रविवार को भरतलाल अपनी साइकल चोरी की एफ़.आई.आर. दर्ज कराने शिवकुटी थाने गया। उपस्थित सिपाही ने पहले भरतलाल के घर की जगह की स्थिति के बारे में पूछा। विस्तार से बताने पर भी वह समझ नहीं पाया। भरत लाल के यह बतने पर कि घर शिवकुटी मन्दिर के पास है, सिपाही यह पूछने लगा कि शिवकुटी मन्दिर कहां है? विनम्रता से भरत ने बताया कि थाने का नाम भी शिवकुटी थाना है!(अर्थात सिपाही जी को अपने थाना क्षेत्र की भी जानकारी नहीं है!)
अब सिपाही ने कहा कि दरख्वास्त लिख कर लाओ, साइकल खोने की। उसने दर्ख्वास्त लिखी। फिर कहा गया कि टाइप करा कर लाओ। वह भी उसने किया। प्रमाण के तौर पर उसने अपनी नयी साइकल की रसीद भी नत्थी की।
उसके बाद सिपाही ने कहा कि साइकल की बिल की मूल प्रति वह नहीं लेगा। उसकी फोटो कापी करा कर लाये। मार्केट में बिजली नहीं थी। लिहाजा भरत ने सिपाही को कहा कि वह ओरिजिनल ही रख ले – आखिर जब साइकल ही नहीं है तो रसीद का भरत क्या अचार डालेगा! पर टालू सिपाही तैयार ही न हुआ।
इतने में एक अधेड़ औरत और उसके पीछे उसके लड़का बहू थाने में आये। प्रौढ़ा का कहना था कि उन दोनो बेटा-बहू ने उसे मारा है और खाना भी नहीं देते। सिपाही ने उसकी दरख्वास्त लेने की बजाय दोनो पक्षों को हड़काया। वे बैरंग वापस चले गये।
तब तक एक दूसरा सिपाही दारोगा साहब का गैस सिलिण्डर ले कर आया कि वह कल भरवाना है और थाने में उसे सुरक्षित रख दिया जाये। सिपाही जी परेशान हो गये कि थाने में सुरक्षित कैसे रखा जाये सिलिण्डर! शाम को तो ड्यूटी भी बदलनी है।…
भरतलाल ने घर आ कर कहा – "बेबीदीदी, जब ऊ दारोगा जी क सिलिण्डरवा भी सुरच्छित नाहीं रखि सकत रहा, त हमार साइकिल का तलाशत। हम त ई देखि चला आवा।" ["बेबीदीदी (मेरी पत्नीजी), जब वह दारोगा का गैस सिलिण्डर भी सुरक्षित नहीं रख सकता था तो मेरी साइकल क्या तलाशता। ये देख कर मैं तो चला आया।"]
हमारे थानों की वास्तविक दशा का वर्णन कर ले गया भरतलाल। यह भी समझा गया कि आम सिपाही की संवेदना क्या है और कर्तव्यपरायणता का स्तर क्या है।
भरतलाल मेरा बंगला-चपरासी है।
भरतलाल की पुरानी पोस्ट पढ़ें – मोकालू गुरू का चपन्त चलउआ। इसे आलोक पुराणिक दस लाख की पोस्ट बताते है! ऊपर परिवाद के विषय में जो एटीट्यूड थाने का है, कमोबेश वही हर सरकारी विभाग का होता है। रेलवे में भी ढ़ेरों लिखित-अलिखित परिवाद रोज आते हैं। एक जद्दोजहद सी चलती है। एक वृत्ति होती है टरकाऊ जवाब दे कर मामला बन्द करने की। दूसरी वृत्ति होती है परिवाद करने वाले को संतुष्ट करने की। तीसरी वृत्ति होती है, परिवाद रजिस्टर ही न करने की। मैने कई स्टेशन स्टाफ के आत्मकथ्य में यह पाया है कि "वर्ष के दौरान मेरी ड्यूटी में कोई-जन परिवाद नहीं हुआ"। समझ में नहीं आता कि यह कर्मचारी को कौन सिखाता है कि जन परिवाद न होना अच्छी बात है। मेरा विचार है कि वह संस्थान प्रगति कर सकता है जो जम कर परिवाद आमंत्रित करता हो, और उनके वास्तविक निपटारे के प्रति सजग हो। |
पहली बात तो हमें आज ही पता चला कि भरतलाल आप का चपरासी है। मन में थोड़ा कन्फ़्युशन था, एक और किरदार है आप की पोस्टों में उसका अक्सर जिक्र होता है (जिसके लिए आप ने कहीं टिप्पणी में कहा था कूपमण्डूक तो बिल्कुल नही है)लेकिन हमें आज तक पता नहीं चला कि वो किरदार काल्पनिक है या सचमुच में आप के घर का हिस्सा है। आज की पोस्ट देख कर लगता है कि हर किसी ने अपने जीवन में एक न एक बार तो चोरी और फ़िर पुलिस के माथे लगने का अनुभव किया ही है। आलोक जी का अनुभव सकारत्मक रहा अपने पुराने छात्र की वजह से, वैसे भी भाग्यशाली रहे कि स्कूटर अपने आप मिल गया। पुराने मॉडल का खटारा तो नहीं था जिसे स्टार्ट करने में पांव टूटते हों और चोर ने सोचा हो ये तो घाटे का सौदा हो गया…।:)खैर अब सब ने अपने किस्से सुनाए तो हम कैसे पीछे रह जाएं। हुआ यूँ कि एक बार हमारी नयी कार चोरी हो गयी वो भी हमारे घर के नीचे से और वो भी सोसायटी के अंदर से, वॉचमेन के सामने कार ड्राइव करके ले गये और उसे पता भी न चला कि ये चोरी हो रही है, चोर इतने भद्र दिख रहे थे कि उसने सोचा कि शायद हमारे पति के मित्र हों। खैर जाके रपट लिखाई गयी।