कुछ दिनों पहले मैने एक पोस्ट लिखी थी – स्वार्थ लोक के नागरिक। उस पर श्री समीर लाल की टिप्पणी थी:
…याद है मुझे नैनी की भीषण रेल दुर्घटना. हमारे पड़ोसू परिवार के सज्जन भी उसी से आ रहे थे. सैकड़ों लोग मर गये मगर उनके बचने की खुशी में मोहल्ले में मिठाई बांटी गई…क्या कहें इसे स्वार्थ और उनके परिवार को समाज का नासूर??
इस पर मेरी पत्नीजी ने एक पोस्ट लिखी है। मैं उसे यथावत प्रस्तुत कर देता हूं:
![]() उसी नर्सिंग होम में तीसरे दिन एक मरणासन्न व्यक्ति भर्ती किया गया। वह बोहरा समाज का तीस वर्षीय युवक था और नर्सिंग होम के डाक्टर साहब का पारिवारिक मित्र भी। तीसरी मंजिल से वह गिर गया था और उसकी पसलियां टूट गयी थीं। शाम के समय वह भर्ती किया गया था। उसके परिवार और मित्रों का जमघट लगा था। परिवार की स्त्रियां बहुत रो रही थीं। इतनी भीड़ देख मैं हड़बड़ा कर नर्सिंग होम से रेस्ट हाउस चली गयी। रेस्ट हाउस जळगांव रेलवे स्टेशन पर था – नर्सिंग होम से ड़ेढ़ किलोमीटर दूर। रात में मैने दुस्वप्न देखा। एक भयानक आकृति का आदमी मेरे लड़के के बेड़ के नीचे दुबका है। मैं पूरी ताकत से एक देव तुल्य व्यक्ति पर चीख रही हूं – "यही आपकी सुरक्षा व्यवस्था है? आपके रहते यह जीव अंदर कैसे आया??" शायद मेरी चीख वास्तव में निकल गयी होगी। मेरी नींद टूट गयी थी। ज्ञान मेरे पास बैठे मेरा कंधा सहला रहे थे। बोले – "सो जाओ; परेशान होने से कुछ नहीं होगा।" मैं लेट गयी। पर नींद कोसों दूर थी। सुबह इधर उधर के कार्यों में अपने को व्यस्त रख रही थी। नर्सिंग होम नहीं गयी। मेरी सास मेरे साथ नर्सिंग होम जाने वाली थीं। जब बहुत देर तक मैं तैयार न हुई तो वे मुझ पर झल्ला पड़ीं। उन्होंने कुछ कहा और मेरी इन्द्रियां संज्ञा शून्य हो गयीं। मुझे लगा कि इन्हें नर्सिंग होम पंहुचा ही देना चाहिये। रेस्ट हाउस में ताला लगा कर बाहर निकले। कोई ट्रेन आ कर गयी थी। यात्रियों के बीच हम रास्ता बनाते निकल रहे थे कि परिचित आवाज आयी। देखा; दशरथ (हमारा चपरासी) दौड़ता हुआ आ रहा था। बोला – "मेम साहब अभी मत जायें; अभी नर्सिंग होम में बहुत भीड़ है।" उस समय; हर आशंका से ग्रस्त; मेरी धड़कन जैसे रुक गयी। रक्त प्रवाह जैसे थम गया। लड़खड़ाते हुये मैं एक दुकान के बाहर बेंच पर बैठ गयी। मुझे लगा कि मेरा बेटा नहीं रहा। मेरी दशा भांप कर दशरथ जल्दी से बोला – "मेम साहब वह बोहरा जो था न…" मेरे कानों ने बोहरा शब्द को ग्रहण किया। मेरा रक्त संचार पुन: लौटा। मुझे सुकून मिला कि मेरा बेटा जिन्दा है। अपनी सासजी का हाथ पकड़ कर मैं वापस रेस्ट हाउस में लौटी। सोचने लगी कि मेरा बेटा बच गया, हालांकि वह मरणासन्न है। पर जो गया, वह भी तो किसी का बेटा था। उसकी तो पत्नी और एक छोटा बच्चा भी था। यह कैसा स्वार्थ है?अपने स्वार्थ पर अकेले कमरे में मैं खूब रोई। समीर भाई की टिप्पणी में नैनी दुर्घटना में बचने पर लोगों के स्वार्थ प्रदर्शन की बात है। पर मैं जब भी अपने स्वार्थ और अपनी बेबसी की याद करती हूं तो आंखें भर आती हैं। शायद यही हमारी सीमायें हैं। |
फोटो रीता पाण्डेय की तब की है जब वे सुश्री रीता दुबे थीं।
मुझे गर्व है कि मै इस ब्लाग को पढने आता हू.. और कुछ नही कहना..
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हृदय स्पर्शी पोस्ट। गुरुदेव, घर के भीतर अनमोल निधि छिपी हुई है, यह तो आप पहले से जानते होंगे। फ़िर इसे दुनिया के सामने जाहिर करने में आपने शायद थोड़ी देर नहीं कर दी? खैर देर आयद, दुरुस्त आयद…जहाँ तक स्वार्थ की बात है यह RELATIVE ही होता है। मैने कहीं पढ़ा था कि विदेशी आक्रान्ताओं से बचकर मरुभूमि में भागती हुई माताओं ने गर्म बालू से जलते अपने पैरों को राहत देने के लिए अपने गोद के बच्चों को लिटाकर उसपर पैर रख लिए थे। क्या इससे मातृत्व लांछित हो गया?
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स्वार्थ का तो पता नहीं पर प्रेम, स्नेह, ममता तो ज्यादा है ही… शायद मेरी माँ भी यही करती.
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