फिर निकल आयी है शेल्फ से काशी का अस्सी । फिर चढ़ा है उस तरंग वाली भाषा का चस्का जिसे पढ़ने में ही लहर आती है मन में। इसका सस्वर वाचन संस्कारगत वर्जनाओं के कारण नहीं करता। लिहाजा लिखने में पहला अक्षर और फिर *** का प्रयोग।
शि*, इतनी वर्जनायें क्यों हैं जी! और ब्लॉग पर कौन फलाने की पत्नी के पिताजी (उर्फ ससुर) का वर्चस्व है! असल में गालियों का उद्दाम प्रवाह जिसमें गाली खाने वाला और देने वाला दोनो गदगद होते हैं, देखने को कम ही मिलता है। वह काशी का अस्सी में धारा प्रवाह दिखता है।
मेरा मित्र अरुणेंद्र ठसक कर ग्रामप्रधानी करता है। उसके कामों में गांव के लोगों का बीच-बचाव/समझौता/अलगौझी आदि भी करना आता है। एक दिन अपने चेले के साथ केवटाने में एक घर में अलगौझी (बंटवारा) करा कर लौटा। चेला है रामलाल। जहां अरुणेन्द्र खुद खड़ा नहीं हो सकता वहां रामलाल को आगे कर दिया जाता है – प्रधान जी के खासमखास के रूप में।
और रामलाल, अरुणेंद्र की शुद्ध भदोहिया भाषा में नहा रहा था – “भोस* के रामललवा, अलगौझी का चकरी चल गइल बा। अब अगला घर तोहरै हौ। तोर मादर** भाई ढ़ेर टिलटिला रहा है अलगौझी को। अगले हफ्ते दुआर दलान तोर होये और शामललवा के मिले भूंजी भांग का ठलुआ!” और रामलाल गदगद भाव से हाथ जोड़ खड़ा हो गया है। बिल्कुल देवस्तुति करने के पोज में। … यह प्रकरण मुझे जब जब याद आता है, काशीनाथ सिंह जी की भाषा याद आ जाती है। |
खैर कितना भी जोर लगायें, तोड़ मिलता नहीं काशी की अस्सी की तरंग का। और उसका दो परसेण्ट@ भी अपनी लेखनी में दम नहीं है।
फिर कभी यत्न करेंगे – “हरहर महादेव” के सम्पुट के रूप में सरलता से भोस* का जोड़ पाने की क्षमता अपने में विकसित करने के लिये।
पर यत्न? शायद अगले जन्म में हो पाये!
काशी का अस्सी पर मेरी पिछली पोस्ट यहां है। और इस पुस्तक के अंश का स्वाद अगर बिना *** के लेना हो तो आप यहां क्लिक कर पढ़ें।
@ – “दो परसेण्ट“? यह तो दम्भ हो गया! इस्तेमाल “एक परसेण्ट” का करना चाहिये था।
हां; प्रियंकर जी की पिछली पोस्ट पर की गयी टिप्पणी जोड़ना चाहूंगा –
कुछ मुहं ऐसे होते हैं जिनसे निकली गालियां भी अश्लील नहीं लगती . कुछ ऐसे होते हैं जिनका सामान्य सौजन्य भी अश्लीलता में आकंठ डूबा दिखता है . सो गालियों की अश्लीलता की कोई सपाट समीक्षा या परिभाषा नहीं हो सकती .
उनमें जो जबर्दस्त ‘इमोशनल कंटेंट’ होता है उसकी सम्यक समझ जरूरी है . गाली कई बार ताकतवर का विनोद होती है तो कई बार यह कमज़ोर और प्रताड़ित के आंसुओं की सहचरी भी होती है जो असहायता के बोध से उपजती है . कई बार यह प्रेमपूर्ण चुहल होती है तो कई बार मात्र निरर्थक तकियाकलाम .
काशानाथ सिंह (जिनके लेखन का मैं मुरीद हूं)के बहाने ही सही पर जब बात उठी है तो कहना चाहूंगा कि गालियों पर अकादमिक शोध होना चाहिए. ‘गालियों का उद्भव और विकास’, ‘गालियों का सामाजिक यथार्थ’, ‘गालियों का सांस्कृतिक महत्व’, ‘भविष्य की गालियां’ तथा ‘आधुनिक गालियों पर प्रौद्योगिकी का प्रभाव’आदि विषय इस दृष्टि से उपयुक्त साबित होंगे.
