मैं अपनी पत्नीजी को लेकर अस्पताल गया था। रीढ़ की हड्डी मे दर्द के लिये डाक्टर साहब ने एक्स-रे, सिंकाई और फिजियोथेरपी का निर्देश दिया था। एक्स-रे सामान्य था। सिंकाई दस दिन करानी है और फिजियोथेरपी का पालन करना है।
मैने अस्पताल में कई लोगों को फिजियोथेरपी की विभिन्न क्रियायें करते देखा। अधिकतर अधेड़ और वृद्ध लोग थे। उनके अंग ठीक से काम नहीं कर रहे थे। पर कुछ जवानों को भी उस खण्ड में व्यायाम करते और लाइन में लगे पाया।
लोग पैदल नहीं चलते। साइकल का प्रयोग नहीं करते। कम्प्यूटर के सामने ज्यादा समय बिताते हैं। स्त्रियां सिल-बट्टे और चकरी-जांत की बजाय मिक्सी का प्रयोग करती हैं। आंगन दुआर नहीं लीपना होता। सवेरे दरवाजे पर अल्पना-रंगोली नहीं बनानी होती। हठयोग के आसन का शौकिया प्रयोग होता है – या नये साल के रिजॉल्यूशन का अंग भर बन जाते हैं वे। लिहाजा डाक्टर की शरण में जाने पर फिजियोथेरपी के रूप में अंग संचालन की क्रियायें करनी होती हैं।
क्या हमारी सामान्य जिन्दगी में अंगों का प्रयोग कम हो गया है, जिसके चलते क्लिनिकल तरीके से फिजियोथेरपी जरूरी होती जा रही है?
क्या नहीं ठीक हो सकता फिजियोथेरपी से! अस्थमा, कमर का दर्द, हृदय रोग, गठिया, मानसिक रोग, अल्सर, हड्डी का टूटना … अनेक अवस्थाओं में यह लाभकारी है। स्पॉण्डिलाइटिस के मामले में मेरे लिये तो ट्रेक्शन और फिजियोथेरपी ही निदान है।
भौतिक, मानसिक, सामाजिक और समग्र स्वास्थ्य के लिये फिजियोथेरपी आवश्यक (और कुछ दशाओं में केवल) उपचार है। पर शायद उससे अधिक जरूरी है कि हम और एक्टिव बनें – उससे ज्यादा, जितने अभी हैं।
समझ नहीं आता कि लोग अपने ब्लॉग पर राइट-क्लिक बाधित कर क्या हासिल करते हैं? उनके ब्लॉग की फुल फीड अगर मिलती है तो पोस्ट का सारा कण्टेण्ट कापी हो सकता है! और अगर फीड नहीं देते तो कितने लोग जायेंगे उन तक! और सामान्यत: उनके ब्लॉग की फुल फीड, फीड-रीडर में मिल रही है!
एक बार आपने मॉर्निंग वॉक पर पोस्ट लिखकर सेहत के बारे में सचेत रहने के लिये प्रेरित किया था. तीन दिन तक बराबर असर रहा था. आज फ़िर फ़िज़ियोथेरेपी की चर्चा कर डरा दिया है. कल से मेहनत शुरू.राइट क्लिक डिसेबल करना औचित्यहीन है. चिठ्ठे को लाभ से अधिक हानि ही करता है.
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राइट क्लिक बाधित करके मानसिक संतोष मिलता होगा
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आपकी चिँताएँ जायज हैँ और आशा है आपको स्वास्थ्य लाभ हुआ होगा लावण्या
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यही मैं भी कई दिनों से सोच रहा था. एक ज़माना था जब १५-२० किलोमीटर सायकिल रोज़ चला लेता था. आज इतना कार भी चलाओ तो थकान होने लगती है.
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सत्य वचन महाराज, बाडी को काम करने की वजहें कम हैं। सब कुछ होम डिलीवरी, ऐसी सूरत में बाडी क्या करे। फिजियोथिरेपी का ही सहारा है। फिजियोथिरेपिस्टों को नयी पीढ़ी से घणी उम्मीदें हैं। नौजवानों को टेशन का मूल कारण यह है कि बंदा अब जीवनजीने में कम, माल समेटने में ज्यादा जुट गया है।
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“लोग पैदल नहीं चलते। साइकल का प्रयोग नहीं करते। कम्प्यूटर के सामने ज्यादा समय बिताते हैं।” अपना भी यही हाल है… नतीजा भी दिखना चालु हो गया है. पर मामला अभी भी रिजोल्यूशन तक ही है !
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फिजियोथैरेपी ? कुछ सुना सुना सा लगता है .@ सतीश पंचम जी की टिप्पणी हज़म नहीं हुई ! इसके लिए कोई थैरेपी है जिससे हज़म हो जाय 🙂
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बिल्कुल सही कहा आपने……..वर्तमान में विज्ञान ने रोजमर्रा के कामकाज लिए जितने सुविधा/मशीन उपलब्ध कराये हैं,शारीरिक श्रम के अभाव में शरीर में जंग सा लगता जा रहा है.
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आदरणीय सर, बिल्कुल बजा फ़रमा रहे हैं आप फ़िजियोथेरेपी के विषय में. शरीर दिन भर इन्टरनेट पर ब्ला॓गिंग करेगा तो यह तो होना ही है । हा हा । २५-३० की उम्र में हाइपरटेंशन के शिकार हो रहे युवा, क्या कहा जाए अब ?राइट क्लिक ब्ला॓कर तकनीकी तौर पर भले ही समझदार हों पर ब्ला॓गरी तौर पर………. अब जाने दीजिए । नमस्कार ।
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aap ki baat me dum heduniya me kai saririk gum heilaz ki padhati insano ke liye hemachine ka to depericiation claim karan chaiyeaap ne mere blog pr mera utsah vardan hamesha kiya heaapka abharimakrand
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