शिवकुमार मिश्र की नयी दुर्योधन की डायरी वाली पोस्ट कल से परेशान कर रही है। और बहुत से टिप्पणी करने वालों ने वही प्रतिध्वनित भी किया है। दुर्योधन वर्तमान युग के हिसाब से घटनाओं का जो विश्लेषण कर रहा है और जो रिस्पॉन्स की सम्भावनायें प्रस्तुत कर रहा है – उसके अनुसार पाण्डव कूटनीति में कहीं पास ठहरते ही नहीं प्रतीत होते।
पर हम यह प्रिमाइस (premise – तर्क-आधार) मान कर चल रहे हैं कि पाण्डवों के और हृषीकेश के रिस्पॉन्स वही रहेंगे जो महाभारत कालीन थे। शायद आज कृष्ण आयें तो एक नये प्रकार का कूटनीति रोल-माडल प्रस्तुत करें। शायद पाण्डव धर्म के नारे के साथ बार बार टंकी पर न चढ़ें, और नये प्रकार से अपने पत्ते खेलें।
मेरे पास शिव की स्टायर-लेखन कला नहीं है। पर मैं कृष्ण-पाण्डव-द्रौपदी को आधुनिक युग में डायरी लिखते देखना चाहूंगा और यह नहीं चाहूंगा कि दुर्योधन इस युग की परिस्थितियों में हीरोत्व कॉर्नर कर ले जाये।
संजय बेगानीजी की बात से सहमत। जीतने वाला सच्चा ही कहलाता है। जीत सिर्फ ताकत की होती है, ताकत कभी सच के साथ हो सकती है कभी झूठ के साथ। बाकी यह ख्याली पुलाव है सत्यमेव जयते। पावरमेव जयते। जीत तो जी दुर्य़ोधन ही रहा है, हां अभी उसके नाम नये नये हैं। काम तो पुराने जैसे ही हैं।
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क्या बात करते हैं ! युग कोई भी हो… जिधर कृष्ण उधर जीत !रणनीति भी शायद वही चल जाय… शायद हम कृष्ण के तरीके से सोच ही नहीं पा रहे.
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युग चाहे कोई भी हो, जितने वाला ही सचा कहलाता है. पाण्डवों ने कौन-सा धर्म पर चल कर युद्ध जीता था? हर यौद्धा को बेईमानी से मरा था.यह बात सच है कि जीतने वाला ही इतिहास लिखता/लिखवाता है इसलिए वह हर बात को अपने नज़रिए से ही पेश करता है। परन्तु महाभारत के युद्ध की टाइमलाइन को यदि देखें तो युद्ध के नियम दोनों पक्षों ने तोड़े थे, किसी भी पक्ष ने स्वच्छ युद्ध नहीं किया था। :)वैसे भी कहते हैं ना “शठे शाठ्यम समाचरेत्”। जिन कौरवों ने आरम्भ से ही पांडवों के साथ छल किया उनको पांडवों से किसी भलाई की आशा तो रखनी ही नहीं चाहिए थी। 🙂
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साधारणतया दिखने में यह लगता है कि कुमार्गगामी ही विजयी हो रहा है.सदियों से देखने में आया है,रावण,शुम्भ निशुम्भ,महिसासुर हों या दुर्योधन,आरम्भ में जीतते ही प्रतीत होते हैं,पर होता यह है कि ईश्वर को जिसका नाश करना होता है उसे हर वो साधन उपलब्ध कराते हैं,जिसके बल पर वह अधर्म के मार्ग पर चल अपना पुण्य क्षय कर सके.लोगों के सम्मुख ईश्वर हमेशा से ही यह सत्य रखते आए हैं कि चाहे कितना भी शक्तिशाली क्यों न हो,अधर्मी,अत्याचारी का नाश होता ही है और सत्य की विजय होती ही है,भले समय कुछ अधिक लग जाए..दुर्योधन कितना भी चर्चित होगा ,सम्मानित और श्रद्धा का पत्र कभी नही हो पायेगा.सशरीर न सही पर जिसने भी उनके श्री चरणों में स्वयं को समर्पित कर दिया उनके विवेक रूप में कृष्ण अब भी इसी धरती पर विद्यमान हैं और सत्य के पथ पर चलने वालों के साथ हैं.. शायद न दिखे कि विजय सत्य की हुई है.पर सत्य पथ का अनुसरण कर जो संतोषधन प्राप्त होता है वह भी तो विजय ही है.
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लावण्या जी की बात से सहमत है ।
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देश काल और परिस्थितियों के हिसाब से नीतियाँ बदलती रहती हैं….निश्चित रूप से आज अगर महाभारत हो तो कृष्ण की चालें भी बदल जायेंगी!आज विरोधी गुटों की खरीद फरोख्त सबसे बड़ा हथियार होगा!
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.ईल्लेयो, अब सुन लो, गुरुवर की बातें ?अरे दुर-योद्धन लोगन का ही युग तो चलिये रहा है.. ..सफल असफल आपै तय करो,इस पोस्ट पर देखो कि प्रति घंटा ट्रैफ़िक की रफ़्तारक्या रही.. प्रतिमिनट टिप्पणियों की आवक में क्या उछाल भूचाल आया । आप ईहाँकाहे पूछ रहे हो ? सीवकुँवार भईय्या, कुछ देखे होंगे.. तबहिन तो दुर्योधन में निवेश कर रहे हैं ? वइसे ट्रैफ़िक आवक जावक के हिसाब से टपिकवा बड़ा सटीक है !
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कृष्ण, कृष्ण हैं. न भूतो न भविष्यति !जिधर कृष्ण, उधर विजय.प्रश्न) हाय दुर्योधन भइया. तुम इन्हें क्यों ना पटा सके?उत्तर) क्योंकि कृष्ण उधर ही होंगे, जिधर सत्य होगा.
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युग चाहे कोई भी हो, जितने वाला ही सचा कहलाता है. पाण्डवों ने कौन-सा धर्म पर चल कर युद्ध जीता था? हर यौद्धा को बेईमानी से मरा था.
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महाभारत के पात्र अगर आज होते तो उनकी नीतियों में परिवर्तन तो समय के हिसाब से होता ही. ये तो वैसे ही है जैसे आज का तथाकथित जागरूक वोटदाता नेता की फोटो देखते हुए ये सोचता है; ” अब हम जागरूक हो गए हैं. पहले जैसे मूर्ख नहीं रहे. आज हमारे पास सूचना है. तुम्हारे कर्मों, कुकर्मों की और सुकर्मों की. हमें बेवकूफ बनाना आसान काम नहीं.”वहीँ नेता भाषण देते हुए मंच पर खड़ा मन ही मन कहता है; “मुझे मालूम है कि तुम ‘जागरूक’ हो गए हो. तुम्हें हमारे कर्मों के बारे में पता है. माना कि तुम्हें बेवकूफ बनाना आसान नहीं लेकिन थोड़ी और मेहनत की जाए, तो असंभव भी नहीं है.”कृष्ण होते या विदुर, पितामह होते या द्रौपदी, सारे अपनी नीतियों में परिवर्तन कर लेते. लेकिन ये बात माननी ही पड़ेगी कि कमल और कीचड़ साथ-साथ रहते हैं. कमल जितना चाहे, कमल हो सकता है और कीचड़ कमल के कमलत्व में होती बढ़ोतरी को आंकते हुए अपना कीचडत्व भी उसी अनुपात में बढ़ाता जायेगा.
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