मैं टीवी का दर्शक नहीं रहा – कुछ सालों से। मेरे परिवार ने उसका रिमोट मेरे हाथ से छीन लिया और मैने टीवी देखना बन्द कर दिया। बिना रिमोट टीवी क्या देखना? रिमोट की जगह कम्प्यूटर के माउस का धारण कर लिया मैने।टेलीविजन विज्ञापन पर यह पोस्ट मेरे ब्लॉग पर श्री गोपालकृष्ण विश्वनाथ ने बतौर अतिथि पोस्ट लिखी है। वे इतना बढ़िया लिखते और टिपेरते हैं कि मैं उनसे ब्लॉग प्रारम्भ करने का अनुरोध करता हूं। अभी आप अतिथि पोस्ट पढ़ें –
![]() झट से पास में रखा हुआ कोई किताब/पत्रिका/अखबार पढ़ने लगता हूँ। इस प्रकार “मल्टी-टास्किंग” करने में सफ़ल हो जाता हूँ। IPL T20 के मैच देखते देखते कई पत्रिकाएं पढ़ डालीं। आजकल ये “ब्रेक्” १० मिनट तक चलते हैं। काफ़ी है मेरे लिए। लगभग दो या तीन पन्ने पढ़ लेता हूँ इस अवधि में! अब साड़ी पर यह “गूगल” का विज्ञापन देखकर मैं चौंक गया। कहाँ तक ले जाएंगे ये लोग इस आइडिया को? क्या विज्ञापन के लिए प्रिन्ट मीडिया, रेडियो, टीवी, अन्तर्जाल, बड़े बड़े पोस्टर, बस और ट्रेन की दीवारें वगैरह काफ़ी नहीं है? अब हमारे कपडों पर भी हमले होने लगे हैं। मेरे लिए दुनिया में सबसे खूबसूरत दृश्य है रंगीन साड़ी पहनी हुई एक सुन्दर भारतीय नारी। अगर साड़ी पर कोई ज़री, या अन्य “डिजाइन” हो, मुझे कोई आपत्ति नहीं। लेकिन उसपर कोई लिखा हुआ सन्देश, या किसी कंपनी का विज्ञापन मैं देखना कतई पसंद नहीं करूँगा। अब आगे चलकर क्या ये लोग सस्ते साड़ियों पर विज्ञापन छापकर उन्हें गरीब औरतों में बाँटेंगे? शायद गरीब नारी को यह मंज़ूर भी होगा। उन्हें क्या मतलब किसी विज्ञापन या कंपनी से। उन्हें बस सस्ते में या नि:शुल्क साड़ियाँ मिल सकती है – यही बहुत अच्छा लगेगा। अगर यह सफ़ल हुआ, तो मर्द भी कहाँ पीछे रहेंगे? अपने छाती और पीठ पर जगह देने के लिए तैयार हो जाएंगे। टी शर्ट सस्ते हो जाएंगे या “फ़्री” हो जाएंगे। बस, पीठ/छाती पर कोई विज्ञापन भर झेलना होगा। जरा सोचिए, लाखों गरीब अगर अपने अपने पीठ दान करने के लिए तैयार हो जाते हैं, तो इन विज्ञापन कंपनियों को कितने लाख वर्ग फ़ुट की एडवर्टिजमेण्ट स्पेस मिल सकता है! सरकार को गरीबी हटाने में सफ़लता भले ही न मिले, कम से कम नंगेपन हटाने में सफ़लता हासिल होगी। अगला कदम होगा, कपडों को छोड़कर, सीधे त्वचा पर हमला करना। अगर औरत, बिन्दी छोड़कर अपने ललाट भी न्योछवर करने के लिए तैयार हो जाती है, तो और भी अवसर मिल जाएंगे इन कंपनियों को। जीवन बीमा निगम (LIC) का “लोगो” वैसे भी बहुत सुन्दर है। जब गरीब खून बेच सकता है, जब अपनी “किड्नी” बेचने कि लिए तैयार हो सकता है तो गरीब नारी बिन्दी त्यागकर अपने ललाट पर किसी कंपनी का “लोगो” गोदवाने (tattoo करने) के लिए भी तैयार हो सकती है। क्या स्थिति यहाँ तक पहुँचेगी? – गोपालकृष्ण विश्वनाथ |
स्थिति यहां तक जरूर पंहुचेगी विश्वनाथ जी, और आगे भी जायेगी! प्रलय में बहुत देर है!
ड्राफ्टब्लॉगर ने ब्लॉगस्पॉट पर कई नई सुविधायें दी हैं। वर्डप्रेस की तरह कमेंट-बॉक्स उनमें से एक है। आप ब्लॉगर इन ड्राफ्ट के ब्लॉग की निम्न पोस्ट पढ़ें –Updates and Bug Fixes for June 26th
ज्ञान जी नये कमैंट बॉक्स के लिए धन्यवाद, आज पहली बार मुझे आप के ब्लोग पर कमैंट लिखने के लिए नोट पैड पर लिख कॉपी पेस्ट नहीं करना पड़ा, सीधे यहीं पर लिख सकी
LikeLike
पहली नजर में ध्यान ही नहीं गया कि साड़ी पर गूगल लिखा है आप की पोस्ट पढ़नी शुरु की तो फ़िर दोबारा ध्यान दिया तब दिखा, अख्बार के पन्ने जैसे प्रिंट वाली शर्ट्स तो अक्सर देखी है, कंप्युटर साड़ियों के बारे में भी सुना है। बिन्दी गोदवाना क्युं पढ़ेगा, कंपनी के लोगो की प्लास्टिक की बिन्दी लगायगेगीं न ,नारियां पूरी जिन्दगी एक ही कंपनी के साथ क्युं बंध कर रहेगीं जी, अपने क्रिकेटर्स को देखिए, हर साल नयी कंपनी के साथ नया अनुबंध। तब क्या पता मर्द भी बिन्दी लगाने लगें , माथा किराए पर देना किडनी बेचने से अच्छा होगा…।:)
LikeLike
ज्ञान जी, आपकी पिछली पोस्ट भी अभी अभी पढ़ने का मौका मिला…दोनो पोस्ट पढ़ कर हम तो सोच में पड़ गए हैं कि आने वाले दिनों में विज्ञापन की दुनिया में क्या होगा जहाँ हमारा छोटा बेटा जाने का सपना देख रहा है.
LikeLike
कुछ हफ्ते सुप्त रहने के बाद आज जालभ्रामण पर निकला तो आपके चिट्ठे की नई साजसज्जा देख दंग रह गया. बहुत खूब.इसके साथ साथ आप के तकनीकी उडानों के लिये भी मेरा साधुवाद स्वीकार करें!
LikeLike