मणियवा का बाप उसे मन्नो की दुकान पर लगा कर पेशगी 200 रुपया पा गया। सात-आठ साल के मणियवा (सही सही कहें तो मणि) का काम है चाय की दुकान पर चाय देना, बर्तन साफ करना, और जो भी फुटकर काम कहा जाये, करना। उसके बाप का तो मणियवा को बन्धक रखवाने पर होली की पन्नी (कच्ची शराब) का इंतजाम हो गया। शांती कह रही थी कि वह तो टुन्न हो कर सड़क पर लोट लोट कर बिरहा गा रहा था। और मणियवा मन्नो की दुकान पर छोटी से गलती के कारण मार खाया तो फुर्र हो गया। उसकी अम्मा उसे ढ़ूंढ़ती भटक रही थी। छोटा बच्चा। होली का दिन। मिठाई-गुझिया की कौन कहे, खाना भी नहीँ खाया होगा। भाग कर जायेगा कहां?
शाम के समय नजर आया। गंगा किनारे घूम रहा था। लोग नारियल चढ़ाते-फैंकते हैं गंगा में। वही निकाल निकाल कर उसका गूदा खा रहा था। पेट शायद भर गया हो। पर घर पंहुचा तो बाप ने, नशे की हालत में होते हुये भी, फिर बेहिसाब मारा। बाप की मार शायद मन्नो की मार से ज्यादा स्वीकार्य लगी हो। रात में मणियवा घर की मड़ई में ही सोया।
कब तक मणियवा घर पर सोयेगा? सब तरफ उपेक्षा, गरीबी, भूख देख कर कभी न कभी वह सड़क पर गुम होने चला आयेगा। और सड़क बहुत निर्मम है। कहने को तो अनेकों स्ट्रीट अर्चिंस को आसरा देती है। पर उनसे सब कुछ चूस लेती है। जो उनमें बचता है या जैसा उनका रूपांतरण होता है – वह भयावह है। सुकुमार बच्चे वहां सबसे बुरे प्रकार के नशेड़ी, यौन शोषित, अपराधी और हत्यारे तक में मॉर्फ होते पाये गये हैं।
जी हां। हम सब जानते हैं कि मणियवा खूब मराया गया (मार खाया) है। एक दो साल और मरायेगा। फिर मणियवा गायब हो जायेगा?! कौन कब तक मार खा सकता है? हां, जिन्दगी से मार तो हमेशा मिलेगी!
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अब देखिये, चाहता था हैरीपॉटरीय तिलस्म। अनूप शुक्ल ने बताया हामिद का चिमटा। और छूटते ही लिख बैठा मणियवा की अभाव-शोषण ग्रस्त दास्तान। पता नहीं, गंगा किनारे मणियवा को यूं ही टहलते हैरीपॉटरीय तिलस्म दिखता होगा उसको अपने अभाव के रिक्ल्यूज़ के रूप में। हर घोंघे-सीपी में नया संसार नजर आता होगा।
बचपन में हमने भी उस संसार की कल्पना की है, पर अब वैसा नहीं हो पाता!
इस पोस्ट के लिये चाय की केतली और ग्लास रखने के उपकरण का चित्र चाहिये था। मेरे दफ्तर की केण्टीन वाला ले कर आया। केतली खूब मांज कर लाया था। उसे मेरा चपरासी यह आश्वासन दे कर लाया था कि कोई परेशानी की बात नहीं है – तुम्हारी फोटो छपेगी; उसके लिये बुलाया है।
आप केण्टीन वाले का भी फोटो देखें। वह तो शानदार बालों वाला नौजवान है। पर उसके पास तीन चार छोटे बच्चे हैं काम करने वाले – मणि की तरह के।
और हां मणियवा भी काल्पनिक चरित्र नहीं है – पर जान बूझ कर मैं उसका चित्र नहीं दे रहा हूं।
आलोक जी सही कह रहे हैं
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बहुत सपाट सच लिखा है – सही में मुश्किल है – शर्म और गुस्सा भी कि कोई कायम हल ही नहीं आता – सादर – मनीष
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आलोक पुराणिक की बात सही है. इस देश की अधिकतर आबादी तीसरी दुनिया में ही रहती है.