उसके बाद पति देव तो अपनी दफ़तर की रुटीन में व्यस्त हो लिए और वैसे भी बम्बई में ट्रेफ़िक जैम के चलते आधी जिन्दगी तो सड़को पर ही गुजर जाती है। लिहाजा थाने जा कर फ़ोलोअप करने का काम हमारे ऊपर आ गया। कभी किसी पुलिस वाले से वास्ता नहीं पड़ा था इस लिए डरते भी थे पुलिस स्टेशन जाने से। एक अधेड़ पड़ौसन के साथ जाना शुरु किया थाने पूछने के लिए क्या हुआ हमारे कैस का। एक ही जवाब होता जब हमारे अपने दरोगा की जीप पुलिस स्टेशन से चोरी हो गयी और नहीं मिली तो तुम्हारी क्या मिलेगी, भूल जाओ और जाकर इंश्यौरेंस क्लेम कर लो, इसी लिए तो एफ़ आइ आर लिख लिया है न, और कितनी मदद करें। एक महीने तक हम नियमित रूप से जाते रहे फ़िर हमारी पड़ौसन भी तंग आ गयी और हम भी अपने जख्मों को सहला रहे थे। तीन महीने गुजरने के बाद एक दिन रात को क्राईम ब्रांच के लोग पधारे, हम तो उनका डील डौल देख कर ही डर गये। पति देव अभी काम से लौटे नहीं थे। उन्होंने पूछा आप की कार चोरी हुई है, हमारे हां कहने पर बोले एक आई आर की कॉपी दिखाओ। फ़िर बोले आप की कार मिल गयी है।पता चला कि चोर सभ्रांत परिवार के पड़े लिखे लोग थे, हम फ़िर नीचे जा कर चोरों का चेहरा भी देख कर आये। लेकिन कार वापस लेने के लिए हमें 12000 खर्च करने पड़े। हमारी कार जो कि नयी थी चोरी कर किसी और को बेच दी गयी थी, उस बेचारे को तो लाखों का नुकसान हो गया। खैर अंत भला तो सब भला
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भरतलाल जी की साइकल चोरी हो जाने का दुख है — अब उन्के लिये नयी साइकिल मिली या नहीँ ?और हाँ, पल्लवी जी कहाँ हैँ ??…उनसे कहिये , शायद मदद कर देँ ..”तफ्तीश” शब्द ,ना जाने कहाँ से आया होगा ?..पर है बहुत ज़बरदस्त !
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अब अपन आज टिपियाने आए है तो सिर्फ़ और सिर्फ़ भरतलाल साहेब की खातिर।समझदार हैं वो जो लौट आए नई तो सौ रूपए का चूना लगता बस एफ़ आई आर दर्ज कराने मे, सायकिल तो मिलनी है नही।
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bara shareef sipahi tha, itni der tak bharat laal se sarafat ke saath baat karta reha……
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लग रहा है आपलोगों का वास्ता अपेक्षाकृत शरीफ पुलिसवालों से रहा है। बिहार के थानों में एफआईआर के लिये कागज भी खुद ही खरीद कर ले जाना होता है, वह भी पूरा एक जिस्ता। फिर, दस बीस व सौ रुपये से कुछ भी नहीं होनेवाला, न्यूनतम डिमांड दस से पांच हजार रुपयों के बीच होती है (भले ही आप दो जून की रोटी के भी मुहताज हों)। तीसरी बात, चोरी लूट डकैती आदि जैसे आपराधिक मामले दर्ज करने में तो पुलिस आनाकानी करती है, क्योंकि इनसे थाने का रिकार्ड खराब नजर आता है। लेकिन मारपीट व दुर्घटना के मामलों के लिए तो पुलिसवाले लार टपकाते रहते हैं। दोनों पक्षों को दूहने का मौका जो मिलता है। एक और बात, आपने एफआईआर लिख कर दिया, इसका मतलब यह नहीं कि उसे पुलिसवाले अपने रजिस्टर में दर्ज ही कर लेंगे। उससे पहले पैसा और पैरवी का बड़ा खेल चलता है। लेकिन सिर्फ पुलिस पर ही सारा दोषारोपण क्यों? मजबूरी में ही सही, पुलिस कुछ नेक काम भी कर देती है। दूसरे महकमों में तो स्थिति इससे भी बदतर है। रेलवे के टीटीई को ही लें, एक टीटीई के सत्कर्मों के आगे कई पुलिसवाले शर्मिंदगी महसूस करने लगेंगे।
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पुलिस के साथ अपना तो आज तक कोई पंगा हुआ नहीं….वैसे उनके बापों का फोन आ जाता है तो हें.हें करने लगते हैं…ऐसन मामलों में अपन बहुत सोर्स-प्रेमी जीव हैं…परसाईजी ने भी कहा था कि उन्होंने दुनिया में ऐसी सोर्स-प्रेमी जाति नहीं देखी. :)सायकल छोडि़ये…सामने आदमी पिटता रहता है और ड्यूटी पर खड़े पुलिसवाले तमाशा देखते हैं.
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भरतलाल की समझदारी और दुनियादारी पर मुग्ध हैं हम। बाकी पुलिस के खिलाफ तो कुछ न कहलवाइये। इनसे हमारी पिछले जन्म की दुश्मनी है। लड़ाई, हाथापयी, गाली-गलौज सब हो चुकी है इनसे । अब और तंग नहीं करना चाहते इन्हें।
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