गंगा किनारे घूमते हुये खेत में काम करते अरविन्द से मुलाकात हुई। खेत यानी गंगा की रेती में कोंहड़ा, लौकी, नेनुआ की सब्जियों की बुआई का क्षेत्र। अरविन्द वहां रोज सात-आठ घण्टे काम करता है। वह क्षेत्र मुझे अपने दैनिक झमेले के रुटीन से अनवाइण्डिंग का मौका दे रहा था। पर शायद अरविन्द के लिये वह ड्रजरी (drudgery – बोझ) रहा हो। हर बात को पूरा कर वह सम्पुट की तरह बोल रहा था – “और क्या करें, बाबूजी, यही काम है”।
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दीपावली के समय गांव वाले बंटवारा कर लेते हैं गंगा के किनारे का। अरविन्द के हिस्से सब्जी के पौधों की तेरह कतारों की जमीन आई है। दीपावली के बाद से ही ये लोग काम में जुत गये हैं। गंगा जैसे जैसे पीछे हट रही हैं, वैसे वैसे इनके खेत आगे बढ़ रहे हैं गंगा तट तक। इस हिसाब से अरविन्द का खेत अभी लम्बाई में दो-ढ़ाई गुणा बढ़ेगा।
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अपनी कमर से ऊपर हाथ रख कर अरविन्द बताता है कि हर थाले के लिये लगभग इतनी खुदाई करनी पड़ती है बालू की – तब तक, जब तक पानी न निकल आये। उस गड्ढ़े में डेढ हाथ गोबर की खाद ड़ाली जाती है, फिर एक गिलास यूरिया। ऊपर रेत भर कर बीज बोया जाता है। सब्जी की जड़ें पनप कर पानी तक पहुंचती हैं।
पानी देने के लिये कुण्ड खोदते हैं ये लोग। रोज पानी देना होता है पौधों को। जब फल बड़े होने लगते हैं तो वहां रात में रुक कर रखवाली करनी होती है। खेत के तीन तरफ बाड़ लगाई जाती है (चौथी ओर गंगा तट होता है)। यह बाड़ छोटे पौधों को रेत के तूफान और लोगों के घुसने से बचाती है। जब पौधे परिपक्व हो जाते हैं तो इसकी उपयोगिता कम हो जाती है – तब रेत के तूफान का असर नहीं होता उनपर।
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अरविन्द के खेत में कोंहड़े की बेल। रेत में फैली इस बेल में एक फूल और एक फल ढूंढिये! |
मेरे सिर पर मालगाड़ी परिचालन का बोझ है। लिहाजा मैं अरविन्द के काम में रस लेता हूं। पर अरविन्द कहता है:
“और क्या करें, बाबूजी, यही काम है”।
लोग गंगाजी की परिक्रमा को उद्धत हैं। पैदल चलने की अपनी लम्बी दूरी की अक्षमता को मद्देनजर मैं साइकल से चलना ज्यादा सुविधाजनक समझूंगा। जो लोग इस काम में दक्ष हैं, अपने पत्ते खोल सकते हैं। अन्यथा हमारे जैसे पोस्ट दर पोस्ट थ्योरी बूंकते रह जायेंगे। और यात्रा गंगाजी से जितना पास से हो सके उतना अच्छा। मै लगभग एक सप्ताह इस काम के लिये अलग रखने की सोच सकता हूं।
और क्या करें बाबूजी…….यह निरीह भाव,बड़ा ही कष्ट देता है……मनुष्य के जीवन के लिए जो आहार उपलब्ध करते हैं,वही खेत और खेतिहर कितने उपेक्षित हैं और केती करना किस तरह निकृष्ट माना जाता है.
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ईष्टदेव जी की बात से सहमत हूँ। खेती में तो सिर्फ साहित्यिक रूमानियत ही बची है.. यथार्थ क धरातल या तो बंजर है, या इस रेती के समान जिसमें उगे पौधों को देखकर कर्मयोग की शिक्षा तो मिल सकती है लेकिन पेट भरने को दो जून की रोटी नहीं.।
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कह रहीम कैसे करें परिकम्मा मिल साथ रेती में साइकिल फँसै , पैदल ये थकि जात 🙂
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असल कें हम-आप खेती के सिर्फ़ रंग देखते हैं. कष्ट तो वही बूझते हैं, जो रेगुलर करते हैं. हम-आप जिस रेट पर सब्जी ख़रीदते हैं उगाने वालों को उसका 20 प्रतिशत भी नहीं मिलता. ऐसी स्थिति में अब खेती में सिर्फ वही बचे हैं, जो और कुछ करने की स्थिति में नहीं हैं. ख़ास तौर से पूर्वी उत्तर प्रदेश की स्थिति तो कार्गो न होने के नाते और भी बुरी है.गंगा परिक्रमा पर ज़रूर निकलें. अत्यंत शुभकामनाएं.
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कोहड़ा और फूल पास-पास ही दिखायी दे रहे हैं। जय हो गंगा मैया…। तू पोस्ट का विषय भी देती है।
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अरविन्द की खेती से जुड़े प्रश्न महत्वपूर्ण हैं, पर उससे से ज्यादा महत्वपूर्ण है गंगा का अस्तित्व। इस प्रकार से गंगा की रेती में की जानें वाली खेती का परिणाम यह होता है कि रेत न केवल मिट्टी में कन्वर्ट हो जाती है बल्कि अन्दर तक स्थायी रुप से जमी जड़ें धरातल को कठोर बना देती हैं। परिणामतः बरसात में जब जल की प्रचुरता होती है तब भी वह कठोर हुई मिट्टी, तेज प्रवाह के बाद भी, नहीं हट पाती है। इसके चलते गंगा उथली होकर या तो दो या अधिक धाराओं में बँट जाती है या मार्ग बदल देती है। मार्ग बदलनें का एक अन्य कारण गंगा के एक ही तरफ बालू के ठेके देंना भी है। मुझे लगता है कि गंगा के उथला होंने, बालू में की जानें वाली खेती और ठेके आदि पर एक समग्र विचार और रणनीति बनाकर ही हम गंगा और अपना अस्तित्व बचा पाएँगे।
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गंगा की रेती की तस्वीर देखी, इतनी सफ़ेद?…मानो बर्फ़ बिखरी पड़ी हो, यहां तो काली सी रेती दिखती है, वो भी गीली गीली सी। गंगा के तल में खेती कैसे होती है बताने का आप को और अरविंद दोनों का शुक्रिया
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गंगा , अरविन्द का नाता , अरविन्द के मन की व्यथा , अरविन्द की मेहनत , खेत की बाड, और भी न जाने क्या क्या , पुरा का पुरा गाव ही घुमा दिया आप ने , उस के लिए आभार
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बडी विचित्र बात हो रही है मेरे साथ। दो-तीन दिनों से व्याुकुलता छाई हुई है चित्त पर। पता नहीं क्यों। ऐसे में आपकी पोस्ट में गंगा का उल्लेख मन को तसल्ली देता लग रहा है जबकि दोनों बातो कोई अन्तर्सम्बन्ध नहीं है।यह एक सप्ताह आपको निश्चय अकल्पनीय शक्ति और स्फूर्ति देगा।ईश्वर आप पर कृपालु बना रहे और मां गंगा की शीतलता आपके तन-मन को आवरित किए रहे।
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अनुराग मिश्र (Raag said…) की बात ध्यान देने योग्य है. गंगा के प्रदूषण के इस बहाने पर भी रोक लगनी चाहिए.
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