जैसी वासना, वैसा संग्रह। फाउण्टेन पेन की सदैव ललक है मुझे। दर्जनों इकठ्ठा हो जाते हैं। कल ही मेरी पत्नी स्टेशनरी की दुकान से मुझे घसीटती रहीं। पर तब भी एक तीस रुपये की फाउण्टेन पेन खरीदने में मैं कामयाब रहा। और तब वैसी खुशी हो रही थी जैसी पहली कक्षा के बच्चे को टीचर द्वारा मिला "वैरी गुड" फ्लैश करते होती है।
जब नौकरी ज्वाइन की थी, तब निब वाले कलम से ही लिखता था। उस समय का एक क्लर्क दो दशक बाद मिला तो उसने छूटते ही पूछा – साहब अभी भी फाउण्टेन-पेन से लिखते हैं क्या?
वही हाल पुस्तकों का है। प्रो. गोविन्द चन्द्र पाण्डे की ऋग्वेद पाने की ऐसी तलब थी कि दूसरे दिन पुस्तक मेरे पास थी। उसके अगले दिन विचित्र हुआ। मेरे उज्जैन के एक मित्र प्रोफेसर सुरेन्द्र सोनी अपनी प्रोफेसरी छोड़ दक्षिण में रमण महर्षि के धाम अरुणाचल और श्री अरविन्द आश्रम, पॉण्डिच्चेरी गये थे। वहीं से उन्होने रमण महर्षि पर छ पुस्तकों का एक चयन कूरियर के माध्यम से भेजा। साथ में रमण महर्षि का एक मिढ़ा हुआ (लैमिनेटेड) चित्र भी। पैकेट पाने पर मेरी प्रसन्नता का आप अन्दाज लगा सकते हैं।
मित्रों, मुझे याद नहीं आता कि किसी ने मुझे वुडलैण्ड के जूते, टाई, शर्ट या टी-शर्ट जैसा कोई उपहार दिया हो! कलम किताब देने वाले कई हैं। आजकल ब्लॉग पर अच्छे गीतों को सुन कर मन होता है कि कोई अच्छे गीतों का डिस्क भेंट में दे दे। पर यह वासना जग जाहिर नहीं है। लिहाजा अभी खरीदने के मन्सूबे ही बन रहे हैं। शायद मेरी बिटिया अगली मैरिज एनिवर्सरी पर यह दे दे, अगर वह मेरा ब्लॉग पढ़ती हो!
मैं तब एक कनिष्ठ प्रशासनिक अधिकारी था। मुझे रेलवे सप्ताह में सम्मनित किया गया था। मेरे विभाग के वरिष्टतम अधिकारी के चेम्बर में वर्किंग लंच था। उनके कमरे में अनेक पुस्तकों को देख कर मन ललचा गया। उनसे मैने कुछ पुस्तकें पढ़ने के लिये मांगी। उन्होंने सहर्ष दे दीं। चार-पांच पुस्तकें ले कर लौटा था। चलते चलते उनका पी.ए. मुझसे बोला – आप पर ज्यादा ही मेहरबान हैं साहब – नहीं तो किसी दूसरे को छूने ही नहीं देते! शायद पुस्तक-वासना की इण्टेंसिटी तीव्र न होती तो मुझे भी न मिलतीं! |
पर यह जरूर है – जैसी वासना, वैसा संग्रह। या और सही कहूं तो जैसी रिवील्ड (जाहिर, प्रकटित) वासना, वैसा संग्रह!
लोग अपनी वासनायें बतायें तो बताया जा सकता है कि वे कैसे व्यक्ति होंगे! वैसे ब्लॉग जगत में अधिकांश तो पुस्तक वासना के रसिक ही होंगे। हां, पुस्तकों में भी अलग-अलग प्रकार की पुस्तकों के रसिक जरूर होंगे।
बहुत महीनों बाद आज ऐसा हुआ है कि बुधवार हो और अपने श्री पंकज अवधिया जी की पोस्ट न हो।
वे अपने जंगल प्रवास और अपनी सामग्री के संकलन में व्यस्त हैं। उन्होने कहा है कि मेरे ब्लॉग पर दिसम्बर में ही लिख पायेंगे। मैं आशा करता हूं कि वे अपनी डेडलाइन प्रीपोन करने में सफल होंगे।
इस बीच श्री गोपालकृष्ण विश्वनाथ जी का कुछ लेखन मेरे ब्लॉग पर यदा-कदा आता रहेगा। मै उन केरळ-तमिळनाडु के अनुभवी सज्जन के हिन्दी लेखन से बहुत प्रभावित हूं। उनका लेखन, निसंशय, सशक्त है ही!
