विकल्प क्या है?


कल बहुत सी पोस्टें मुम्बई के आतंकवादी हमले के संदर्भ में हिन्दी ब्लॉग जगत में थीं। बहुत क्षोभ, बहुत गुस्सा था। विगत के कुछ मामलों के चलते एटीएस के मारे गये अफसरों, कर्मियों के प्रति भी आदर भाव नहीं था कई पोस्टों में। एटीएस वाले जब किसी मामले में राजनैतिक दबाव में काम करते हैं, तो उसपर टिप्पणी की जा सकती है। पर जब  वे आतंक से भिड़ते जान खो बठें, तो उसका अनादर क्या सही है? देश के लिये जान दी है उन्होंने।

मुझे यह भी लगता है कि बटाला हाउस मामले की  तरह इस मामले में भी इण्टरेस्टेड लोग अंतत: आतंकवादियों के पक्ष में कहने के कुछ बिन्दु निकाल लेंगे। इसमें से एक आध आतंकवादी को दंगों का पीड़ित बता कर इस दुर्दान्त कार्रवाई को सॉफ्ट आउटलुक प्रदान किया जायेगा। (फलाने-फलाने ब्लॉग भी दस पंद्रह दिन बाद इस सॉफ्टीकरण वाली पोस्टें लिखने लगेंगे।) चुनाव समीप हैं, लिहाजा, अन्तत: वोट बैंक तोला जाने लगेगा।

इस प्रकार के काण्ड अनियमित रूप से नियमित हो गये हैं। और उनपर रिस्पॉन्स भी लगभग रुटीन से हो गये हैं। क्या किया जा सकता है?


इयत्ता पर श्री आलोक नन्दन जी को पिछले कुछ दिनों से पढ़ रहा हूं। बहुत बढ़िया लिखते हैं। (बढ़िया लेखन के मायने यह नहीं हैं कि उनसे सहमत ही हुआ जाये।) कल उन्होंने यदि सम्भव हो तो गेस्टापू बनाओ के नाम से एक पोस्ट लिखी। भारतीय स्टेट को मजबूत करने के लिये उन्होंने नात्सी जर्मनी के सीक्रेट पुलीस गेस्टापो (Gestapo) जैसे संगठन की आवश्यकता की बात कही है। पर हमारे देश में जिस प्रकार की निर्वाचन व्यवस्था है, उसमें निरंकुशता की बहुत सम्भावना बन जाती है और गेस्टापो का दुरुपयोग होने के चांस ज्यादा हो जाते हैं। क्या इस एक्स्ट्रीम स्टेप से काम चल सकता है?

Indira Gandhiमुझे मालुम नहीं, और मैं दूर तक सोच भी नहीं पाता। शायद ऐसी दशा रहे तो गेस्टापो बन ही जाये! प्रधानमन्त्री जी फेडरल इन्वेस्टिगेशन अथॉरिटी की बात कर रहे हैं जो पूरे सामंजस्य से आतंक से लड़ेगी। क्या होगी वह?

श्रीमती इन्दिरा गांधी नहीं हैं। उनके जीते मैं उनका प्रशंसक नहीं था। पर आज चयन करना हो तो बतौर प्रधानमंत्री मेरी पहली पसंद होंगी वे।  रवि म्हात्रे की हत्या किये जाने पर उन्होंने मकबूल बट्ट को फांसी देने में देर नहीं की थी। अभी तो बहुत लकवाग्रस्त दिखता है परिदृष्य।


क्या किया जाना चाहिये? कल मैने एक आम आदमी से पूछा। उसका जवाब था (शब्द कुछ बदल दिये हैं) – “लतियाये बहुत समय हो गया। विशिष्ट अंग में पर्याप्त दूरी तक डण्डा फिट करना चाहिये। बस।” इतना लठ्ठमार जवाब था कि मैं आगे न पूछ पाया कि किसका विशिष्ट अंग और कौन सा डण्डा? उस जवाब में इतना गुस्सा और इतना नैराश्य था कि अन्दाज लगाना कठिन है। 


Published by Gyan Dutt Pandey

Exploring village life. Past - managed train operations of IRlys in various senior posts. Spent idle time at River Ganges. Now reverse migrated to a village Vikrampur (Katka), Bhadohi, UP. Blog: https://gyandutt.com/ Facebook, Instagram and Twitter IDs: gyandutt Facebook Page: gyanfb

30 thoughts on “विकल्प क्या है?

