मेरे पास बेरोजगारी के आंकड़े नहीं हैं। पर रोज दफ्तर जाते समय दिहाड़ी मजदूरी की प्रतीक्षारत लोगों को देखता हूं। इस बारे में फरवरी में एक पोस्ट भी लिखी थी मैने। तब जितने लोग प्रतीक्षारत देखता था उससे कहीं ज्यादा इस समय बारिश के मौसम में वहां प्रतीक्षारत दीखते हैं। क्या मजूरी मिलना कठिन हो गया है?
यह जरूर है कि वर्षा में निर्माण की गतिविधियां कम हो जाती हैं। सो यहां शहर मे काम कम मिलता है। पर सामान्यत अच्छे मानसून में जनता गांवों का रुख कर लेती है। खेती में मजदूरी की जरूरत बढ़ जाती है। रेलवे में ठेकेदार सामान्यत: इस मौसम में मजदूरों के न मिल पाने का रोना रोते रहते हैं।
क्या चक्कर है कि मजदूरी तलाशते लोग बढ़े हुये दिखाई देते हैं? फरवरी के मुकाबले लगभग ड्योढ़ी संख्या में। जरा देखिये ताजा फोटो – चलते वाहन से लोगों की भीड़ पूरी तरह कैप्चर नहीं कर पाया। साइकलें ही ज्यादा आ पायीं फोटो में। पर आपको मुझ पर यकीन करना होगा कि दिहाड़ी तलाशती भीड़ है पहले से ज्यादा।
क्या माजरा है। खेती में इस बारिश का लाभ नहीं है क्या? बारिश शायद समय के पहले बहुत ज्यादा हुई है। धान की रोपाई अच्छी नहीं हो पा रही। या शहर में जबरी टिके हैं ये मजूर – अण्डर एम्प्लायमेण्ट के बावजूद? या अर्थव्यवस्था चौपटीकरण के दौर में है?
मेरे पास उत्तर नहीं है। कौतूहल है। क्या आपके पास उत्तर या अटकल है?
देश के अलग – अलग हिस्सों में इस कतार की लम्बाई अलग-अलग है. शायद उत्तर प्रदेश-बिहार में सबसे लम्बी !
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हमारे झारखण्ड में तो १०० दिनों के रोजगार वाली योजना नरेगा का बड़ा सोर था .बाद में फुस्स .यहाँ तक की जो गैर सरकारी कार्यकर्त्ता ओडिट करने आए उसे भी मर डाला गया क्या बताऊँ इस बारे में कुछ कह भी नही सकती.पुरी मजदूरी पर दस्तखत करवा कर आधी दे रहें है. मेरा एक पूर्व क्लासमेंट गया उपायुक्त से प्रोजेक्ट करने की अनुमति लेकर तो ठेकेदारों ने धमकी दी की चुपचाप निकल जाओ वरना जान से हाथ धो बैठोगे .
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अब आप उत्तरों और अटकलों का विश्लेषण करके हमें बतायें कि असल माजरा क्या है? हम इंतजार में हैं।
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पाण्डेय जी,अभी-अभी एक मजेदार बात हुई. जब मैं नीरज रोहिला के ब्लॉग पर उनकी आपसे मुलाक़ात के बारे में पढ़ रहा था लगभग उसी समय आपने निम्न कमेन्ट लिखा “ऐसे ही एक प्रयोग ने दर्शाया की अधिक बुद्धिमान लोग सामान्य लोगों से १५ वर्ष तक अधिक जीते हैं।बड़ा ही दुखद समाचार है हमारे लिये! कुछ उपय बताओ मित्र! क्या बुद्धिमान का मुखौटा लगाने से उम्र बढ़ सकती है?! :(“परिहास सुनकर अच्छा लगा मगर आपका मजाक बेकार गया यह कमेन्ट पढने तक मुझे आपके बारे में काफी कुछ पता लग चुका था. फ़िर भी ख़ास आपके लिए यह प्रार्थना: “जीवेत शरदः शतं…”
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दिहाड़ी या मजदूरसचमुच मजे से दूरइसीलिए तो दिहाड़ीरहे मजदूर के बनेमजदूर।मजदूरी बाद मेंभाड़े की किच किच पहलेज्यों बरतन खटकते होंरसोई में छलकने से पहले।
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यहाँ पर (in USA ) मेक्सिकन कौम के लोग ही इस तरह का काम करते हैँ — लावण्या
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यह नज़ारा मैं नौएडा में अकसर देखा करता था मगर महामंत्री जी की बात से सहमत हूँ। अपना घर बनवाते हुए हमें भी ऐसे अनुभव हुए थे और आखिरकार उसी राजगीर से बनवाया जो भरोसे का था और काम अच्छा करता था। उसके लिये हमें कुछ दिन काम बंद भी रखना पड़ा था। काम चाहे कम हो मगर सच ये है ढंग का काम करने वाले उससे भी कम हैं। इससे भी ज़रूरी बात यह है कि यह सिर्फ़ दिहाड़ी मजदूरों का सच नहीं है। आई टी क्षेत्र के लिये भी यह बात उतनी ही सच है जहां काम तो बहुत है मगर appropriately qualified लोग मिल पाना मुश्किल होता जा रहा है। यही वजह है कि तनख्वाह और head hunting दोनो ही इतने बढ़ रहे हैं जिसकी वजह से इस उद्योग का भारत में टिके रहना कठिन होता जा रहा है क्योंकि इस उद्योग के पीछे जो चीज़ काम करती है वह है cost efficiency, जोकि पूर्ति की कमी से नहीं हो पा रही है। निर्माण उद्योग का भी हाल कुछ ऐसा ही है जहां ठीक ठाक इंजिनियर मिल पाना दुर्लभ होता जा रहा है।
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पंगेबाज की बात पर गौर फरमाये…..
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