उसके बाद निश्चित रूप से एक ‘गालीकोश’ अथवा ‘बृहत गाली कोश’ तैयार करने की दिशा में भी सुधीजन सक्रिय होंगे .
ज्ञान जी, इस तरह की भाषा तो हर जगह पर बोली जाती है, लेकिन उसका साहित्य में इस्तेमाल नहीं होता.
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बढिया तमाशा देखा लकडी का ! 🙂 हमारे यहाँ तो ये सब रोटीराम बाटीराम है आज भी ! जाकी रही भावना जैसी , प्रभु मूरत देखी तिन तैसी ! बड़े सात्विक भाव से नित्य उच्चारण होता है ! किसी का ध्यान ही नही जाता की क्या बोल दिया ! निर्मल और पवित्र भाव से ये *** पानी की तरह प्रयोग होता है इस अंचल में ! और गुरुदेव समीर जी आते ही होंगे, जबलपुरिया स्टाईल के बारे वो ही बताएँगे !:)
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राम भजो…श्री राम भजो.
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इतनी शब्दाराधना के बाद ये अच्छा नहीं लगा -“पर यत्न? शायद अगले जन्म में हो पाये!”वचन की दृढ़ता के साथ मन की दृढ़ता ज्यादा भली होती है. फ़िर जब ‘ज्ञान जी’ की लेखनी ‘यत्न फ़िर कभी ‘ कह दे तो आश्चर्य तो होता ही है . मैं कह सकता हूँ कि ‘ज्ञान जी’ को भी ऐसी भाषा भली नहीं लगती, हाँ अर्धांगिनी बनारस की हैं तो शायद बात करनी पड़ गयी होगी ऐसी भाषा की. “असल में गालियों का उद्दाम प्रवाह जिसमें गाली खाने वाला और देने वाला दोनो गदगद होते हैं, देखने को कम ही मिलता है।”वस्तुतः वह केवल काशी के अस्सी में धाराप्रवाह दिख सकता है, अन्यत्र नहीं. ऐसा नहीं लगता कि यह भाषा मानकों से बहार की भाषा है . बहुत कुछ के लिए माफ़ करिएगा . क्षुद्र मति हूँ . हाँ, एक बात सकता हूँ, -“सवाल वस्ल पर उनको उदू का खौफ है इतना दबे होठों से देते हैं जवाब आहिस्ता-आहिस्ता . “
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क्या कहें इस पोस्ट का #######$$$$$$$$*********
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शुक्रिया कड़ी के लिए। हम बचपन से ही बिना *** के सब्ज़ियाँ खाने के आदी हैं। 🙂
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उस भाषा का इस्तेमाल कभी जरूरी भी है, जब आप वैसे पात्रों और वातावरण को जीवन्त कर रहे हों। लेकिन यह भी याद रखने की बात है कि साहित्य अनुकरण के लिए प्रेरित करता है। हम वैसे शब्दों को भाषा से हटाना चाहते हैं। यही कारण है कि साहित्य में उन का प्रयोग अत्यन्त सावधानी के साथ ही किया जा सकता है। काशी की भाषा भी सर्वत्र वैसी नहीं है। वरना वे अपने साहित्य के स्थान पर केवल उसी भाषा के लिए जाने जाते।
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हम भाषा की शालीनता छोड़ने वालों में नहीं, चाहे आप इस मामले में कुछ भी चुनें! अच्छा हुआ हमने इन्हें नहीं पढा वरना कई दिन तलक पेट ख़राब रहता शायद!
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……………sirf ro sakate hai aaj hush nahee sakte. Aap to fir bhi desh me hai, hum yaha videsh me kisase puchhe kyaa ho raha hai yeh?
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काशीनाथ सिंह जी की बेजोड भाषा के बारे में सुना खूब था, लेकिन स्वाद आज चख पाया। इसके लिए आपका बहुत बहुत आभार। मुझे भी भाषा का वही रूप भाता है जो बोलने में सहज हो। कोई भदेस या बोली कहकर नाक मुंह सिकोड़ता है तो सिकोड़ता रहे। ”न कोई सिंह, न पांड़े, न जादो, न राम ! सब गुरू ! जो पैदा भया, वह भी गुरू, जो मरा, वह भी गुरू !वर्गहीन समाज का सबसे बड़ा जनतन्त्र है यह” जब बात वर्गहीन समाज के जनतंत्र की हो रही हो तो भाषा का स्वरूप भी जनतांत्रिक ही होना चाहिए। न कि बात जनतंत्र की और भाषा परतंत्र की। इस पुस्तक की भाषा की यह खासियत लुभानेवाली है।
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