क्रिश्चियन हेगियोग्राफी के बारे में मुझे खास जानकारी नहीं, पर आज की पुस्तकों में हेगियोग्राफी (hagiography – प्रशंसात्मक बायोग्राफी) बहुत देखने को मिलती है। प्रायोजित बायोग्राफी अनेक हैं। सब कुछ अच्छा अच्छा जानने को मिलता है। ग्लॉसी पन्नों की कॉफी टेबल पुस्तकें जिनमें राजनेता या उद्योगपति लार्जर-देन-लाइफ नजर आता है; बहुतायत से दिखती हैं।
हिन्दी ब्लॉगरी, जहां टिप्पणी एक्स्चेंज एक महत्वपूर्ण गतिविधि है; वहां हेगियोग्राफिक लेखन स्वत: स्फूर्त बाहर निकलता है। हम परस्पर अच्छे बिन्दु तलाशने लगते हैं साथी ब्लॉगरों में। यह जूतमपैजारीय लेखन का विपरीत ध्रुव है। और मेरे ख्याल से हिन्दी ब्लॉगरी जूतमपैजारीयता से नहीं, हेगियोग्राफी से पुष्ट हो रही है।
मुझे आर.एम. लाला की जमशेतजी टाटा और जे.आर.डी. टाटा की बायोग्राफी याद आती हैं। मुझे एम.वी. कामथ की वर्गीस कुरियन, चरतराम और टी.ए. पै की हेगियोग्राफी भी याद आती हैं। इनमें से कुछ को मैने पढ़ा है। इन चरित्रों से मैं प्रभावित हुआ हूं – यद्यपि मन में यह भाव हमेशा बना रहा है कि क्या इस हेगियोग्राफिक लेखन से इतर भी इन लोगों का कुछ चरित्र रहा है।
पण्डित जवाहरलाल नेहरू की कई हेगियोग्राफी पढ़ी हैं और कालान्तर में उनके समाजवादी चरित्र को छीलते हुये गुरचरनदास की “इण्डिया अनबाउण्ड” भी पढ़ी। निश्चय ही गुरचरनदास की पुस्तक का प्रभाव ज्यादा गहरा और ताजा है। पर उससे हेगियोग्राफीज़ की उपयोगिता समाप्त नहीं हो जाती।
मैं अपनी ब्लॉगरी के शुरुआत में पर्याप्त छिद्रान्वेषी रहा हूं। साम्य-समाजवादी-पत्रकार-साहित्यकार छाप खेमाबन्दी करते लोग कम ही रुचते रहे हैं। पर समय के साथ मैं सब में प्रशंसा के बिन्दु तलाशने लगा हूं। धीरे धीरे यह समझ रहा हूं कि यहां ब्लॉगरी मैं अपनी खीझ और कुण्ठा निकालने नहीं आया, वरन अन्य लोगों को समझ कर, प्रोत्साहित कर, प्रोत्साहित हो अपनी सकारात्मक वैल्यूज पुष्ट करने आया हूं।
जूतमपैजारीयता बनाम हेगियोग्राफी में हेगियोग्राफी जिन्दाबाद!
सोई हम सोचें कि आखिर बात का है ? जई के मारै सुरू-सुरू मैं आपनै निरी उपेक्छा करी हमाई ! बिना हमाओ झोला और वाकी छाप देखें . बस एक दांय पेन ज़रूर मांगो तो . 🙂
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धीरे धीरे यह समझ रहा हूं कि यहां ब्लॉगरी मैं अपनी खीझ और कुण्ठा निकालने नहीं आया, वरन अन्य लोगों को समझ कर, प्रोत्साहित कर, प्रोत्साहित हो अपनी सकारात्मक वैल्यूज पुष्ट करने आया हूं। बहुत सही कहा आपने……..मेरे भी कुछ ऐसे ही विचार हैं.
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मेरे ख्याल से हिन्दी ब्लॉगरी जूतमपैजारीयता से नहीं, हेगियोग्राफी से पुष्ट हो रही है। बिल्कुल सही बात कही आपने. हिन्दी ब्लोगरी हेगियोग्राफी से सिर्फ़ मजबूत ही नही हो रही है, सच तो यह है की आगे सिर्फ़ यही बचेगी भी.
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सत्य बोलो, प्रिय बोलो और अप्रिय लगनें वाला सत्य न बोलो——यह नीति वाक्य है। नीति सार्वदेशिक, सार्वकालिक और सार्वजनीन नहीं होती।सत्यं वद, धर्मं चर। सत्य बोलो-धर्म युक्त आचरण करो। यह धर्मादर्श है। सत्य एवं धर्म दोनों शाश्वतहैं, सनातन हैं। ये किसी प्रशस्ति की अपेक्षा नहीं करते। प्रिय-अप्रिय का, तेरा-मेरा का आश्रय नहीं लेते। सार्वदेशिक, सार्वकालिक एवं सार्वजनीन होता है।अधिक आवश्यक क्या है? सत्य का संस्थापन या एक दूसरे की पीठ खुजाना? सियारों की तरह हुआ-हुआ करते नवसाम्प्रदायिक कम्यूनिस्टों और उनके अनुयायियों का यह प्रिय अस्त्र है, उसे वहीं तक सीमित रहनें देना चाहिये।गांधी की पूरी जीवन यात्र ईसामसीह से प्रेरित लगती है-पहले ईश्वर पुत्र,फिर ईश्वर का दूत और अन्त में ईश्वर का अवतार। यह भी स्मरण में रखना चाहिये की उसी काल में थियोसिफिकल सोसाइटी/एनीबिसेन्ट, जे०कृष्णामूर्ति को अवतार घोषित करनें की मुहिम चला रहीं थीं, जो स्वयं कृष्णमूर्ति द्वारा ही ध्वस्त कर दी गयी।
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