सृजन की प्रक्रिया धीमी और श्रमसाध्य होती है। और जो भी धीमा और श्रमसाध्य होता है उसमें ऊब होती है। पहले की पीढ़ियां ऊब को झेल कर भी कार्यरत रहने में सक्षम थीं। पर आजकल लोग ऊब से डरते हैं। नौजवानों को अकेलेपन से डर लगता है। उन्हें पुस्तकालय में समय काटना हो तो वे "बोर" हो जाते हैं। यह बोर का इतना आतंक है कि वह भाषा में अत्यन्त प्रचलित शब्द हो गया है। वर्तमान पीढ़ी शायद जिस चीज से सबसे ज्यादा भयभीत है वह परमाणु बम, कैंसर या एड्स नहीं, ऊब है। जीवन में शोर, तेजी, सनसनी, मौज-मस्ती, हंगामा, उत्तेजना, हिंसा और थ्रिल चाहिये। आज ऊब कोई सह नहीं सकता।
पर वह समाज जो केवल उत्तेजना चाहता हो और ऊब से घबराता हो, वह कभी महान नहीं हो सकता। कोई भी क्लासिक पुस्तक शुरू से अंत तक कभी भी रोचक/रोमांचक/उत्तेजनापूर्ण नहीं हो सकती। उसमें नीरस और ऊबाऊ अंश अवश्य होंगे। अगर वेदव्यास आज महाभारत का बेस्टसेलर लिख रहे होते तो युद्धपूर्व के दृष्य, शकुनि की चालें, दुर्योधन की डींगे और भीष्म की दुविधा पर तो रोचक उपन्यास रचते पर कृष्ण का उपदेश वे एक-आध पेज में समेट देते। यह उपन्यास साल-छ महीने बेस्ट-सेलर रहता। फिर उसका अस्तित्व कहां रहता?
प्रेम, शान्ति, प्रसन्नता, सफलता और महानता आदि अच्छी बातें श्रम साध्य हैं। और सभी श्रमसाध्य ध्येय कुछ सीमा तक नीरसता और ऊब झेलने की मांग करते हैं। हम वह ऊब झेलने की बजाय अगर पलायन के रास्ते ढूढेंगे तो भी ऊब से बच नहीं पायेंगे। |
महापुरुषों के जीवन के अधिकांश भाग ढीले-ढाले, साधारण और ऊबाऊ होते हैं। असल में महानता के लिये किया जाने वाला कार्य इतना कष्ट साध्य व परिश्रम वाला होता है कि वह ऊबाऊ बने बगैर नहीं रह सकता। आज तो व्यक्ति नहीं, व्यक्तित्व चमकाने की पुस्तकें और नुस्खे मिलते हैं।
बर्ट्रेण्ड रसेल अपनी पुस्तक "द कॉनक्वेस्ट ऑफ हैप्पीनेस" (सुख का अभियान) में कहते हैं – “जो पीढ़ी ऊब सहन नहीं कर सकती वह तुच्छ व्यक्तियों की पीढ़ी होगी। इस पीढ़ी को प्रकृति की धीमी प्रक्रियाओं से कुछ भी लेना देना न होगा।”
ऊब से बहुत से लोग फट पड़ते हैं। उससे उबरने को और कुछ नहीं तो कलह-झगड़ा करते हैं। दुनियां की कई लड़ाइयों के मूल में ऊब होगी। कई अताताइयों के किये नरसंहार के मूल में ऊब ही है।
आज की पीढ़ी ऊब से बचने को कहां भाग रही है? जो लोग बोर होने से बचने का उपक्रम करते हैं, वे अन्तत: बोर ही होते हैं।
प्रेम, शान्ति, प्रसन्नता, सफलता और महानता आदि अच्छी बातें श्रम साध्य हैं। और सभी श्रमसाध्य ध्येय कुछ सीमा तक नीरसता और ऊब झेलने की मांग करते हैं। हम वह ऊब झेलने की बजाय अगर पलायन के रास्ते ढूढेंगे तो भी ऊब से बच नहीं पायेंगे। पर उस समय जो ऊब हमें जकड़ेगी वह अशुभ और अनिष्टकारी होगी। इसलिये बेहतर है कि हम ऊब को शुभ व उचित मानकर अपने जीवन में आदर का स्थान दें।
