कोटा-परमिट राज का जमाना था। तब हर चीज का उत्पादन सरकार तय करती थी। सरकार इफरात में नहीं सोचती। लिहाजा किल्लत बनी रहती थी। हर चीज की कमी और कालाबाजारी। उद्यमिता का अर्थ भी था कि किसी तरह मोनोपोली बनाये रखा जाय और मार्केट को मेनीप्युलेट किया जाय। खूब पैसा पीटा ऐसे मेनीप्युलेटर्स ने। पर अब भी क्या वैसी दशा है?
कुछ दिन पहले श्री दिनेशराय जी ने एक पोस्ट लिखी थी – दास को उतना ही दो जिससे वह जीवित रहे, मरे नहीं। यह पोस्ट उनके ब्लॉग तीसरा खम्बा पर थी और ध्येय कनून लागू करने के विषय में उस मनोवृत्ति की बात करना था जो सिस्टम की कैपेसिटी नापतोल कर ही बढ़ाती है। बहुत अधिक केपेसिटी नहीं बढ़ाने देती – क्यों कि उससे कई लोगों की अवैध दुकान पर असर पड़ेगा।
आप समझ सकते हैं कि जो सुधार अर्थ के क्षेत्र में सन नब्बे के दशक में प्रारम्भ हुये और जारी हैं; जिनके चलते आज अर्थव्यवस्था हिन्दू रेट ऑफ ग्रोथ से तिगुनी गति से बढ़ रही है; उनका अंशमात्र भी कानून लागू करने के क्षेत्र में नजर नहीं आता। और कानून की अकेले की क्या बात की जाये? शिक्षा, बीमारू प्रान्तों में बेसिक इन्फ्रास्ट्रक्चर, स्वास्थ्य सुविधायें, ग्रामीण और दूर दराज का विकास जैसे कई क्षेत्र बचे हैं जहां अभी सुधारों की रोशनी नहीं आयी है। कुछ पॉकेट्स में काम हो रहे हैं पर बहुत कुछ बाकी है और वह हरक्यूलियन टास्क है।
पर मात्र सिनिसिज्म के मन्त्र का जाप करते रहना भी सही बात नहीं है। डेढ़ दशक में बहुत परिवर्तन दिखे हैं। इतने व्यापक और आशावादी परिवर्तन हैं कि मुझे बार बार लगता है कि मुझमें पच्चीस-तीस वर्ष की उम्र वाली ऊर्जा और वर्तमान समय हो तो क्या कर डाला जाये। आज के नौजवानों से बहुत ईर्ष्या होती है – बहुत डाह!
मुझे विश्वास है कि जिन क्षेत्रों में किल्लत का अर्थशास्त्र या मानसिकता चल रही है, वहां भी बड़ी तेजी से परिवर्तन होंगे। सिस्टम में बहुत सारी हिडन केपेसिटी भी सामने आयेगी। उदाहरण के लिये रेलवे का टर्न-एराउण्ड वैगन और ट्रैक की अतिरिक्त वहन क्षमता को पहचानने से हुआ है। विघ्न-आशंका वाले बहुत सारे लोग इसमें भी भविष्य में होने जा रही समस्याओं से अभी ही अपना दिल हलकान किये जा रहे हैं और अपना निराशावाद बांटने को तत्पर हैं; पर उत्तरोत्तर उनको सुनने वाले कम होते जा रहे हैं। ऐसा ही अन्य कई क्षेत्रों में होगा।
मित्रों, किल्लत का अर्थशास्त्र या किल्लतवादी मनोवृत्ति को टा-टा करने और टाटा जैसों की भविष्यवादी सोच से नाता जोड़ने के दिन हैं। फटाफट, अपने सिनिसिज्म को; जो भी दाम मिले, बेच कर छुट्टी पायें। उसके शेयर का दाम बहुत नीचे जाने वाला है। समय रहते उससे अपना पोर्टफोलियो मुक्त कर लें।
क्या ख्याल है? 😉
ऊपर की पोस्ट का कलेवर बहुत दिन पहले बना था। फिर सब ठण्डे बस्ते में बंद हो गया। रविवार को नार्दन रीजनल पावर ग्रिड की गड़बड़ी ने बड़ा जोर का झटका दिया। सभी ट्रेने जस की तह रह गयीं। सात घण्टे यातायात अवरोध के चलते मन का विक्षेप हटाने को मैने यह पोस्ट पूरी की।
बड़ा कठिन है अपने को ब्लॉगिंग से दूर रखना। और इस पर बार-बार आने का उपयोग; मन अपने को आवश्यक काम से दूर रखने के लिये करता है। पोस्टें मैं तीव्र गति से पढ़ ले रहा हूं। पर टिप्पणियां करने के लिये जो इंवाल्वमेण्ट आवश्यक है, उस स्तर पर समय मिलने में लगता है, महीना भर लगेगा। तब तक एक या दो पोस्ट लिख पाना ही हो सकेगा।
धीरे-धीरे व्यस्तता जब अपना स्तर खोज लेगी तो इस प्रकार के काम के लिये समय और मन फ्री होने लगेगा। मेरे लिये इस प्रक्रिया से गुजरना भी एक महत्वपूर्ण अनुभव है। इस अनुभव को अंतत: एक ब्लॉग पोस्ट के रूप में जगह मिलेगी – अगर ब्लॉगिंग चलती रही।
और चलती रहेगी – यह आशा जरूर है!
आप बिलकुल बजा फरमाते हैं। हम सब की दुखती रग पर उंगली रख कर आपने सराहनीय कार्य किया है।
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आपको आज के युवाओं से ईर्ष्या हो रही है, इससे भारत के भविष्य के प्रति उम्मीदें बढ़ती हैं.
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सिनिज्म के शेयर औने पौने दामों में बेच आये हैं बहुत नुकसान उठाना पड़ा, मार्केट वैसे ही डाउन है॥…;)हम संजीत की बात से सहमत नहीं, हमें तो लगता है कि अपने वाले ज्ञान जी लौट आये हैं थोड़े शिथिल से पर एक महिने में उसी पुरानी उर्जा के साथ फ़िर ऐसा लिखेगें कि टिप्पणीयों की बहार में हंसी के फ़व्वारे छूटेंग़े।
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रेलवे अपनी आमदनी और भी तरीकों से बढ़ा सकती है। ये टीटीई लोग गाड़ी चलने के कुछ देर बाद टिकट ऊकट देख कर फारिग हो जाते हैं। इनके हाथ में ऊन सलाई देदी जाये. और कहा जाये कि हर यात्रा में एक स्वेटर तैयार मंगता। पंद्रह हजार गाडियां रोज चलती हैं, करीब। तीन टीटीई फी गाड़ी लगाओ, पैंतालीस हजार स्वेटर तो एक बार के आपरेशन से आ लेंगे।टीटीई एसोसियेशन को कहिए कि हमसे कुछ मामला सैट कर ले, वरना ये सजेशन सीरियसली लालूजी को दे दूंगा,छह साल बाद फिर वह रेलवे मंत्री बनेंगे। तब इंप्लीमेंट हो जायेगा, यह सजेशन।
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