जग्गू की गृहस्थी


एक गांव में एक जमींदार था। उसके कई नौकरों में जग्गू भी था। गांव से लगी बस्ती में, बाकी मजदूरों के साथ जग्गू भी अपने पांच लड़कों के साथ रहता था। जग्गू की पत्नी बहुत पहले गुजर गई थी। एक झोंपड़े में वह बच्चों को पाल रहा था। बच्चे बड़े होते गये और जमींदार के घर नौकरी में लगते गये।

सब मजदूरों को शाम को मजूरी मिलती। जग्गू और उसके लड़के चना और गुड़ लेते थे। चना भून कर गुड़ के साथ खा लेते थे।

बस्ती वालों ने जग्गू को बड़े लड़के की शादी कर देने की सलाह दी। उसकी शादी हो गई और कुछ दिन बाद गौना भी आ गया। उस दिन जग्गू की झोंपड़ी के सामने बड़ी बमचक मची। बहुत लोग इकठ्ठा हुये नई बहू देखने को। फिर धीरे धीरे भीड़ छंटी। आदमी काम पर चले गये। औरतें अपने अपने घर। जाते जाते एक बुढ़िया बहू से कहती गई – पास ही घर है। किसी चीज की जरूरत हो तो संकोच मत करना, आ जाना लेने।

रीता पाण्डेयकी लिखी पोस्ट। उनकी नानीजी की उनके बचपन में सुनाई कहानी है यह। और मैं यह दावे से कह सकता हूं कि इस कहानी ने रीता का व्यक्तित्व गढ़ने में काफी भूमिका निभाई है।
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आप रीता पाण्डेय सम्बन्धित पोस्टें रीता लेबल के लेखों के वर्गीकरण पर देख सकते हैं।

सबके जाने के बाद बहू ने घूंघट उठा कर अपनी ससुराल को देखा तो उसका कलेजा मुंह को आ गया। जर्जर सी झोंपड़ी, खूंटी पर टंगी कुछ पोटलियां और झोंपड़ी के बाहर बने छ चूल्हे (जग्गू और उसके सभी बच्चे अलग अलग चना भूनते थे)। बहू का मन हुआ कि उठे और सरपट अपने गांव भाग चले। पर अचानक उसे सोच कर धचका लगा – वहां कौन से नूर गड़े हैं। मां है नहीं। भाई भौजाई के राज में नौकरानी जैसी जिंदगी ही तो गुजारनी होगी। यह सोचते हुये वह पुक्का फाड़ रोने लगी। रोते रोते थक कर शान्त हुई। मन में कुछ सोचा। पड़ोसन के घर जा कर पूछा – अम्मां एक झाड़ू मिलेगा? बुढ़िया अम्मा ने झाड़ू, गोबर और मिट्टी दी। साथ में अपनी पोती को भेज दिया।jaggoo jhonpadee

वापस आ कर बहू ने एक चूल्हा छोड़ बाकी फोड़ दिये। सफाई कर गोबर-मिट्टी से झोंपड़ी और दुआर लीपा। फिर उसने सभी पोटलियों के चने एक साथ किये और अम्मा के घर जा कर चना पीसा। अम्मा ने उसे साग और चटनी भी दी। वापस आ कर बहू ने चने के आटे की रोटियां बनाई और इन्तजार करने लगी।

जग्गू और उसके लड़के जब लौटे तो एक ही चूल्हा देख भड़क गये। चिल्लाने लगे कि इसने तो आते ही सत्यानास कर दिया। अपने आदमी का छोड़ बाकी सब का चूल्हा फोड़ दिया। झगड़े की आवाज सुन बहू झोंपड़ी से निकली। बोली – आप लोग हाथ मुंह धो कर बैठिये, मैं खाना निकालती हूं। सब अचकचा गये! हाथ मुंह धो कर बैठे। बहू ने पत्तल पर खाना परोसा – रोटी, साग, चटनी। मुद्दत बाद उन्हें ऐसा खाना मिला था। खा कर अपनी अपनी कथरी ले वे सोने चले गये।

सुबह काम पर जाते समय बहू ने उन्हें एक एक रोटी और गुड़ दिया। चलते समय जग्गू से उसने पूछा – बाबूजी, मालिक आप लोगों को चना और गुड़ ही देता है क्या? जग्गू ने बताया कि मिलता तो सभी अन्न है पर वे चना-गुड़ ही लेते हैं। आसान रहता है खाने में। बहू ने समझाया कि सब अलग अलग प्रकार का अनाज लिया करें। देवर ने बताया कि उसका काम लकड़ी चीरना है। बहू ने उसे घर के ईंधन के लिये भी कुछ लकड़ी लाने को कहा।

