मेरे घर के आस-पास – शिवकुटी से गोविन्दपुर तक, छोटी-छोटी दुकानें बड़े जोश से खुलती हैं। किराने की दुकान, सब्जी की गुमटी, चाय समोसे की दुकान… खोलने वाले अपना फर्नीचर, शो-केस और उपकरण/सामान लगाते हैं। कटिया मार कर बिजली ले कर शाम को अपनी दुकान जगमग भी करते हैं।
कुछ दिन सन्नध हो कर बैठते हैं वे दुकानदार। ग्राहक की इन्तजार में ताकते हैं और ग्राहक को लुभाने का पूरा यत्न करते हैं। पर धीरे धीरे उनका फेटीग दिखाई देने लगता है। जितना समय वे दे रहे हैं, जितना पैसा उन्होंने लगाया है, जितनी आमदनी की अपेक्षा है – उसमें पटरी बैठती नजर नहीं आती। दुकान वीरान रहती है। फिर सामान कम होने लगता है। कुछ दिनों या कुछ महीनों में दुकान बन्द हो जाती है।
यह लगभग हर दुकान के साथ होता है। इक्का-दुक्का हैं जो खुली हैं और चल रही हैं। चलती जा रही हैं।
असल में पूरा परिवेश निम्न और निम्न मध्यवर्गीय है। हर आदमी जो यहां रह रहा है, अपने आर्थिक साधन कुछ न कुछ बढ़ाने की सोच रहा है। उसके लिये यह छोटी दुकान लगाना ही उपाय नजर आता है। थोड़ी बहुत पूंजी लगा कर दुकान प्रारम्भ की जाती है। पर जद्दोजहद ऐसी है कि दुकानें बहुत सी हो जाती हैं। और फिर, कुल मिला कर पूरे परिवेश में इस तरह के दुकान वाले, या उन जैसे ही उपभोक्ता हैं। इसलिये जितनी ग्राहकी की अपेक्षा होती है, वह पूरी होना सम्भव नहीं होता।
मुझे यह दुकानों का प्रॉलीफरेशन हिन्दी ब्लॉगरी जैसा लगता है। ज्यादातर एक प्रकार की दुकानें। पर, जब दुकानदार ही उपभोक्ता हों, तो वांछित ग्राहकी कहां से आये?
कटिया मार कर बिजली ले सजाई दुकानें। जल्दी खुलने और जल्दी बैठ जाने वाली दुकानें। हिन्दी ब्लॉगरीय अर्थव्यवस्था वाली दुकानें!
यह लिखने का ट्रिगर एक महिला की नयी दुकान से है। माथे पर टिकुली और मांग में बड़ी सी सिन्दूर की पट्टी है। विशुद्ध घर से बाहर न निकलने वाली की इमेज। महिला के चेहरे से नहीं लगता कि उसे कोई दुकान चलाने का पूर्व अनुभव है। वह अपना छोटा बच्चा अपनी गोद में लिये है। निश्चय ही बच्चा संभालने के लिये और कोई नहीं है। दुकान में विविधता के लिये उसने किराना के सामान के साथ थोडी सब्जी भी रख ली है। पर सब सामान जितना है, उतना ही है।
कितना दिन चलेगी उसकी दुकान? मैं मन ही मन उसका कुशल मनाता हूं; पर आश्वस्त नहीं हूं।
श्री नीरज रोहिल्ला के ताजा ई-मेल की बॉटम-लाइन:
एक धावक के लिये सबसे इम्पॉर्टेण्ट है; राइट जूता खरीदना।
जी हां; और उसके बाद लेफ्ट जूता खरीदना!
नोट: यहां "लेफ्ट" शब्द में कोई पन (pun – श्लेषोक्ति) ढ़ूंढ़ने का कृपया यत्न न करें।
तुलना तो ठीक पर बाजारी दुकान वालों के लिये दुकान रोजी-रोटी का सवाल है, ब्लॉगिंग की दुकान लगभग ९०% दुकानदारों के लिये समय काटने का साधन।नीरज की बदौलत जूते की दुकान वालों की चांदी होने वाली है।
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सही दुकानदारी है-हम तो जूता खरीदने जा रहे हैं-लेफ्ट वाला!!
