मेरी पत्नीजी ने कबाड़ से मेरी एक स्क्रैप बुक ढूंढ़ निकाली है। उसमें सन १९९७ की कुछ पंक्तियां भी हैं।
यूं देखें तो ब्लॉग भी स्क्रैप बुक ही है। लिहाजा स्क्रैप बुक की चीज स्क्रैप बुक में –
आज सवेरा न जागे तो मत कहना दीवारों के कानों से छन जाये अफवाह अगर रेत के टीलों पर ऊंचे महल बनाने वालों मेरा देश चल रहा कछुये की रफ्तार पकड़ मैं नहीं जानता – कितनी पी, कितनी बाकी है बेसुरे गले से चीख रहे हैं लोग मगर इस सड़क पर चलना हो तो चलो शौक से — ज्ञान दत्त पाण्डेय, १३ अगस्त, १९९७, उदयपुर। |
और छन्द/मात्रायें/प्यूरिटी (purity – शुद्धता) की तलाश भी मत करना।
कोई प्रिटेंशन्स (pretensions – मुगालते) नहीं हैं उस दिशा में।
अरुणजी आप चाहे इसे कविता न समझें।हम भी इसे कविता न समझें यह मत कहना।आपका अमूल्य समय आपको मुबारक हो।हम अपना समय बरबाद न करें यह मत कहना।वाह विश्वनाथ जी, आप भी कविता करने लग गयेअब तो कहना पड़ेगा खरबूजे को देख खरबूजा रंग बदलता हैज्ञान की संगत ने हमें कवि नहीं बनाया ये मत कहना
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हाज़िरी लगाने में क्या जाता है,निट्ठल्ले ने हाज़िरी न लगाई, ये ना कहना
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