मैने पाया कि धीरे धीरे मेरे पास ब्लॉग जगत के लोगों के कुछ सज्जनों के फोन नम्बर संग्रहित हो गये हैं। कुछ से यदा-कदा बातचीत हो जाती है। जिनसे नहीं मिले हैं, उनके व्यक्तित्व का अनुमान उनकी आवाज से लगाने का यत्न करते हैं। उस दिन एक सज्जन का फोन था, जिनकी मैं चाह कर भी सहायता न कर पाया। फोन पर ये सभी व्यक्ति अत्यन्त प्रिय और सुसंस्कृत हैं। और मैं समझता हूं कि वास्तविक जिन्दगी में भी होंगे। आखिर ब्लॉग जगत में समाज का वैशिष्ठ्य ही रिप्रजेण्ट होता है।
एक सज्जन हैं – श्री अनूप फुरसतिया शुक्ल, जिनसे फोन पर बातचीत होती रहती है। वे हिन्दी ब्लॉगजगत के अत्यन्त जगमगाते सितारे हैं। जहां काम करते हैं, वहां तोप – तमंचे बनते होंगे, पर उनकी वाणी में निहायत आत्मीयता का पुट रहता है। और चूंकि विचारों की वेवलेंथ में कोई असमानता नहीं, मुझे उनसे बातचीत की प्रतीक्षा रहती है। मैं यहां सुकुल से बातचीत का नमूना प्रस्तुत कर रहा हूं।
अब, यह शीर्षक में दिया शब्द "काल्पविक" शब्दकोष में नहीं है। यह दो शब्दों का वर्णसंकर है – काल्पनिक+वास्तविक। मैने ताजा-ताजा ईजाद किया है। इसका प्रयोग मैं केवल ध्यानाकर्षण के लिये कर रहा हूं। वह भी दिनेशराय द्विवेदी जी से डर कर। अन्यथा लिखता – अनूप शुक्ल से एक वर्चुअल टॉक। अर्थात इस पोस्ट में ठोकमठाक बातचीत विवरण है – जो कहां कल्पना है और कहां सच, यह मैं नहीं बताऊंगा।
और द्विवेदी जी के बारे में क्या कहें? इनडिस्पेंसिबिलिटी वाली पोस्ट पर दिनेश जी ने जो टिप्पणी दी, उस पर उनके रेगुलर टिपेरा होने का लिहाज कर गया। वर्ना दुबेजी से अंग्रेजी के पक्ष में कस कर पंगा लेता। अब देखिये न, वकील साहब कहते हैं कि इस शब्द का प्रयोग कर हमने गुनाह किया! हिन्दी पीनल कोड (?) की धारा ४.२०(१) के तहद यह संज्ञेय अपराध कर दिया हमने! — हमने फुरसतिया से फोन पर रोना रोया। यूं, जैसे ब्लॉगजगत में कोई जख्म लगा हो तो सुकुल से मरहम मांगा जाये; ये परम्परा हो!
सुकुल भी हमारे भाव से गदगद! पर वे भी दुबेजी से कोई पंगा नहीं लेना चाहते। समीरलाल जी की बातचीत नेट पर कोट कर वैसे ही सिटपिटाये हुये हैं! नॉन कमिटल से उन्होंने "वही-वही" जैसा कुछ कहा। उसे आप अपने पक्ष में में भी समझ सकते हैं और दिनेश जी के भी!
हमने हां में हां मिलाई। यद्यपि हमें खुद नहीं मालुम था कि हां किसमें मिला रहे हैं!
मैने सुकुल से उनके कम लिखने की शिकायत की। उन्होंने श्रावण मास बीतने पर सक्रिय होने का उस प्रकार का वायदा किया, जैसा उधार लेने वाला सूदखोर महाजन से पिण्ड छुड़ाने को करता है।
मैं उनके कम लेखन पर ज्यादा न छीलूं, यह सुनिश्चित करने को उन्होंने बात पलटी और बोले – आपकी गाड़ियां ठीक नहीं चल रहीं। तभी आपकी तबियत खराब है। (कुछ वैसे ही कि आज आपकी पोस्ट पर टिप्पणियां नहीं आयीं। कोई बेनाम भी झांक कर नहीं गया, सो तबियत खराब होनी ही है!) मैने स्वीकारोक्ति की – बारिश में माल गाड़ियों की चाल को ब्रेक लग गया है। सवारी गाड़ी कल की आज आ रही है तो माल गाड़ी का बेहाल होना तय है। पर ट्रेन परिचालन के बारे में ज्यादा बात करना खतरे से खाली नहीं। क्या पता कब रेल का ट्रेड सीक्रेट उगल दें हम। सरकारी अफसरी में विभागीय बातचीत के बारे में जरा कतरा के ही रहना चाहिये। अत: मैने जोर से हलो-हलो किया। जैसे कि मोबाइल की बैटरी बैठ रही हो और उनकी आवाज डूब रही हो।
बातचीत ज्यादा चली नहीं। पर सुकुल की यह बात पसंद नहीं आयी। खुद तो चार महीने से ढ़ंग से लहकदार पोस्ट लिख नहीं रहे। चिठेरा-चिठेरी पता नहीं कहां बिला गये – तलाक न हो गया हो उनमें! और ये मौज लेने वाले हमें चने के झाड़ पर चढ़ाने को उतावले रहते हैं, कि बीमारी का बहाना ले कर लिखने से कतरा रहा हूं मैं। लिहाजा हम तो भैया, फुरसतिया का मुरीदत्व ताक पर रख कर ई-स्वामी का गुणगान करने का उपक्रम प्रारम्भ कर दिये हैं।
बस फर्क यह है कि ई-स्वामी से कोई बातचीत नहीं है, सुकुल से हफ्ता-दस दिन पर हो जाती है। रेलवई के खटराग से इतर मन लग जाता है। पता नहीं और ब्लॉगर लोग कितना बतियाते/चैटियाते हैं?