  1. सच कहते हैं आप ये सब आतंक वादी गतिविधियाँ और उन पर हमारी प्रतिक्रियाएं बहुत रूटीन हो चुकी हैं…हम इस सब के आदि हो गए हैं…ये ऐसे हो गया है जैसे शरीर में कहीं खुजली हुई और हमने खुजला लिया…हिसाब बराबर…खुजली का इलाज सोचने का वक्त है अब…वरना खून टपकने में देर नहीं लगेगी खुजली से….नीरज

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  2. इस मुल्क में सिवाय आस्तिक होने के और कोई रास्ता नहीं है। राम भरोसे मामला है। शिवराजजी,मनमोहनजी ये लोग तो जोकर या घिसे पिटे रिकार्ड से भी बदतर हो गये हैं। इनके बूते का कुछ है नहीं। अगले हमले का इंतजार कीजिये। और अपनी कुंडली देखकर घर से निकलिये, अगर मरने का योग है, तो समझिये कहीं आतंकवादी बम आपका इंतजार कर रहा है। बहुत जल्दी किसी कोने से यह मांग होने लगेगी कि ताज होटल में आतंकवादियों को मारने वाले कमांडोज की जुडिशियल जांच की जाये, उन्होने आतंकवादियों को पहले से सैट एनकाऊंटर में मारा है। लोकसभा चुनावों में वोट चाहिए, तो इस तरह की मांग अभी से कर दी जानी चाहिए। चलिए अगले बम धमाकों का इंतजार करें। पीएम, होम मिनिस्टर की प्रतिक्रिया अभी से जानते हैं, 8979873987937 बार हो चुकी हैं।

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  3. “जब वे आतंक से भिड़ते जान खो बठें, तो उसका अनादर क्या सही है? देश के लिये जान दी है उन्होंने।”कई लोगों का नैतिक पतन इतना अधिक हो चुका है कि उनको सहीगलत की पहचान नहीं है.वे लोग जो शहीद हुए हैं उनके भी परिवार (बीबीबच्चे) हैं हम सबके समान. लेकिन देश की सुरक्षा की खातिर वे चल बसे. हमें तो हमेशा हमेशा उनका आभारी होना चाहिये.सस्नेह — शास्त्री

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  4. जो शहीदों का आदर नही कर सकते उनके बारे में कुछ कहना ही बेकार है.आपकी यह आशंका हमें सही नही नजर आ रही है कि कुछ लोग आतंकियों के पक्ष में बात निकाल लेंगे यह खुला हिन्दुस्तान पर हमला है और जिनमें हिंदुस्तानियत नाम की चीज होगी वो इन आतंकियों का समर्थन नही कर सकते हैं. ये युद्ध है युद्ध में एकजुटता की जरुरत होती है. जहाँ तक इंदिरा के होने न होने की है तो हम तो आपातकाल के समय तक जन्मे नही थे पर बड़ों से सुना है आपातकाल इतना बुरा भी नही था जितना बताया जाता है .

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  5. अपनी एक जुटता का परिचय दे रहा हैं हिन्दी ब्लॉग समाज । आप भी इस चित्र को डाले और अपने आक्रोश को व्यक्त करे । ये चित्र हमारे शोक का नहीं हमारे आक्रोश का प्रतीक हैं । आप भी साथ दे । जितने ब्लॉग पर हो सके इस चित्र को लगाए । ये चित्र हमारी कमजोरी का नहीं , हमारे विलाप का नहीं हमारे क्रोध और आक्रोश का प्रतीक हैं । आईये अपने तिरंगे को भी याद करे और याद रखे की देश हमारा हैं ।

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  6. जो मुझे कहना था वो विवेक भाई ने कह दिया,., उनकी टिप्‍पणी को मेरी भी टिप्‍पणी समझे

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  7. रे रोक युधिष्ठिर को ना यहां,जाने दे उसको स्वर्ग धीर..लौटा दे हमें गांडीव-गदा,लौटा दे अर्जुन-भीम वीर..

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  8. “श्रीमती इन्दिरा गांधी नहीं हैं। उनके जीते मैं उनका प्रशंसक नहीं था। पर आज चयन करना हो तो बतौर प्रधानमंत्री मेरी पहली पसंद होंगी वे।”जिसने भी ईमर्जेंसी का का समय देखा है वो कभी भी श्रीमती गांधी का प्रशंसक उसके बाद नही रहा ! ईमर्जेंसी इंदिराजी की निजी आवश्यकता का परिणाम थी ! और उसके बाद उनको सत्ता भी गंवानी पडी ! लेकिन बाद में उनके घोर आलोचकों ने भी उनका समर्थन किया ! क्योंकि जिस डिसिप्लिन की एक नागरिक के नाते जरुरत होती है वो अपने आप ही सबमे आगया ! भले ही वो डंडे की वजह से था ! वो एक सक्सेसफुल एक्सपेरिमेंट हो चुका ! आज अविलम्ब जरुरत है ! एक तरफ हम इन आतंकी घटनाओं को युद्ध की संज्ञा दे रहे हैं ! सब जगह ” आज भारत पर हमला हुआ है ” की रट है तो क्यों नही युद्ध में लगाए जाने वाला कानून आप लागू कर रहे हो ? लगाईये इमरजेंसी और चंद सिरफिरों को टांग दीजिये ! वापस सुख शान्ति आजायेगी ! अगर ये भी सम्भव नही तो अमेरिका जैसे होमलैंड कानून की तरह का कुछ तो किया ही जाना चाहिए ! निहायत ही उस s

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