कपड़े का घोड़ा। लाल चूनर की कलगी। काला रंग। भूसा, लुगदी या कपड़े का भरा हुआ। मेला से ले कर आया होगा कोई बच्चा। काफी समय तक उसका मनोरंजन किया होगा घोड़े ने। अन्तत: बदरंग होता हुआ जगह जगह से फटा होगा। बच्चे का उसके प्रति आकर्षण समाप्त हो गया होगा। घर में कोने पर काफी समय पड़ा रहा होगा। लोग कोई भी वस्तु यूं ही त्याग नहीं करते। वस्तुयें आदत की तरह होती हैं। मुश्किल से छूटती हैं। पर अन्तत: वह घर के बाहर फेंका गया होगा।
मुझे शाम को शिवकुटी मन्दिर के पास चहल कदमी करते दीखा। फोन पर श्री अनूप शुक्ल से बात हो रही थी – वे कह रहे थे कि हमने लिखना क्यों बन्द कर दिया है। हम दफ्तर में बढ़े काम का हवाला दे रहे थे। उनका कहना था कि ब्लॉग पर जब हमने श्री समीर लाल जी से मुलाकात की चर्चा की तो जरूर रेलवे वालों को लगा होगा कि यह व्यक्ति वजनी चीजों को टेकल कर सकता है। लिहाजा सवारी से माल यातायात का काम थमा दिया गया! हम सफाई दे रहे थे कि इसमें श्री समीर लाल जी का कोई योगदान नहीं है। हमारा भाग्य ही ऐसा है। खैर; बात लम्बी चली। घर पर होता तो एक आध फोन कॉल से व्यवधान आ गया होता। पर सड़क पर घूमते हुये बात चलती रही।
बात गंगा किनारे तक घूम आने पर चली। वापसी में तिराहे की सोडियम वेपर लेम्प की रोशनी में फिर दिखा वह घोड़ा। तिराहे पर बीच में आगामी होलिका दहन के लिये लोगों ने लकड़ियां इकठ्ठी कर रखी थीं। उन्हीं के बीच में रखा था वह घोड़ा। अभी उसके दहन में दस दिन का समय और है। होली के लिये इकठ्ठा की गयी लकड़ियों/सामग्री को कोई उठाता नहीं है। अत: सम्भावना नहीं है कि घोड़ा वहां से कहीं जाये।
भला हो घोड़े का – उसके फोटो ने एक छोटी सी पोस्ट की सोच मुझे दे दी। काले-बदरंग-फटे घोड़े ने मेरी कल्पना को मालगाड़ियों की फिक्र से कुछ बाहर निकाला। अनूप शुक्ल जी के कहने का असर यह हुआ कि यह लिख कर पब्लिश बटन दबा रहा हूं। आप तो कम रोशनी में लिया उसका फोटो देखें। यह अनूप शुक्ल जी से बातचीत के पौने दो घण्टे बाद पोस्ट कर रहा हूं।
ज्ञान भाई साहब , आपकी पोस्ट देखकर खुशी हुई ..वहाँ के त्यौहार तथा समाज की बारीकियां आप के लिखे से हम इत्ती दूर भी जान पाते हैं उसका धन्यवाद — लिखियेगा —
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भाई आप तो लगातार लिखें….नहीं तो फुरसत से लिखनेवाले लोगों को ताना मारने का मौका मिल ही जाएगा….
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चलिए इस बहाने आपकी पोस्ट तो आई. वर्ना सुबह तो अब हम कंप्यूटर खोलते ही नहीं क्योंकि आप कुछ लिखते ही नहीं….
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ब्लॉगिंग से दूरी आप कैसे बरदाश्त कर पाते हैं। हम से तो आप के ब्लॉग की दूरी ही बरदाश्त नहीं होती। मुझे भी बीच में भोपाल भी जाना पड़ा वहाँ भी आप का ब्लॉग ढूंढता रहा। यह सही है कि आप दो शब्द भले ही वे “आज छुट्टी” ही क्यों न हों लिखते रहें। आप के ब्लॉग की गैरहाजरी बहुत खलती है। कल भी आप का ब्लॉग नजर आया तो ब्लॉगर ने उसे खोलने से मना कर दिया। आज सुबह खोला तो पढ़ना शुरु करते ही बिजली गुल हो गई। आई तो मुवक्किलों से उलझा रहा। अब जा कर पढ़ पाया हूँ। व्यस्तता ही तो जीवन है। वह रहना चाहिए। लेकिन दो शब्द वाली पोस्ट से काम चल जाएगा। आप कविता लिखने की बात कर रहे थे। वह जापनी हाइकू, मीनाक्षी जी वाला त्रिपदम् अच्छी फॉरमेट है, सीखने में भी आसान है। आप शाम को घूमते घूमते भी अभ्यास कर सकते हैं और आकर सीधे पोस्ट तैयार कर सकते हैं। एक हाइकू से काम चल जाएगा। कर के जरुर देखें।
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