संसद में सरकार की जीत को कई लोगों ने पिरिक जीत बताया है। अर्थात सरकार जीती तो है, पर हारी बराबर!
मानसिक कण्डीशनिंग यह हो गयी है कि सब कुछ ब्लॉगिंग से जोड़ कर देखने लगा हूं। और यह शब्द सुन/पढ़ कर कपाट फटाक से खुलते हैं:
मेरा ब्लॉगिंग का सेंस ऑफ अचीवमेण्ट पिरिक है।
पिरस (Pyrrhus) एपायरस का सेनाप्रमुख था। रोम का ताकतवर प्रतिद्वन्दी! वह रोमन सेना के खिलाफ जीता और एक से अधिक बार जीता। पर शायद इतिहास लिखना रोमनों के हाथ में रहा हो। उन्होंने अपने विरोधी पिरस की जीत को पिरिक (अर्थात बहुत मंहगी और अंतत आत्म-विनाशक – costly to the point of negating or outweighing expected benefits) जीत बताया। इतिहास में यह लिखा है कि पिरस ने एक जीत के बाद स्वयम कहा था – “एक और ऐसी जीत, और हम मानों हार गये!”
मैं इतिहास का छात्र नहीं रहा हूं, पर पिरस के विषय में बहुत जानने की इच्छा है। एपायरस ग्रीस और अल्बानिया के बीच का इलाका है। और पिरस जी ३१८-२७२ बी.सी. के व्यक्ति हैं। पर लगता है एपायरस और पिरस समय-काल में बहुत व्यापक हैं। और हम सब लोगों में जो पिरस है, वह एक जुझारू इन्सान तो है, पर येन केन प्रकरेण सफलता के लिये लगातार घिसे जा रहा है।
मिड-लाइफ विश्लेषण में जो चीज बड़ी ठोस तरीके से उभर कर सामने आती है – वह है कि हमारी उपलब्धियां बहुत हद तक पिरिक हैं! ब्लॉगिंग में पिछले डेढ़ साल से जो रामधुन बजा रहे हैं; वह तो और भी पिरिक लगती है। एक भी विपरीत टिप्पणी आ जाये तो यह अहसास बहुत जोर से उभरता है! मॉडरेशन ऑन कर अपना इलाका सीक्योर करने का इन्तजाम करते हैं। पर उससे भला कुछ सीक्योर होता है?! अपने को शरीफत्व की प्रतिमूर्ति साबित करते हुये भी कबीराना अन्दाज में ठोक कर कुछ कह गुजरना – यह तो हो ही नहीं पाया।
आपकी ब्लॉगिंग सफलता रीयल है या पिरिक?!
मैं तो लिखते हुये पिरस को नहीं भूल पा रहा हूं!
ज्ञानवर्धक लेखों से आपने अपना नाम सार्थक कर दिया – आगे भी आते रहना पड़ेगा.
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जमाये रहिये। राग दरबारी के छोटे पहलवान की स्टाइल में कहें तो वो जीत गये हैं, अब पिरिक कहिये, नोटिक कहिये। कहे जाइये, पर सुन कौन रहा है। टाइम कम है, काम बहुत ज्यादा है। सो जीतने वाले कैलेंडर घड़ी लेकर तरह तरह के काम में जुट गये हैं, बाकी लोग घंटा लिये बैठे रहें। क्या फर्क पड़ता है।
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चलिए न्यूक्लियर डील पर लिखते लिखते थक चुके ब्लॉगरो को आपने नया विषय तो दिया.. अगली 8-10 पोस्ट्स पिरिक पर ही होगी वैसे मेरे लिए तो बस मेरे शब्द ज्ञान में एक नया शब्द मिल गया है..
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गुरुदेव, हम यह उम्मीद क्यों करें कि हमें कुछ भी आसानी से मिल जाएगा। गीता के इस देश में हमें तो यह सिखाया गया है कि कुछ मिलने की आस में बैठकर समय खराब ही न करो। बस अपना काम करते जाओ। जो मिलना है वह मिल ही जाएगा। यूरोपवासियों ने आदमी को ‘निवेश’ और ‘प्राप्ति’ (investment & returns) के गणित में उलझना सिखा दिया। हमारा गणितज्ञ तो सुपर-डुपर कम्प्यूटर लेकर ऊपर बैठा हुआ है। उसके हिसाब में कोई गड़बड़ नहीं होने वाली। फिर सफलता के मायने भी तो अलग-अलग हैं…।
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यह पिरिक जीत भारतीय जनता की नहीं। अमरीका की जीत है, शेयर बाजार की जीत है। जनता को तो अभी पता ही नहीं कि उस के साथ क्या हुआ है? वह तो निस्पृह भाव से जीत की मिठाइयाँ खा रही है। तेल के दामों ने सभी के दाम बढ़ा दिए हैं, इंसान को छोड़ कर। अब आगे क्या होने वाला है उस का मानचित्र दो चार दिनों में ही नजर आने लगेगा।
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श्री अरविंद मिश्रा जी की टिप्पणी को अक्षरश: मेरी भी टिप्पणी मानी जावे ।
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जो मिल जाता है वह पिरिक ही लगता है। जो नहीं मिलता लगता है वह मिले तब कुछ मजा आये। 🙂
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आपकी ब्लॉगिंग सफलता रीयल है या पिरिक?! यह न तो पिरिक ना रीयल -यह आभासी है -आभासी दुनिया का भरम है -मानें तो यह जगत ही मिथ्याभास् है .आपने मेरे अल्प शब्द ज्ञान में प्रसंग और सन्दर्भ सहित जो बढोत्तरी की है उसके लिए आभार !
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pyrrhic नहीं है. कम से कम वह बातें जो हमें अन्दर तक बैचैन किए रहती हैं, उन्हें शेयर करने का प्लेटफोर्म मिल जाता है. कुंठा अन्दर दबी नहीं रह पाती. परजेटिव है, इस अर्थ में सफल है. अपने मन की उमस निकली जा सकती है, जिससे हमारा दिमाग ठंडा रहेगा. आजीविका के और भी बहुत साधन हैं, थोड़ा सा समय और श्रम देकर मन की शान्ति हासिल कर ली तो क्या इसे पेरीक कहेंगे?
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यूँ तो जीवन के हर क्षेत्र में पूर्ण इमानदारी के साथ देखने पर हम पिरिकिया ही जा रहे हैं. जहाँ हैं वो क्यूँ हैं, क्या डिजर्व करते हैं, क्या पाते हैं, क्या सोचते हैं…भयंकर पिरिकन का शिकार हो गया हूँ आपको पढ़कर.अब कोई डॉक्टर ही पिरियासिस की दवा बताये तो बाहर निकलें. उसी में हम भी पिरस को नहीं भूल पा रहे हैं मानो वो ही पिरियासिस के वायरस हों.
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