मैने दलाई लामा को उतना पढ़ा है, जितना एक अनिक्षुक पढ़ सकता है। इस लिये कल मेरी पोस्ट पर जवान व्यक्ति अभिषेक ओझा जी मेरे बुद्धिज्म और तिब्बत के सांस्कृतिक आइसोलेशन के प्रति उदासीनता को लेकर आश्चर्य व्यक्त करते हैं तो मुझे कुछ भी अजीब नहीं लगता।
मैं अपने लड़के के इलाज के लिये धर्मशाला जाने की सोच रहा था एक बार। पर नहीं गया। शायद उसमें बौद्ध दर्शन के प्रति अज्ञानता/अरुचि रही हो। फिर भी दलाई लामा और उनके कल्ट (?) के प्रति एक कौतूहल अवश्य है।
शायद अभी भी मन में है, कि जैसे बर्लिन की दीवार अचानक भहरा गयी, उसी तरह चीन की दादागिरी भी एक दिन धसक जायेगी। भौतिक प्रगति अंतत: सस्टेन नहीं कर पाती समय के प्रहार को।
तितली के पंख की फड़फड़ाहट सुनामी ला सकती है।
मैं दलाई लामा को ही उद्धृत करूं – अंत समय तक “कुछ भी सम्भव” है।
प्रचण्ड आशावाद; यही तो हमारे जीवन को ऊर्जा देता है – देना चहिये।
Shree Pandeyjee,Main Blog ka bahut purana adhyeta nahin hun. Maine aapka aapke bete ki tabiyat ke bare mein likha blog nahin padha tha. Bete ke train-durghatana ke bare mein padhkar bahut kharab laga. Bhagvan, aapko himmat pradan karen, is apratyashit vipda se jujhne ke liye.
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