मेरे ही बचपन मेँ हवा शुद्ध थी। गंगा में बहुत पानी था – छोटे-मोटे जहाज चल सकते थे। गांव में खेत बारी तालाब में लोगों के घर अतिक्रमण नहीं कर रहे थे। बिसलरी की पानी की बोतल नहीं बिकती थी। डस्ट-एलर्जी से बचने को मास्क लगाने की तलब नहीं महसूस होती थी। बाल्टी भर आम चूसे जाते थे और इफरात में मटर की छीमी, चने का साग खाया जाता था।
एक आदमी की जिन्दगी में ही देखते देखते इतना परिवर्तन?! प्रचुरता के नियम (Law of abundance) के अनुसार यह पृथ्वी कहीं अधिक लोगों को पालने और समृद्ध करने की क्षमता रखती है।
प्रकृति के साथ हमारा जो बैंक अकाउण्ट है, उसमें … जमा बहुत कम किया गया है। यह अकाउण्ट अभी सत्यम के अकाउण्ट सा नहीं बना है, पर यही रवैया रहा तो बन जायेगा। और तब हर आदमी दूसरे को रामलिंग राजू बताता फिरेगा। |
पर क्यों हांफ रही है धरती? शायद इस लिये कि पृथ्वी पाल सकती है उनको जो प्रकृति के प्रति जिम्मेदार और उसके नियमों का पालन करने वाले हों। वह लोभ और लपरवाह उपभोगवादी प्रवृत्ति से परेशान है। शायद वह मानव के विज्ञान और तकनीकी के रेकलेस यूज से भी परेशान है।
अब भी शायद समय है; एक प्रभावी करेक्टिव कोर्स ऑफ एक्शन सम्भव है। गंगा के गंगा बने रहने और नाला या विलुप्त सरस्वती में परिणत होने से बचने की पूरी आशा की जा सकती है। मानव की लालच, शॉर्टकट वृत्ति और लापरवाही कम हो; तब।
प्रकृति के साथ हमारा जो बैंक अकाउण्ट है, उसमें से निकालने का उद्यम पिछले सौ-पचास सालों में बहुत हुआ है। इस अकाउण्ट में जमा बहुत कम किया गया है। यह अकाउण्ट अभी सत्यम के अकाउण्ट सा नहीं बना है, पर यही रवैया रहा तो बन जायेगा। और तब हर आदमी दूसरे को रामलिंग राजू बताता फिरेगा।
हम धरती को स्कैयर्सिटी मेण्टालिटी (Scarcity Mentality) के साथ दोहन कर रहे हैं। कुछ इस अन्दाज में कि फिर मिले या न मिले, अभी ले लो! असुरक्षित और गैरजिम्मेदार व्यवहार है यह। इस मानसिकता, इस पैराडाइम को बदलना जरूरी है।
(मैं आज यात्रा में रहूंगा। अत: टिप्पणियां पब्लिश करने में कुछ देर हो सकती है – चलती ट्रेन में नेट कनेक्शन की गारण्टी नहीं। अग्रिम क्षमायाचना।)
हिन्दू धर्म प्रकृति से तादात्म्य की शिक्षा देता है.(ऐसा कहने पर मुझे साम्प्रदायिक भी करार किया जा सकता है.) लेकिन हम उस शिक्षा को अपने जीवन में उतार नहीं पाते.पश्चिम की अंधी नकल और गांधी के विचारों का तिरस्कार भी प्रकृति से तादात्म्य न बिठा पाने का एक कारण है,
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अति हो जाती है, तब नये रास्ते बनते हैं। संतुलन का मानवीय वृत्ति से रिश्ता शायद है नहीं। धीमें धीमे लोग जग रहे हैं। भारतवर्ष मूलत एक कुंभकर्ण है, बहुत देर तक सोता है। जगने में दशकों लग जाते हैं। उम्मीद पर दुनिया कायम है जी। हमारे नाती पोते देखेंगे बेहतर भारत, बेहतर नदियां।
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हम अपनी अगली पीढ़ियों के लिए बंजर धरती छोड़कर जा रहे हैं। आदमी भस्मासुर बनने पर आमादा है।
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कोई भी शुरुआत खुद से ही करनी पडती है। ‘दूसरा शुरु करे’ इसी प्रतीक्षा में हम इस दशा में आ गए हैं।लिखने का जमाना गया। अब तो करने का और कर लेने के बाद ही लोगों को कहने का क्षण सामने खडा है।
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बताइये आपके बुलाये पर आये और आप दिख ही नहीं रहे हैं। जबकि लोग आपके ब्लाग पर टिपियाने में लगे हैं।
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आज इस लेख में एक गंभीर समस्या को प्रस्तुत किया गया.प्रकृति के साथ खिलवाड़ बंद नहीं होगा तो शायद एक दिन पानी और अनाज के लाले पड़ जायेंगे.कुदरत किसी को नहीं बख्शती.इंसान को समय रहते संभलना चाहिये.
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ज्ञान जी आप अपने समय की बात कर रहे हैं? मुझे तो अपने बचपन और आज में ही बहुत फ़र्क़ नज़र आता है. मेरे बचपन में दिल्ली तक में सर्दियों में खिली धूप आती थी, गर्मियां सिर्फ़ २-३ महीने की होती थीं. खूब पानी बरसता था. गाँव में छोटी और बड़ी नदियों में बहुत पानी होता था और अब छोटी नदी को लापता हुए ही १५ साल हो चुके हैं, बड़ी का हाल नहीं मालूम. आगे बढ़ने की प्रतियोगिता में हमनें जनसँख्या कम करने के नारे को भी भुला दिया, यह सोचकर कि जितने ज़्यादा लोग उतना ज़्यादा उपभोग और जितना ज़्यादा उपभोग उतना ज़्यादा व्यापार और मुनाफा. पृथ्वी का क्या होगा यह कल पर टाला जा रहा है. हम ज़रूर इसका मूल्य चुकायेंगे.
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सुख और शान्ति से जीने की चाह में हम कुछ ज्यादा प्रगति कर गये हैं यूज़ और थ्रो की बाजारू सोंच तक। कहते हैं यह वैज्ञानिक सोंच का परिणाम है, वह भी द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद की वैज्ञानिक अवधारणा? विज्ञान से आगे एक वस्तु ज्ञान भी है यह बैकवर्ड़ सोंच बतायी जाती है। अब भी न सँभले तो सिरजनहार ही धूम धड़ाके से सबको थ्रो कर देगा।
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