आप ने सही कहा, ब्लोग जगत में शायद ही कोई होगा जो पुस्तक प्रेम से ग्रसित न हो। हम भी इस से अछूते नहीं। ये कहा जा सकता है किताबें हमारी पहचान का हिस्सा हैं। लोग जब भी हमारे बारे में सोचते है तो हमें किताबों के साथ ही विस्युअलाइज करते है। लेकिन ये नहीं कह सकती कि हर तरह की किताबें पढ़ती हूँ। ज्यादातर इंगलिश की किताबें ही पढ़ी हैं और ब्लोगजगत में आने के बाद लग रहा है अरे अभी तो एक जन्म की और जरुरत है, बहुत कुछ है जो मैने नहीं पढ़ा। कौशिश कर रही हूँ बचे हुए वक्त का जितना सदुपयोग कर सकूं और अंत में ये सकून हो कि जो मुझे अच्छा लगा कम से कम उतना तो पढ़ा हालांकि जानती हूँ ये सकून पाना बड़ा मुशकिल है।फ़ाउन्टेन पैन मेरी, पतिदेव की( और मेरे स्वर्गवासी पिता की भी) सदा से कमजोरी रही है। ज्यादा लिखने के लिए लेकिन फ़ेल्ट पेन का इस्तेमाल करते है और घर पर पार्कर । जीवन का एक सपना है मौन्ट ब्लोंक खरीदना।
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पुस्तकीय वासना से ग्रसित तो अपन भी लपक के हैं, कौनो है का हमका गिफ्ट करने वाला 😉
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फाउन्टेन पेन से कभी प्यार नहीं पनप पाया. बचपन में हमेशा नया पेन आते ही निब तोड़ बैठते थे. बारहवीं क्लास की बात है. डॉ. आर सी एम् से गणित पढ़ते थे. एक छात्र फाउंटेन पेन से लिख रहा था और पेन से कुछ परेशानी में था. ऐसी झाड़ पडी उसे कि अब तक नहीं भूलते वो शब्द, “ये निब वाले पेन क्या स्टूडेंट्स के लिए होते हैं? वो भी मेथेमेटिक्स के सम के लिए? स्पीड ब्रेक करते हैं. ये तो ऑफिसर्स के लिए हैं जिन्हें सिर्फ़ सिग्नेचर करने होते हैं. बगल में सर झुकाए खड़ा असिस्टेंट पेज पलटता रहता है, जी यहाँ साइन कीजिये.” बात मजेदार लगी थी.किताबों पर तो अंतहीन चर्चा हो सकती है. हमारे इलेक्ट्रिकल विभाग के प्रोफेसर एस एम् जी याद आते हैं. शायद ही कोई विषय हो जिस पर दुनिया भर की स्तरीय किताबों का ढेर उनके संग्रह में ना हो. महीने के कम से कम तीन चार हजार रुपये आसानी से इस शौक की नजर होते होंगे. सबसे अच्छी बात ये कि मुक्त हस्त से बांटते भी थे. कितनी ही किताबें उनसे उधार लेकर पढीं तो कई भेंट में भी पायीं. वे अभी भी वहीं हैं. एच ओ डी हैं अब, हम मगर निकल आए चार साल पहले. कब से सोच रहे हैं उनसे फ़िर मिलने की, खास कर हिन्दी ब्लॉगिंग को लेकर चर्चा करने का मन है. शायद कुछ लिखने के लिए मना सकें उन्हें.कमेन्ट जरूरत से ज्यादा लंबा हो गया है. क्षमा करेंगे.
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जैसी चाह वैसी राह हर की एक चाह होती है बहुत बढ़िया अभिव्यक्ति
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