बहू सब की मजूरी के अनाज से एक एक मुठ्ठी अन्न अलग रखती। उससे बनिये की दुकान से बाकी जरूरत की चीजें लाती। जग्गू की गृहस्थी धड़ल्ले से चल पड़ी। एक दिन सभी भाइयों और बाप ने तालाब की मिट्टी से झोंपड़ी के आगे बाड़ बनाया। बहू के गुण गांव में चर्चित होने लगे।

जमींदार तक यह बात पंहुची। वह कभी कभी बस्ती में आया करता था। आज वह जग्गू के घर उसकी बहू को आशीर्वाद देने आया। बहू ने पैर छू प्रणाम किया तो जमींदार ने उसे एक हार दिया। हार माथे से लगा बहू ने कहा कि मालिक यह हमारे किस काम आयेगा। इससे अच्छा होता कि मालिक हमें चार लाठी जमीन दिये होते झोंपड़ी के दायें बायें, तो एक कोठरी बन जाती। बहू की चतुराई पर जमींदार हंस पड़ा। बोला – ठीक, जमीन तो जग्गू को मिलेगी ही। यह हार तो तुम्हारा हुआ।

यह कहानी मेरी नानी मुझे सुनाती थीं। फिर हमें सीख देती थीं – औरत चाहे घर को स्वर्ग बना दे, चाहे नर्क! मुझे लगता है कि देश, समाज, और आदमी को औरत ही गढ़ती है।

— रीता पाण्डेय          


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Published by Gyan Dutt Pandey

Exploring village life. Past - managed train operations of IRlys in various senior posts. Spent idle time at River Ganges. Now reverse migrated to a village Vikrampur (Katka), Bhadohi, UP. Blog: https://gyandutt.com/ Facebook, Instagram and Twitter IDs: gyandutt Facebook Page: gyanfb

28 thoughts on “जग्गू की गृहस्थी

  1. प्रेरणादायक कथा है। सदिच्छा और सत्कर्म का मार्ग निष्कंटक होता है।

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  2. बहुत ही शिक्षाप्रद कहानी है….बचपन में किसी पाठ्यपुस्‍तक में पढ़ी थीरीता आंटी से शतप्रतिशत सहमत

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  3. रीताजी का लेखन बढ़िया से और बढ़िया होता जा रहा है । बधाई । कहानी बहुत अच्छी लगी ।घुघूती बासूती

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  4. औरत ही परिवार को स्वर्ग और नरक दोनों ही बना सकती है -यह आनुभूतिक यथार्थ है -अच्छी कथा रही !

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  5. अरे वाह रीता जी, नमस्कार, आप की पोस्ट तो हमेशा ही अच्छी होती है, लेकिन आज की पोस्ट बहुत ही अच्छी है,आप के लेख की तारीफ़ तो सब ने खुब की है, मै तो बस यही कहूगा कि हम युही नही नारी की पुजा करते , नारी ही तो जग जननी है,औरत चाहे घर को स्वर्ग बना दे, चाहे नर्क! मुझे लगता है कि देश, समाज, और आदमी को औरत ही गढ़ती है। बिलकुल सच् लिखा आप ने. धन्यवाद काश सब को जग्गु की बहु जेसी बहु सब को मिले,बहुत सुंदर लगा आज आप का विचार

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  6. बहुत बुरा लगता है जब भाई साब के ब्लॉग पर भाभी जी की रचना देखता हूँ .सोचता हूँ, इसका उल्टा क्यों नहीं हो सकता कि भाभी जी के ब्लॉग पर भाई साब लिखें . दावा है अलग ब्लॉग बना कर लिखेंगी तो ज्ञान जी कहीं नहीं ठहरेंगे आपके सामने . इनका लिखा आधे लोग तो समझ ही नहीं पाते . और आपने तो आम आदमी की बात लिखी है .

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  7. ज्ञान भाई !मैंने पहली बार रीता जी की पोस्ट पढी है, विश्वास नही हुआ, वे वास्तव में बहुत अच्छा लिखती हैं ! मेरा अनुरोध है कि इस विषय पर और लिखे और हो सके तो आपकी हलचल से अलग ब्लाग बना कर लिखें ! नानी की सीख आज भी सार्थक है और हजारों वर्ष सार्थक रहेगी ! अफ़सोस है कि पाश्चात्य सभ्यता का अनुकरण, पब्लिक स्कूलों की शिक्षा और ऐसी शिक्षा न देने वालों की, परिवारों में कमी के कारण हमारी बच्चियां शायद हमारी सामाजिक विरासत भूलती जा रही हैं !

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