वह भीड़ छंट जाती हो। एक दो बार मैं एक घण्टा देर से गुजरा हूं उस जगह से तो भीड़ कुछ ही कम नजर आयी थी। मुझे नहीं लगता कि इन गरीब लोगों के पास बहुत बार्गेनिंग पावर होगी। मेरे आस पड़ोस में जिस प्रकार के चिर्कुट लोग हैं मोल-तोल करने वाले – जो खुद तो अपने दफ्तर में कलम कम और फ्लाई स्वेटर (मक्खी मारने का चपटा डण्डा) ही ज्यादा चलाते हैं दशकों से – इन बिचारों को ढंग से मजदूरी नहीं देते होंगे। ऐसे में ये दंतनिपोर की तरह यदाकदा हेराफेरी कर जायें तो कितना कोसा जाये इनको।
शायद मुझे इन लोगों की तरह दिहाड़ी ढूंढनी हो कुछ दिनों के लिये, तो मैं टूट जाऊं। आत्महत्या का विचार प्रबल हो जाये मन में।
आदमी आखिर निरपेक्ष नहीं, तुलनात्मक अवस्था में जीता है। किसी बड़े उद्योगपति को मेरी अवस्था में डाल दें तो शायद वह आत्महत्या कर ले! लिहाजा उस कोण से सोचना तो इन लोगों को ग्लैमराइज और अपने को निरर्थक बताना होगा। पर यह जरूर है कि ये लोग देश के निर्माण में कण्ट्रीब्यूट करने में हमसे कमतर नहीं – शायद ज्यादा ही होंगे।
प्रियंकर जी– जो यदाकदा समकाल (और चौपटस्वामी ?) पर एक आध पोस्ट टपका कर हाइबरनेशन में चले जाते हैं; इन दिहाड़ी मजदूरों के प्रबल हिमायती हैं। जहां तक मानवीय सोच की बात है, मैं उनसे अलग नहीं हूं। राष्ट्र के डेवलपमेण्ट के मॉडल उनके और मेरे अलग-अलग हो सकते हैं। पर अगर भिन्नता न होती तो मैं प्रियंकर होता और उनकी सशक्त कलम से जादू बिखेरता!
यह तो विषयांतर हो गया। बात इन दिहाड़ी मजदूरों की है। मैने पढ़ा है कि चर्चिल भी ब्रिकलेयर्स एसोशियेशन के सदस्य थे। वह बनने के लिये ब्रिकलेयर में जो आपेक्षित दक्षता चाहिये, उनमें थी। अगर यह चर्चिल में था, तो बन्दा चाहे जितना खुर्राट लगता हो, उसमें श्रम की इज्जत और समझ तो रही होगी।
मैं इस अवस्था में दिहाड़ी पर मजदूरी शायद न करूं या न कर सकूं; पर ब्रिकलेयर एसोशियेशन का सदस्य अवश्य बनना चाहूंगा। और अगर ऐसी कोई एसोशियेशन भारत में न हो तो कम से कम राज-मिस्त्री का काम जानना चाहूंगा। उससे श्रम की महत्ता पर मेरी सोच में गुणात्मक परिवर्तन आयेगा।
आपका क्या विचार है?
कल यहां इलाहाबाद में बिजनेस स्टेण्डर्ड पहली बार आया। लखनऊ से पहली बार छपा था। मैं अखबार की दुकान पर 5 किलोमीटर डिटूर कर वह लेने गया। दफ्तर में साथी अधिकारियों को दिखाया। कोई बहुत उत्सुकता नहीं दिखाई मित्रों ने। वे सब उत्तर मध्य रेलवे के प्रमुख अधिकारियों में से थे। पर किसी को हिन्दी में बिजनेस अखबार से सनसनी नहीं थी। वे सब स्थानीय खबरों के लिये हिन्दी के अखबारों को पढ़ कर आये होते हैं। उसपर अन्तहीन चर्चा भी करते हैं। पर एक बिजनेस अखबार के रूप में अंग्रेजी के अलावा सोचना उन्हें उपयुक्त नहीं लगा।
हां अखबार लेते समय अखबार वाला एक आदमी से कह रहा था – लीजिये, अब आप भी शेयर में पैसा लगा सकते हैं हिन्दी में पढ़ कर। शायद यह होगा – बिजनेस सेन्स का जन भाषा में जन के बीच विस्तार होगा!
