यात्रा के दौरान मैने यत्र-तत्र-सर्वत्र जन सैलाब देखा। इलाहाबाद से बोकारो जाते और वापस आते लोग ही लोग। सवारी डिब्बे में भरे लोग। यह यात्रा का सीजन नहीं था। फिर भी ट्रेनों में लम्बी दूरी के और हॉपिंग सवारियों की अच्छी तादाद थी।
भीड़ मुझे उत्साहित नहीं करती। वह मुझे वह बोझ लगती है। मेरे बचपन के दिनों से उसे कम करने के प्रयास चलते रहे हैं। पहले “हम दो हमारे दो” की बात विज्ञापित होती रही। फिर “हमारा एक” की चर्चा रही। सत्तर के दशक में हमेशा आशंका व्यक्त होती रही कि भारत भयंकर अकाल और भुखमरी से ग्रस्त हो जायेगा। हम कितना भी यत्न क्यों न करें, यह जनसंख्या वृद्धि सब चौपट कर देगी। उसी समय से भीड़ के प्रति एक नकारात्मक नजरिया मन में पैठ कर गया है।
झारखण्ड में राज्य की सरकार का पॉजिटिव रोल कहीं नजर नहीं आया। साइकल पर अवैध खनन कर कोयला ले जाते लोग दिखे। तरह तरह के लोग बंद का एलान करते दिखे। इन सबसे अलग जनता निस्पृह भाव से अपनी दिन चर्या में रत दिखी। मुझे बताया गया कि किसी भी ऑंत्रीपेन्योर का काम का प्रारम्भ घूस और सरकारी अमले के तुष्टीकरण से होता है। |
पर अकाल की हॉरर स्टोरीज़ सच नहीं हुईं। और नब्बे के दशक के उत्तरार्ध में तो सुनाई पड़ने लगा कि भारत और चीन का प्लस प्वाइण्ट उनकी युवा जनसंख्या है। अब सुनने में आता है कि अमेरिका के बीबी बेबी बूमर्स युग के लोग वृद्ध हो रहे हैं। उसे मन्दी से उबारने के लिये जवान और कर्मठ लोगों का टोटा है। दम है तो भारत के पास। हमारे पास पढ़ी-लिखी और अंग्रेजी-तकनीकी जानकारी युक्त वर्क फोर्स है।
अपनी जिन्दगी में सोच का यह यू-टर्न मुझे बहुत विस्मयकारी लगता है। बहुत कुछ ऐसा ही भारतीय रेलवे की भविष्य को झेल लेने की क्षमता को ले कर भी हुआ था। नब्बे के उत्तरार्ध तक हमें रेल का भविष्य अन्धकारमय लगता था। बहुत से उच्चाधिकारी यह बोलते पाये गये थे कि “पता नहीं हमें अपनी पेंशन भी मिल पायेगी”। लोग अपने प्रॉविडेण्ट फण्ड में अधिक पैसा रखने के पक्ष में भी नहीं थे – पता नहीं रेलवे डिफॉल्टर न हो जाये। पर इस दशक में ऐसा टर्न-एराउण्ड हुआ कि सभी नोटिस करने को बाध्य हो गये।
वही नोटिस करना जनसंख्या के साथ भी हो रहा है। हमारे इन बीमारू प्रान्तों की जनसंख्या जिस समय जाति, वर्ग और शॉर्टकट्स की मनसिकता से उबर लेगी, जिस समय साम्य-समाज-नक्सल-सबसिडी वाद से यह उबर कर काम की महत्ता और उसके आर्थिक लाभ को जान लेगी, उस समय तो चमत्कार हो जायेगा बंधु! और अब मुझे लगता है कि यह मेरी जिन्दगी में ही हो जायेगा।
वास्तविक समस्या सिस्टम की नहीं है, अपितु लोक की बीमार मानसिकता है. जनता ख़ुद ही विकसित नहीं होना चाहती. पुरबिया गाँवों में आज भी ज्यादा बच्चे-ज्यादा वर्क-फोर्स का सिद्धांत चलता है. जितने खेत उससे ज्यादा हाथ उसे जोतने के लिए… कलाम साहब कहते हैं यह जनसँख्या समस्या नहीं अपितु जन्संसाधन(रिसोर्स) है.. कैसे? अभी वर्तमान दशा-दिशा को देखकर कोई सुनहरा दृश्य तो नहीं उभरता….!
LikeLike
आशा ही जीवन है, आपकी आशाएं फलीभूत हों, यही हर देशवासी की कामना है।
LikeLike
आपकी मनोकामना में मैं अपनी मनोकामना देखता हूं।आमीन।सम्मा आमीन।
LikeLike
काम की महत्ता और उसके आर्थिक लाभ को नकारा नहीं जा सकता, मगर क्या परिवर्तन ला सकनेवाला मध्यम वर्ग बिना किसी राजनैतिक सामाजिक चिंतन के,चलना प्रारंभ करे तब अराजक स्िथति पैदा नहीं हो जायगी? मैं किसी वाद का समर्थन यहॉं नहीं कर रहा, पर क्या वादरहित समाज की कल्पना संभव है? जनसंख्या पर आपके विचार से सहमत हूं।
LikeLike
भईया बहुत सार गर्भित लेख लिखे हैं आप…क्या टिपण्णी करें?नीरज
LikeLike
आमीन !- लावण्या
LikeLike
चमत्कार ही हो सकता है… वरना बहुत बड़ी समस्या ही लगती है मुझे तो.
LikeLike