(नोट – यह बातचीत सही में काल्पविक है! कल शिवकुमार मिश्र कह रहे थे कि फुरसतिया हर दशा में मौज ढूंढने के फिराक में रहते हैं; तो हमने सोचा हम भी अपने इस्टाइल से मौज ले लें। वर्ना सुकुल का तो कथन है कि हमें मौज लेना नहीं आता!)
एक बढ़िया चीज जो मैने अनूप शुक्ल के बारे में नोटिस की है, वह है कि इस सज्जन की ब्रिलियेन्स (आप उसे जितना भी आंकें) आपको इण्टीमिडेट (intimidate – आतंकित) नहीं करती। अन्यथा अनेक हैं जो अपने में ही अपनी क्रियेटीविटी का सिक्का खुद ही माने हुये हैं और यह मान कर चलते हैं कि वे भविष्य के लिये एक प्रतिमान रच रहे हैं। दूसरे, व्यक्तिगत और छोटे समूहों में जो बढ़िया काम/तालमेल देखने को मिलता था, वह अब उतना नहीं मिलता। अनूप जैसे लोग उस कलेक्टिव सपोर्ट सिस्टम के न्यूक्लियस (नाभिक) हुआ करते हैं। उन जैसे लोगों की कमी जरूर है; इस बात के मद्देनजर कि ब्लॉगर्स की संख्या का मिनी-विस्फोट सा हो रहा है। और कई नये ब्लॉगर्स अपने को समुन्दर में डूबता-उतराता पाते हैं! |
“एक बढ़िया चीज जो मैने अनूप शुक्ल के बारे में नोटिस की है, वह है कि इस सज्जन की ब्रिलियेन्स (आप उसे जितना भी आंकें) आपको इण्टीमिडेट (intimidate – आतंकित) नहीं करती। अन्यथा अनेक हैं जो अपने में ही अपनी क्रियेटीविटी का सिक्का खुद ही माने हुये हैं और यह मान कर चलते हैं कि वे भविष्य के लिये एक प्रतिमान रच रहे हैं। दूसरे, व्यक्तिगत और छोटे समूहों में जो बढ़िया काम/तालमेल देखने को मिलता था, वह अब उतना नहीं मिलता। अनूप जैसे लोग उस कलेक्टिव सपोर्ट सिस्टम के न्यूक्लियस (नाभिक) हुआ करते हैं। उन जैसे लोगों की कमी जरूर है; इस बात के मद्देनजर कि ब्लॉगर्स की संख्या का मिनी-विस्फोट सा हो रहा है। और कई नये ब्लॉगर्स अपने को समुन्दर में डूबता-उतराता पाते हैं!”आपने फुरसतिया के व्यक्तित्व के ‘न्यूक्लियस (नाभिक)’ को सही-सही पकड़ लिया है . फुरसतिया बिना किसी ऐक्सपायरी डेट के लंबे समय तक भले आदमी का अभिनय करते रह सकते हैं और उनकी फ़िल्म है कि न तो कभी दुखांत होती है और न कभी खतम होती दिखती है.हम उन्हें ब्लॉग जगत का सबसे प्रतिष्ठित वाग्गेयकार ऐसे ही थोड़े कहते-मानते हैं . फुरसतिया विरोध और विरोधी को ऐसे पचा ले जाते हैं जैसे बच्चे कैडबरीज़ को . समन्वय की कला का अज़ब-अनूपा रूप है फुरसतिया में .और हां! आप अपनी अंग्रेज़ी-विंग्रेज़ी बिंदास ठेलिए,कौनो आपत्ति नहीं है . पर अगर वह खिलंदड़ा भाषिक ‘ऐलॉइ’ नहीं ठेला जिसके लिए हम आपके पास खिंचे आते हैं तो खिलाफ़त मोर्चा निकलना तय है .
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अनूप जी के ब्लॉग पर नियमित जाना अभी ही शुरू किया है… आपकी बात से सहमत हूँ !
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अनीता कुमार जी की टिप्पणी (ई-मेल से) -“आखिरकार ज्ञान जी को मौज लेना आ ही गया।एक बढ़िया चीज जो मैने अनूप शुक्ल के बारे में नोटिस की है, वह है कि इस सज्जन की ब्रिलियेन्स (आप उसे जितना भी आंकें) आपको इण्टीमिडेट (intimidate – आतंकित) नहीं करती। अन्यथा अनेक हैं जो अपने में ही अपनी क्रियेटीविटी का सिक्का खुद ही माने हुये हैं और यह मान कर चलते हैं कि वे भविष्य के लिये एक प्रतिमान रच रहेइस बात से तो हम भी 100% सहमत हैं”
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