वाकई प्रियंकर जी बहुत संवेदनशील हैं। कभी कोटा आना हुआ तो उन से आग्रह है कि सूचना दें। उन से मिलना चाहूँगा।
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दिहाड़ी मजदूरों का सभी जगह यही हाल होता है । पर गोवा मे जो दिहाड़ी मजदूर आते है(हमारे घर मे बहुत महीने काम चला था) वो जब काम शुरू करने के लिए कपड़े बदलते है(पुराने कपड़े रखते है काम करने के लिए) तब ही पता लगता है कि वो मजदूर है। वरना यहां पर तो ये लोग काफ़ी साफ-सुथरे और सलीके से कपड़े पहने और बाकायदा खाना लेकर आते है।
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दिहाड़ी मज़दूरों की दशा खाड़ी देशों में और भी बुरी है क्योंकि वे अपने परिवार से दूर हैं.जुमे की छुट्टी वाले दिन हज़ारों की तादाद में फुटपाथ पर बैठे दिखाई दे जाते हैं जो 15-20 रियाल कमा कर पैसा इक्कठे कर के घर भेजते हैं और खुद एक बार पका कर दो दिन उस पर गुज़ारा करते हैं.
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काहे कीड़ी(चींटी) पर पंसेरी मार रहे हैं . आलसी तो हूं ही सो इन्कार क्या करना . पर टिका रहूंगा अपने आलस के साथ ही .हिंदीभाषी हूं . दो दशकों से हिंदी क्षेत्र के बाहर हूं . देखता ही रहता हूं इन रोज कुआं खोदकर पानी पीने वालों को . उनकी दशा-दुर्दशा . क्या कर सकता हूं ? सिवाय एक प्रवक्ता के रूप में उनके साथ खड़े होने के . अब तो जिनसे था उनसे भी भरोसा नहीं रहा .उनकी छोड़िए . जहां हूं वहीं देखता हूं पूर्वी उत्तरप्रदेश और बिहार से आए तकनीशियनों और निचले आय-वर्ग के कर्मचारियों को . हमेशा अफ़सरों को सलाम मारते रहते हैं . उनको सेलरी कैश मिलती रहती है . पर जब रिटायर होते हैं तो पेंशन के लिए स्टेट बैंक में अकाउंट खोलना ही एवरेस्ट पर चढना हो जाता है . कोई उनको इंट्रोड्यूस करने तक को तैयार नहीं होता . तमाम तरह के काल्पनिक कारण : कोई चक्कर न हो जाए,पता नहीं गांव में इसकी एक बीबी है कि दो, और भी न जाने क्या-क्या . यह वे भी करते हैं जिनके साथ उसने चालीस साल तक काम किया,रोज़ सलाम-बंदगी की,उनके छोटे-मोटे काम किए. ऐसे हैं हम . जो मदद करे तो उसे यह कह कर डराओ-हतोत्साहित करो कि किसी दिन लफड़े में फ़ंसोगे तब बूझोगे . तब भी न माने तो किंचित वक्र मुस्कान के साथ यह कह दो कि अपने लोगों की ओर झुकाव ज्यादा है .सो मेरे झुकाव की जड़ें यहां हैं . मैं बिहार का नहीं हूं पर जब कोई मेट्रो के दरवाजे से सटकर खड़े और उसके सरक कर खुलने पर अचकचाए किसी ग्रामीण को ‘बिहारी है क्या ?’ कहता है तो चुभन होती है और लड़ने का मन होता है . मिर्ज़ापुर से मेरा किसी किस्म का कोई ताल्लुक नहीं है . पर मुंबई में प्रशिक्षण के दौरान जब एक स्थानीय मित्र-प्रशिक्षणार्थी ने राह चलते रास्ते में आ जाने पर एक व्यक्ति को जिस कंटेम्प्ट के साथ कहा था ‘मिर्ज़ापुर से आया है क्या ?’