वह लगभग बूढ़ा आदमी सड़क के किनारे बैठा था। उसके पास एक झौआ (अरहर की डण्डी/रंहठा से बना पात्र), एक झोला, तराजू और सामने रखा सामान था। मैने पूछा – “यह क्या है?”
उसे अन्दाज नहीं था कि मैं इतना मूर्ख हो सकता हूं कि वे वस्तुयें न जानूं। दो बार पूछने पर बोला – “मकोय, मकोय रसभरी”।
क्या भाव?
पांच रुपये पाव।
कहां से लाते हो?
मण्डी से।
और यह बेल भी मण्डी से लाते हो या यहीं का है? उसने उत्तर नहीं दिया। आसपास के पेड़ों पर बहुत बेल हैं, वे यहीं के होंगे। मैने उसे आधा किलो मकोय देने को कहा। उसने प्लास्टिक की पन्नी में रख कर तोला – बाट से नहीं, पत्थर के टुकड़े से।
मेरी पत्नी जी सवेरे की सैर में साथ नहीं थी। बूढ़े के पास पूरी मकोय १५०-२०० रुपये से ज्यादा की न रही होगी। पत्नी जी के न होने पर पूरी की पूरी खरीदने की खुराफात कर सकता था, पर जेब में उतने पैसे नहीं थे! सवेरे की सैर में ज्यादा पैसे ले कर जाने का सोचा न था!
बूढ़ा आदमी। मैं मान कर चल रहा हूं कि आस-पास से वह लाया होगा मकोय और बेचने पर सारा पैसा उसकी आय होगी। व्यय में उसका केवल समय होगा। पर समय का क्या आकलन? मैने पूछा – कबसे बैठे हो। उसने बताया – “काफी समय से। छ बजे से।”
पर छ तो अभी बज रहे हैं?
“तब और जल्दी, पांच बजे से।”
उसके पास न घड़ी है न समय का अन्दाज। जिन्दगी बिना समय की गणना के काटने की चीज हो जाये तो कैसा रहे?
पी.आई.डी. → मुझे अहसास हो रहा है कि मेरा कैमरा मेरे ब्लॉग के लिये पोस्ट इण्ड्यूसिंग डिवाइस (PID) है। न मैं उस बूढ़े, पेवमेण्ट पर दुकान लगाने वाले की फोटो लेता और न यह पोस्ट बन पाती। बिना फोटो के मुझे कितने पैराग्राफ लिखने पड़ते उसका वर्णन करते। मेरे पास वह क्षमता है? नहीं – नो चांस। लिटेररी आदमी को कैमरा नहीं चाहिये। पर ब्लॉगर के लिये तो कैमरा मस्ट है।
शिवकुमार मिश्र सहमत नहीं होंगे। और अनूप शुक्ल तो ह्यूमन पोस्ट इंड्यूसर हैं। लोगों को टंकी से उतारने और ब्लॉग वैराज्ञ से विमुख करने में अच्छा रोल अदा करते हैं। उनको भी कैमरा नहीं चाहिये। वैसे आजकल मैं दुनिया मेरी नजर से (अमित जी का ब्लॉग) का फैन हो रहा हूं। खांटी ब्लॉगिंग के दर्शन होते हैं वहां। और उनकी ब्लॉग टेम्प्लेट तो चुराने का मन करता है!
ब्लॉगरी अभिव्यक्ति का एक माध्यम है। लिटरेचर तो कहीं भी हो सकता है – ब्लॉग में भी और आप की इस या किसी पोस्ट में भी। …ब्लॉगरी और साहित्य की विभेद बेमानी है।
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sriman ji barabanki mein is fal ko rashbhari kehte hai .aap ke blog ki tarah yah bhi bahut svadisht hoti hai.sadarsumanloksangharsha.blogspot.com
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ज्ञान जी, आप ने एकदम ग्वालियर के दिनों की याद दिला दीं.हम लोग इससे जेम बनाया करते थे.मकोय एकदम नया नाम है. वहां तो सिर्फ रसभरी नाम से लोग जानते हैं.प्रभु का शुक्र है कि आपके पास पूरा गट्ठर खरीदने का पैसा नहीं था. हम लोगों के लिये फिर क्या बचता.सस्नेह — शास्त्री
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मैं भी मकोय के बारे में कुछ नहीं जानता। इसके बारे में यदा-कदा पढा आवश्य है।
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