धूमिल की एक लम्बी कविता "पटकथा" की पंक्तिया हैं –
"वक्त आ गया है कि तुम उठो
और अपनी ऊब को आकार दो।"
सफल वही होंगे जो ऊब से डरेंगे नहीं, ऊब को आकार देंगे।
काफी संजीदगी से आप अपने ब्लॉग पर विचारों को रखते हैं.यहाँ पर आकर अच्छा लगा. कभी मेरे ब्लॉग पर भी आयें. ”युवा” ब्लॉग युवाओं से जुड़े मुद्दों पर अभिव्यक्तियों को सार्थक रूप देने के लिए है. यह ब्लॉग सभी के लिए खुला है. यदि आप भी इस ब्लॉग पर अपनी युवा-अभिव्यक्तियों को प्रकाशित करना चाहते हैं, तो amitky86@rediffmail.com पर ई-मेल कर सकते हैं. आपकी अभिव्यक्तियाँ कविता, कहानी, लेख, लघुकथा, वैचारिकी, चित्र इत्यादि किसी भी रूप में हो सकती हैं……नव-वर्ष-२००९ की शुभकामनाओं सहित !!!!
LikeLike
पढ़ा.. और गजब, ऊबा भी नहीं..
LikeLike
विलंब से यहाँ पहुँचा। काफी कुछ लिखा जा चुका है।यह तो सही है कि प्रेम, शान्ति, प्रसन्नता, सफलता और महानता आदि अच्छी बातें श्रम साध्य हैं और सृजन की प्रक्रिया धीमी और श्रमसाध्य होती है। बाज़ारवाद के चलते, जिन्हें (आभासी) प्रेम, प्रसन्नता, सफलता, महानता मिल जाती है वे कथित बोरियत से दो-चार नहीं होंगे, यह कैसे सम्भव है? फिर इसी बोरियत के चलते कदम बढ़ जाते हैं एक और मृग तृष्णा की ओर।’जो ज्यादा सक्रिय है, उसमें ऊब कम ही होगी’ की सोच रखने वाले ब्र्ह्मांड के एक मुख्य आयाम, समय को सामने रख कर देखें। अनंत अंतरिक्ष में लम्बे समय तक, वास्तविक रूप से सक्रिय रहने वाले मानव भी ऊब जाते हैं। किसी विषय पर, स्कूल-कॉलेज में सामान्यतया: 40 मिनट का ही समयखण्ड क्यों निर्धारित किया गया है? यह भी सोचें। क्यों नहीं सीधे-सीधे इसे एक घंटा रखा गया, आखिर उससे ऊब कम होगी!ऊब और दूब की बात की जाये तो दूब अगर ज्यादा सक्रिता दिखाये या समय का ध्यान न रखे तो बाँस बन जाती है। फिर शीतलता का अनुभव कैसे होगा?ऊब कहती है, नए की ओर चलो। उसकी आवाज सुन कर पता नहीं कितने टीवी चैनल खुलते चले जा रहे हैं, वाहनों की गति बढ़ते चले जा रही है। विवाहेत्तर संबंध बढ़ रहे हैं। साथ ही साथ ऊब भी बढ़ते जा रही है!यह सच है कि सृजन की प्रकिया यदि दबाव में हो तो ऊबाऊ हो सकती है। यदि उस प्रक्रिया में स्वयं का चित्त/ हित भी संलग्न है फ़िर इसके ऊबाऊ होने में संदेह है। लेकिन आक्रामक बाज़ारवाद, तैयारशुदा माल परोसकर आपको कुटीर उद्योग जैसा सृजन करने से रोकता है।नई पीढ़ी भी ख्वाब देखती है और उसे पूरा करने की जद्दोजहद भी करती है। ख्वाब रह्ते हैं उपलब्ध संसाधनो, साधनों, उत्पादों का अधिकाधिक उपभोग करने के और जद्दोजहद पीढ़ी-दर-पीढ़ी गुणात्मक होते जा रही है।