श्री अरविन्द को उधृत करते हुये रीता पाण्डेय ने लिखा:
किसी महत और दुरुह कार्य को सम्पन्न करने के लिये दो शक्तियां कार्य करती हैं। एक है दृढ़ और अटूट अभीप्सा और दूसरी है भाग्वतप्रसादरूपा मातृशक्ति। पहली मानव के प्रयत्न के रूप में नीचे से कार्य करती है और दूसरी ईश्वर की कृपा से सत्य और प्रकाश की दशा में ऊपर से सहायता करती मातृ शक्ति है।
और इस पर श्री अनुराग शर्मा (स्मार्ट इण्डियन) ने प्रस्थानत्रयी से उसके समकक्ष सूत्र निकाल कर रखा (यह भग्वद्गीता का अन्तिम श्लोक है):
यत्र योगेश्चर: कृष्णो, यत्र पार्थौ धनुर्धर:|
तत्र श्रीविजयो भूतिर्धुवा नीतिर्मतिर्मम॥
(हे राजन, जहां योगेश्वर भगवान श्रीकृष्ण हैं, और जहां गाण्डीव धनुर्धारी अर्जुन हैं, वहीं पर श्री, विजय, विभूति और अचल नीति है – ऐसा मेरा (संजय का) मत है।)
अद्भुत! अर्जुन मानवीय दृढ़ और अटूट अभीप्सा का प्रतीक है। और कृष्ण के माध्यम से डिवाइन ग्रेस का वरद हस्त मिल रहा है। फिर भला विजय कैसे न मिलेगी, दुरुह कार्य सम्पन्न कैसे न होगा!
भला हो! निमित्तमात्रं भव सव्यसाचिन! हम तो निमित्त बनें – पूर्ण सत्य और सरेण्डर की भावना के साथ। मन हो रहा है कि मानसिक हलचल जय, विजय, सत्य, समर्पण जैसे सद्गुणों पर ही हो सतत तो कितना शुभ हो! क्या जाने ईश्वर इसी दिशा में ही प्रेरित करें।
मुझे बताया गया कि दीपावली के दिन जो सूरन (जिमीकन्द) नहीं खाता वह अगले जन्म में छछूंदर पैदा होता है! लिहाजा हमने तो खाया। अपने बगीचे में ही बड़ा सा सूरन का बल्ब निकला था। खाया भी डरते डरते कि गला न काटने लगे। पर श्रीमती जी ने बहुत कुशलता से बनाया था। गला भी न काटा और छछुन्दर बनने से भी बचा लिया। आजकल पंकज अवधिया नहीं लिख रहे वर्ना जिमीकन्द और छछूंदर पर कुछ बताते।
आप में से कौन कौन छछूंदर बनेगा!
हमने अपना काम किया, अब भागवत्प्रसाद कैसे मिले? इसे पाने का क्या तरीक़ा है आपके हिसाब से?
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विचारणीय पोस्ट !
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आप यह भी बता दें कि क्या छछूंदर अपनी चोंच से इसे कुतर सकता है? ताकि अगले जन्म की चिन्ता थोड़ी कम हो। क्योंकि हमारा तो छछूंदर बनना तय करा दिया करवा दिया है आपने यह लिख कर।
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वाह! छछुन्दर बिक रहा है, सफलता की बोली ही न लग पा रही है! ‘बड़ें भाग मानुष तनु पावा। सुर दुर्लभ सब ग्रंथिन्ह गावा’ और आप हैं की एक सूरन को लेकर छछुन्दर बनाए दे रहे हैं. अब लोग छछुन्दर सोचेंगे की सफलता 🙂 वैसे हम भी छछुन्दर बनेंगे अब तो!
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चलिए हम तो छछूंदर बनने की तैयारी करते हैं । परन्तु यही बात दीवाली से पहले बता देते तो ?घुघूती बासूती
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सूरन छछूंदर वाली बात तो हम लोगों के यहाँ भी कही जाती है और इसीलिए दिवाली के दिन सूरन खाया जाता है ।और बाकि पूरे साल सूरन खाने की याद भी नही आती है । :)वैसे यहाँ गोवा मे तो लोग बारह मास सूरन खाते है ।मन हो रहा है कि मानसिक हलचल जय, विजय, सत्य, समर्पण जैसे सद्गुणों पर ही हो सतत तो कितना शुभ हो ।अच्छा विचार है ।
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वैसे तो हमने जिमिकंद खा लिया है , इसलिए अगले जन्म में छूछूंदर बनने का तो कोई सवाल नहीं है , पर दीपावलि से छठ तक हर छोटी छोटी वस्तुओं की भी जरूरत क्यों पड पड जाती है ,इस परंपरा का अर्थ जाने के लिए मैं चिंतन कर रही थी। मुझे लगा कि वह शायद इसलिए कि किसी के घर पर कोई भी वस्तु हो तो वह उसका अदल बदल कर आराम से त्यौहार मना सके। शायद आप हमसे सहमत न भी हों।
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सूरन हमें बहुत पसन्द है। काम की चीज़ है।खरीदकर आलू और प्याज़ के साथ टोकरी में रख दो, कई दिनों तक।फ़्रिज में रखने की ज़रूरत नहीं होती।तैंतीस साल तक शादी का अनुभव है मुझे और फ़लस्वरूप खाल गेंडे जैसा बन गया है और खुजली नहीं होती। लाभ उठाकर पत्नि सूरन छीलने और काटने का काम हमें सौंप देती है। बाद में मेज़ पर जमे मिट्टी साफ़ करने का काम सो अलग। लेकिन सबज़ी बढ़िया बनाती है। इतना स्वादिष्ट होता है की मेहनत से कतराता नहीं हूँ। और आपके ब्लॉग पढ़ने के बाद अतिरिक्त “बोनस” के तौर पर पता चला कि अगले ज्न्म में कभी छ्छूंदर नहीं बनूँगा।धन्यवाद।
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छछूंदर हिन्दी ब्लॉग जगत का प्रतीक है. लोग अपने आप को उसके साथ बेहतर आइडेंटीफाय कर पाते हैं, सो ताज्जुब नहीं कि ज्यादा आकर्षण का केन्द्र बन रहा है. कृष्ण-अर्जुन, जय-विजय, सत्य-समर्पण जैसी कठिन शब्दावली आमने आते ही अधिकतर तो सांप-छछूंदर की गति को प्राप्त हो लेते हैं.
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वाह! छछुन्दर बिक रहा है, सफलता की बोली ही न लग पा रही है!
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