. वह अभी तक मुझे बेचैन करता है . गरीब कैसे जीता-मरता है इसे ज्यादा सोचता हूं तो किसी से बात करने और किसी का विकास-दर्शन सुनने का मन नहीं करता . ऐसे में उदारीकरण-फुदारीकरण और तरक्की का दर्शन ठेलने वाला अर्थशास्त्री बहुत मक्कार या विदूषक-सा लगता है . जीवन की लिखावट के अक्षर ऊपर-नीचे नाचते-चिढाते से दिखते हैं .पर और आपसदारी की निजी चीज़ें हैं जो वापस जीवन और उसके रूमान की ओर लौटा लाती हैं .बहुत सी बेचैनियां हैं क्या-क्या लिखूं . आप सबको भी बेचैन करूंगा . दैनिक किस्तों पर जिंदगी जीने वालों के हाल पर डॉ. पीरज़ादा कासिम का एक शेर सुनिए :रोज़ जीने को रोज़ मरने को,ज़िंदगी न समझा जाय,बेदिली से हंसने को खुशदिली न समझा जाए ।पर समझें या न समझें क्या फ़र्क पड़ता है. ज़िंदगी तो ज़िंदगी है — पथरीली ज़मीन पर दूब की तरह उगी .
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दिहाड़ी मजदूरों के बीच चार दिन तक बैठकर बात करने का मौका मिला था एक स्टोरी करने के दौरान अपने शहर में!!हमारे शहर की कोतवाली से कांग्रेस भवन के बीच सुबह साढ़े सात बजे से दस बजे तक यह दिहाड़ी मजदूरों का जमावड़ा दिखता है और इसे हम “चावड़ी’ के नाम से जानते आए हैं।आलोक कुमार जी की बात से सहमत हूं, इतना शारीरिक श्रम और दुनिया भर की चिंताएं इसके चलते यह नशे के आदी हो जाते हैं।जैसा कि अनूप जी ने कहा उनके आसपास छत्तीसगढ़ के मजदूर काम करते हैं। दर-असल छत्तीसगढ़ से मजदूरों को प्रलोभन देकर ले जाया जाता है और वहां इन्हें बंधक के रूप में रखकर काम करवाया जाता है। अभी कुछेक महीने पहले रायपुर पुलिस नें सड़क पर कंटेनर में बंद करीब तीन सौ लोगों को छुड़ाया था , इन्हें कंटेनर में भरकर सड़क मार्ग से ले जाया जा रहा था, सोचिए कंटेनर में भरकर जिसके अंदर सांस लेना भी दूभर हो जाए, पानी-पेशाब का क्या हो। इन्हें छुड़ाया गया दो दिन बाद ठेकेदार इन्हें फिर किसी अन्य तरीके से ले ही गया।उत्तरप्रदेश के ईंट भट्ठों में सबसे ज्यादा मजदूर परिवार छत्तीसगढ़ से ही हैं। और छत्तीसगढ़ सरकार(ओं) को इन सबकी कोई खास चिंता हो ऐसा नज़र नही आता
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इतनी भीड देखकर तो किसी भी नेता के मुँह मे पानी आ जाये। हमारे यहाँ कुछ नेताओ ने दिहाडी मजदूरो का संगठन बनाने की कोशिश की थी पर उद्देश्य सही न होने के कारण वे चन्दा वसूलते धरे गये। वैसे इनमे से आधे को भी हम वापस गाँव पहुँचा पाये और वही रोजगार की व्यव्स्था कर पाये तो बहुत बडा योगदान होगा देश के लिये।
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