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पोस्ट ने फिर बताया कि आप सिर्फ़ एक अफसर ही नही है दिल भी है आपके पास! 😉 आलोक पुराणिक जी की बात खरी है और साथ ही दिनेशराय जी की भी!!
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ना जाने कितने मणि है पर असल मे इन मणियों की कोई कद्र ही नही करता है।
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ऐसे कुछ बच्चो पर ही सही हम सब की नजरे इनायत हो जाये तो कुछ का भला तो हो सकता है। आपने बडा ही मार्मिक चित्रण किया है। मणि वास्तविक पात्र है, नही तो हैरी पाटर की तर्ज पर इस कहानी को आगे बढाने की सोच रहा था—-
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द्विवेदी जी ने ठीक ही कहा है कि आपका जमीनी होना आपके लेखन की सबसे बड़ी विशेषता है ! मनियावा जैसों का दर्द हमारे समाज के लिए एक जटिल प्रश्न है , समाज से विलुप्त होती जा रही संवेदनाओं का चित्रण है , आपका इसप्रकार का लेखन मुझे बहुत प्रभावित करता है , आपका आभार !
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सच तो यही है जो आप कह रहे हैं….
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पहलेपहल मणियवा के बाप पर गुस्सा आता है . पर यह फ़िजूल का गुस्सा है जो दरसअसल कुछ न कर सकने की हमारी असहायता से उपजता है . मणियवा के पिता ‘कफ़न’ के घीसू-माधव का ही नया संस्करण हैं . इस पूंजीवादी-मुनाफ़ावादी व्यवस्था ने उनका अमानवीकरण कर दिया है . उनके सामने कोई भविष्य,कोई सपना नहीं है — मणियवा के लिए भी नहीं . पर मणियवा के सपनों में पूरा एक तिलिस्म है जो सच होना चाहता है . आपने ठीक ही लिखा है कि मणियवा को ‘हर घोंघे-सीपी में नया संसार नजर आता होगा।’ पर क्या हमने ऐसी समाज या राजव्यवस्था के लिए कुछ किया है जहां मणियवा जैसे बच्चों के सपने भी फलीभूत हो सकें . वामपंथी व्यवस्था के अपने अन्तर्विरोध रहे हैं,हिंसा का इतिहास रहा है;पर उसमें कम से कम मणियवा जैसों के लिए तो एक गुंजाइश थी .
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इस बार घर गया तो अपने घर में पहली बार किसी नौकर को देखा.. (सरकारी नौकर छोड़कर).. 14-15 साल का लड़का था.. उसके शोषण की बात तो छोड़ ही दीजीये, वो तो मुझसे भी ज्यादा मजे में है.. घर में ज्यादा काम नहीं होने के कारण दिनभर TV देखता है.. सुबह मेरे पापाजी आफिस जाने से पहले उसे कुछ पढने को दे जाते हैं और शाम में जब वो पापाजी का पैर दबाने जाता है तो फिर वहीं पापाजी उससे उसके होमवर्क के बारे में पूछते हैं..अगर उसे कुछ अच्छा लगता है तो थैंकयू बोलना नहीं भूलता है.. और अगर उसे आपकी कही बात समझ में नहीं आती है तो कभी-कभी पार्डन भी बोल देता है.. उसके पार्डन पर हम सभी हंस देते हैं और वो झेंप जाता है..वो पहले मेरी भाभी के बड़े भाई के यहां था जो हैदराबाद में हैं और कुछ दिनों के लिये हमारे घर में है.. वो मेरे भैया को जीजाजी बोलता है, और मैं चूंकि उनका भाई हूं सो मुझे भी प्रशान्त जीजाजी ही पुकारता है और मेरी भाभी जल भुन जाती है क्योंकि मुझे उनको उनकी बहन को लेकर चिढाने का एक और मौका मिल जाता है.. ;)मैं भी क्या एक कमेंट के बदले पूरा पोस्ट लिखने बैठ गया.. सोचता हूं इसे भी अपने ब्लौग पर चढा ही दूं.. पर पहले अभी वाला सिरीज पूरा करूंगा.. 🙂
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