अनेक कारें खड़ी होती हैं हमारे दफ्तर के प्रांगण में। अधिकांश कॉण्ट्रेक्ट पर ली गयी होती हैं। जो व्यक्ति अपना वाहन काण्ट्रेक्ट पर देता है, वह एक ड्राइवर रखता है। यह स्किल्ड वर्कर होता है। इलाहाबाद की सड़कों पर कार चलाना सरल काम नहीं है। उसकी १२ घण्टे की नौकरी होती है। सप्ताह में एक दिन छुट्टी पाता है। इसके बदले में वह पाता है ३००० रुपये महीना। शादियों के मौसम में अतिरिक्त काम कर वह कुछ कमा लेता होगा। पर कुल मिला कर जिंदगी कठोर है।
इन्ही से प्रभावित हो कर मैने पहले पोस्ट लिखी थी – बम्बई जाओ भाई, गुजरात जाओ। वहां खर्चा खुराकी काट वह ५००० रुपये बना सकता है। पर कुछ जाते हैं; कुछ यहीं रहते हैं।
अपने ड्राइवर को यदा-कदा मैं टिप देने का रिचुअल निभा लेता हूं; पर वह केवल मन को संतोष देना है। मेरे पास समस्या का समाधान नहीं है। एक स्किल्ड आदमी डेली वेजेज जितना पा रहा है – या उससे थोड़ा ही अधिक। मैं केवल यह दबाव बनाये रखता हूं कि उसका एम्प्लॉयर उसे समय पर पेमेण्ट करे। इस दबाव के लिये भी ड्राइवर आभार मानता है। उससे कम काम लेने का यत्न करता हूं। पर वह सब ठीक स्तर की तनख्वाह के सामने कॉस्मैटिक है।
मैं विचार करता हूं, अगर सरकारी नौकरी से निवृत्त होकर मुझे अपना ड्राइवर रखना होगा तो मैं क्या ज्यादा सेलरी दूंगा। मन से कोई स्पष्ट उत्तर नहीं निकलता। और तब अपनी सोच की हिपोक्रेसी नजर आती है। यह हिपोक्रेसी समाप्त करनी है। हम दरियादिल और खून चूसक एक साथ नहीं हो सकते। यह द्वन्दात्मक दशा कभी-कभी वैराज्ञ लेने की ओर प्रवृत्त करती है। पर वहां भी चैन कहां है? दिनकर जी कहते हैं – “धर्मराज, सन्यास खोजना कायरता है मन की। है सच्चा मनुजत्व ग्रन्थियां सुलझाना जीवन की।” देखता हूं अन्तत: कौन जीता है – हिपोक्रेसी, मनुजत्व या धर्मराजत्व!
पर तब तक इन गरीब सारथियों को जीवन से लटपटाते देखना व्यथित करता रहता है।
सर जी, आपने इतनी बड़ी कडवी सच्चाईयां हमें इतनी सहजता से दिखा दीं………।
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सचमुच बहुत अफसोस होता है, यह एक नये तरह का वर्ग संघर्ष है।
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वर्कीँग क्लास और मालिक वर्ग के बीच की खाई पटनेवाली नही -हाँ, जिन्हेँ सहानुभूति है, उनमेँ, मनुष्यत्त्व का गुण बाकी है.खैर ..स्थिती सुधरने का इँतज़ार तो रहेगा ही ..लावण्या
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अविनाश वाचस्पति जी की ई-मेल से प्राप्त टिप्पणी – देश में चालकों और मजदूरों की दुर्दशा के किस्से आम हैं पर इस बार आम भी होने वाले खास हैंआप खुद वाहन चालन का ज्ञान क्यों नहीं ले लेतेइन सब उहापोहों से मुक्ति पाने का यही सहज और सरल उपाय हैजहां जहां जिसके काम में झांकोगेऐसा ही हमदर्दी वाला दुख पालोगेइससे निजात मिल नहीं सकतीइंसान बनने के लिए अवसर नहीं हैऔर आज इतना आसान भी नहीं हैअविनाश वाचस्पति
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ऐसी ही स्थिति से मैं गुजरा था जब मैं अपने होस्टल की मैस का मैस सेक्रेटेरी था । कालेज के डीन ने मैस में होने वाले भ्रष्टाचार और पैसे के घपले को रोकने के लिये मैस सेक्रेटेरी के चुनाव रद्द करके पाँचो ब्रांचों के टापर्स को २-२ महीने के लिये मैस सेक्रेटेरी बना दिया था ।मैस में काम करने वालों को भोजन के अलावा मात्र ६५०-७०० रूपये महीना (१९९९-२००१) मिलता था । फ़िर खाने के बर्तन साफ़ करने को कोई भी मैस वर्कर तैयार नहीं होता था । पहले कैलेण्डर के हिसाब से ड्यूटी लगाई फ़िर १०० रूपये महीना अधिक देना भी शुरू किया । कभी कभी लगता था कि इन १४-१६ साल के लडकों का एक तरीके शोषण ही तो कर रहे हैं हम । फ़िर मन को खुश करने के लिये छोटे छोटे प्रयास किये । पहले किसी मैस वर्कर के खिलाफ़ गाली गलौच/मारपीट की नो-टालरेंस की पालिसी चलाई । फ़िर सब वर्करों पर दिवाली पर कपडों के लिये अलग से पैसे दिये । लेकिन पता था कि इन छोटी छोटी बातों से कुछ हल नहीं होने वाला है ।
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सचमुच विडम्बना ही है….न केवल ड्राइवर बल्कि अन्य कई दिहाड़ी पर काम करने वालों को इसी समस्या से जूझना पड़ता है! पर हमारे हाथ में कुछ भी नहीं है!
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रघुवीर सहाय की एक कविता है जिसमें नायक वेटर को नशे में बतौर टिप कोरमा लिख देता है और नशा उतरने पर पछतावे से भर जाता है. पंक्तियाँ हैं- ‘एक चटोर को नहीं उस पर तरस खाने का हक़,उफ़ नशा कितना बड़ा सिखला गया मुझको सबक.’
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हम भी आलोक जी से सहमत है।
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आलोक पुराणिकजी की टिप्पणी से सहमति
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मैं होली पर अपने घर गया था पूर्वी उत्तर प्रदेश में बलिया. रिक्शा से जब उतरा और पूछा की कितना हुआ तो बोला ८ रुपया… मैं सोच में पड़ गया इतनी दूर के ८ रुपये?… या तो पैसे की अभी भी कीमत है और मेरी नज़रों में ही शायद पैसो की कीमत कम हो गई है. मैं यही सोचता रह गया की यहाँ पर अभी भी चीज़ें सस्ती हैं और इतने में ही लोग काम चला लेते हैं… कई बार मैं इसका उदाहरण भी दे जाता हूँ की उतना ही पैसा पूर्वी उत्तर प्रदेश में कमाना और मुम्बई में कमाने में फर्क है… पर आज आपकी नज़र से देखा तो कुछ और भी दिख रहा है.
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