किसी बच्चे को कागज की नाव बनाकर पानी में बहाते हुए देखिये, उसे किसी अनजानी मंज़िल तक पहुँचाने के दौर में उसे कोई ऊब नहीं होती।ज़रा सोचिए, क्या जानवर कभी बोर होता है?क्या ग़रीब आदमी कभी बोर होता है? उन्हे जीने की कला आती है। इसीलिये आजकल, इनसे इतर, ऊबाऊ व्यक्तियों के लिए ‘आर्ट ऑफ लिविंग’ आंदोलन चल पड़ा है:-)असहमति जताने वाले कहते हैं कि हमारी पीढ़ी पीती है-पढ़ती है-करती है-सुनती है-जानती है-देखती है आदि आदि। यह सब वह सेकेंड पर्सन बनकर (उपभोग) करती है। फर्स्ट पर्सन बन अन्य को पिलाने-पढ़ाने-कराने-सुनाने-ज्ञान देने-दिखाने जैसा कार्य करने वाली पीढ़ी कहाँ है। (यहाँ मिडिलमैन की बात नहीं है)आप सीडी-डीवीडी प्लेयर पर गाने सुनकर तो बोर हो जायेंगे, लेकिन रेडियो सुनकर नही। क्योंकि आपको मालूम नहीं आने वाला गाना कौन सा है। तात्पर्य यह कि जहाँ सबकुछ सुनिश्चित है, वहाँ ऊब होगी ही, जहाँ अनिश्चितता है वहाँ संशय-भय-उत्सुकता-पूर्णता की लालसा के कारण सक्रियता बनी रहेगी, संतृप्त होते तक।
LikeLike
एक बार पूर्व राष्ट्रपति एवं दर्शनशास्त्र के अध्येता ड़ा०राधाकॄष्णन से किसीनें प्रश्न किया कि आप इतना पढ़ते हैं थकते या ऊबते नहीं हैं?उत्तर था अवश्य थकता हूँ और ऎसा लगनें पर गंभीर से कोई कम गंभीर विषय की पुस्तक पढनें लगता हूँ।पढ़ना उनका ‘स्वभाव’ था।थकना,ऊबना एक स्वाभाविक प्रक्रिया है।वस्तुतः रूचि से भिन्न, प्रकृति विरुद्ध कर्म में ऊब अन्तर्निहित रहती है।धैर्य छोड़्ते ही ऊब प्रकट हो जाती है।ऊब की पराकाष्ठा चिढ़,भय और पलायन है।
LikeLike
कमाल की पोस्ट लिखी है.. बहुत खूब!
LikeLike
‘असल में महानता के लिये किया जाने वाला कार्य इतना कष्ट साध्य व परिश्रम वाला होता है कि वह ऊबाऊ बने बगैर नहीं रह सकता ।’ और,’जो लोग बोर होने से बचने का उपक्रम करते हैं, वे अन्तत: बोर ही होते हैं ।’ और,’सफल वही होंगे जो ऊब से डरेंगे नहीं, ऊब को आकार देंगे ।’आपने समस्या, कारण और निदान – तीनों ही प्रस्तुत किए । मैं तो आपसे सहमत हूं । असफलता ही सफलता हेतु प्रेरित करती है और ध्वंस ही निर्माण के लिए जमीन तैयार करता है ।
LikeLike
आजकल के लोग ऊब से डरते हैं या उन्हें ऊबने से डराया जा रहा है….आजकल ऊबने से बचने के तरीकों का बहुत बड़ा बाजार है….बोर हो रहे हैं तो मूवी देख लो, उससे बोर हो गए तो कंप्यूटर पे गेम खेल लो, वह भी बोरिंग हो जाए तो तेज स्पीड बाइक पे निकल लो, नहीं तो एक शानदार मोबाइल ले लो और उसी में गिटपिट करते रहो, सरजी लोगों का बोर होना बहुत जरूरी है बाजार के लिए, बच्चा जब एक खिलौने से बोर हो जाता है तो उसे नया खिलौना चाहिए….इस तरह की एक पूरी पीढ़ी तैयार की जा रही है…..थ्रिल, रोमांच ये क्षणिक चीजें हैं पर ये बाजार के लिए जरूरी हैं….अभी मल्टीप्लेक्स से एक्शन मूवी देखकर निकले हैं पर मजा नहीं आ रहा है तो एक एक तकीला लगाई जाए….उसके बाद भी मजा नहीं आया तो बाइक पर रेस लड़ाई जाए…खैर अपना अपना अनुभव है मैं कभी ऐसे रोमांचों में नहीं फंसा या कहें फंस नहीं पाया….पर कुल मिलाकर बाजार के चलते रहने के लिए वर्तमान पीढ़ी में ये सब चीजें जरूरी हैं