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ज्ञानजी,मथुरा में जहाँ मेरा घर है वहाँ आज से १५-१६ साल पहले केवल घर हुआ करते थे लेकिन धीरे धीरे सभी लोगों ने अपने मकानों के अगले हिस्से को दुकानों में परिवर्तित कर दिया । अब १ किमी लम्बी सडक पर (दोनो तरफ़) केवल २-३ घर ऐसे हैं जिनमें दुकाने नहीं बनी हैं । उनमें से एक घर हमारा भी है । रोज सुबह पिताजी के पास लोग आते हैं कि खाली जमीन पडी है दुकाने बनवा दीजिये बहुत फ़ायदा रहेगा । और हमारे पिताजी अपनी समस्या हमारे सिर कर देते हैं कि बेटे की अभी नौकरी का कोई भरोसा नहीं है क्या पता परचूने की दुकान खोलनी पडे इसलिये जमीन बचा के रखी है ।उस एक किमी की सडक के आस पास आबादी मध्यमवर्गीय है, और वो सडक आस पास के इलाकों को मुख्य सडक से जोडती भी है इसके चलते बाजार ठीक ठाक चल जाता है । कुछ प्रकार की दुकानें अच्छी चलती हैं जैसे परचूने + पैकेज्ड फ़ूड की दुकानें । बाकी काम चला रहे हैं । अभी लगभग इंडिया शाइनिंग और टी.वी. चैनलों के विस्फ़ोट के दौर में “गिफ़्ट शाप” की दुकाने बहुत खुली थीं और खूब चली लेकिन अब उस प्रकार की ज्यादा दुकाने खुलने से बाजार मन्दा हो गया है । इस प्रकार की दुकानों के अधिकतर दुकानदार दिल्ली से सामान लाते हैं और मुनाफ़े का मार्जिन काफ़ी ज्यादा है ।कुछ लोगों की ठसक भी है, जो अभी गयी नहीं है । एक पडौसी अंकल हैं जिन्होने भी दुकान खोली है और अपने छोटे बेटे के साथ दुकान पर बैठते हैं । गिफ़्ट शाप/जनरल स्टोर/एस. टी. डी. की दुकान है और कुछ खास नहीं चल रही है । किसी ने सलाह दी होगी कि सुबह ब्रेड/बटर/जैम और दूध के पैकेट्स रखे जायें तो अच्छी रहेगा । लेकिन वो मुझसे मिले तो ठसक कर बोले कि लोग कैसी कैसी सलाह देते हैं कि दूध ब्रेड बेचना शुरू कर दो । मेरा मानना है कि आज दुकान/बिजनेस चलाने में भी दिमाग लगाना पडेगा । कुछ लोग हैं जिन्होने प्रयोग किये हैं और सफ़ल भी हुये हैं ।बाकी हम तो लेफ़्ट जूता पहले पहनते हैं, उसके बाद राईट जूते में घर की चाबी बांध के रखते हैं कि कहीं खो न जाये :-)इसमें श्लेष खोजते रहिये 🙂
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अजी अपने लिए तो लानती बात है, दुकान वगैरह चलाने की कोई समझ नहीं है अपने में, शायद इसलिए ब्लॉगिंग की दुकान भी अपनी नहीं चलती, बस ऐसे ही ठेले जा रहे हैं, ही ही ही!!
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मैं भी सोच रहा हूं कि कुछ दिन ग्राहक बन कर ही रहूं :)पिछली पोस्ट में आपने बिजनेस स्टैंडर्ड की चर्चा की है..यकीनन वह हिन्दी में इन दिनों सबसे अच्छा कारोबारी अखबार है। हमारे यहां वह अखबार एक दिन लेट आता है.. इसलिए उसे नेट पर ही पढ लेता हूं।
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क्रय -विक्रय समाज का एक सशक्त पहलू है ..मनुष्य की हर गतिविधि के साथ जुडा हुआ – दुकानदारी और जीवन दोनोँ कला हैँ !- लावण्या
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सच में कई बार सोचता हूँ रोज अपनी ख्वाहिशे मारते होगे ये लोग ? क्यों शहर में बलवा होने पर एक परिवार भूखा सो जाता होगा ?कैसे एक बंद .एक बारिश एक पूरे परिवार को बैचेन कर देती होगी ?ओर रही जूते ओर धावक पर बात …अगर याद रहा तो किसी पोस्ट में इसका जिक्र करूँगा …जूते पर एक फ़िल्म देखी थी …
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दुकान का तजुरवा तो नही लेकिन मेने देखा हे कि दुकान वाले बहुत ही मिठ्ठा बोलते हे, ओर अगर यह महिला मिठ्ठा बोलेगी तो , आप की दुया से उस की कटिया मार कर बिजली ले सजाई दुकान खुब चलेगी, बस बोल मिठ्ठे हो….कईओ ने तो वक्त बीताने के लिये भी दुकान खोली होती हे, बस इसी बहाने चार यार आये ओर बात हो जाये.धन्यवाद
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हमारी दुकान शायद कोने मैं है
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बहुत खूब। अब तो मैं भी जूते की दुकान खोजने निकल पडता हूं। अरे भई ब्लॉगिंग की दुनिया का मजबूत धावक बनने की अभिलाषा जो पाल रखी है।
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