LikeLike
With All Due Respect:मैं असहमत हूँ। हमारी नौजवान पीढी अगर पब्स में बैठकर हुक्का पीती है, तो काफ़ी हाउस में बैठकर कोई नोवेल भी पढ़ती है, योग भी करती है, आध्यात्म भी पढ़ती है। हमारी नौजवान पीढी, जगजीत सिंह और गुलज़ार को सुनती है और नोरा जोन्स को भी। वो बोर होती है, ऊबती है लेकिन ये बोरियत उसे बनाती है न की बिगड़ती है। हो सकता है धैर्य कम हो लेकिन जोश हमेशा से ही ज्यादा है, ये वो पीढी है जो टेस्ट क्रिकेट में भी उतना ही विस्वास करती है, जितना २०-२० में। ये पीढी अपना बेस्ट करने में विस्वास करती है, चाहे बेस्ट करने के बाद इसे हार मिले। ये पीढी ग्लोबल है, और राजनीती समझती है। ये चाणक्य को नहीं जानती, लेकिन राज ठाकरे और अमर सिंह को अच्छे से समझती है। ये बॉम्बे और दिल्ली की सड़कों पर प्रोटेस्ट करती है, ब्लॉग वर्ल्ड को हिला देती है। ये पीढी अगैय को भी जानती है, और चेखव को भी। ये पीढी ३ घंटे की bollyood मूवी भी देखती है और छोटी इंग्लिश मूवी भी। ये पीढी ऊबती है क्यूंकि इसके सपने बहुत बड़े हैं, इस पीढी को फैलाव चहिये। और जब ये ऊबती है, तो खुशी के बहने ढूंढती है। और जब खुशी मिलती तो ये उसे जीती है, अच्छे से। सब रस्मो रिवाज़ भूलकर।लग राह है कुछ ज्यादा लिख दिया। कुछ भी उल्टा सीधा लिखा हो क्षमा….छोटा सोंचकर माफ़ कर दीजियेगा.
LikeLike
एक और बात तो कहना भूल गया।1960 की बात याद दिलाना चाहता हूँ।Hippies कौन थे?ये वही अमरीकी युवा नागरिक थे जिनके पास सब कुछ होते हुए ज़िन्दगी से उबने लगे थे।क्या किसीको उन लोगों से सहानुभूति थी?
LikeLike
ऊब? और इस पीढी में ?टीवी, डीवीडी, सिनेमा, इंटरनेट, रेडियो, किताबें, अखबार, पत्रिकाओं के ज़माने में ऊब?परिवार के सदस्यों, दोस्तों से बातचीत, फोन पर बातचीत, पत्र लेखन वगैरह के रहते हुए क्या आज के ज़माने में कोई ऊब सकता है?समाज सेवा में लग जाओ।ब्लॉग लिखो या पढ़ो।खेल खूद में लग जाओ।व्यायाम, योग, प्राणायम में लग जाओ।यदि फिर भी बोर होते हो तो लेटकर सो जाओ।ज़रा सोचिए, क्या जानवर कभी बोर होता है?क्या ग़रीब आदमी कभी बोर होता है?There is really no excuse or reason for boredom today.If you are still bored, you have only yourself to blame.Let us not waste sympathy on those who are bored today.
LikeLike