जब मुद्दे नहीं होते उछालने को तो कीचड़ उछाली जाती है। हाथ काट डालने से यह सिलसिला शुरू हुआ था। लेटेस्ट है कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ व्याभिचारियों की जमात है।
मैं हिन्दू हूं – जन्म से और विचारों से। मुझे जो बात सबसे ज्यादा पसन्द है वह है कि यह धर्म मुझे नियमों से बंधता नहीं है। यह मुझे नास्तिक की सीमा तक तर्क करने की आजादी देता है। ईश्वर के साथ दास्यभाव से लेकर एकात्मक होने की फ्रीडम है – द्वैत-विशिष्टाद्वैत-अद्वैत का वाइड स्पैक्ट्रम है। मैं हिंदू होते हुये भी क्राइस्ट या हजरत मुहम्मद के प्रति श्रद्धा रख-व्यक्त कर सकता हूं।
अब यह तो है कि सर्वाधिक त्याग और फ्र्यूगॉलिटी का जीवन मैने कमिटेड काडर वाले लोगों में पाया है – भले ही वे धुर दक्षिणपन्थी संघ वाले हों या अपने आदर्श को समर्पित साम्यवादी।
इन दोनो से सहमति न पायेगी वैचारिक धरातल पर। दोनो ही आपकी वैयक्तिक फ्री-थॉट पर कोबरा की तरह आक्रमण करते हैं। यही कारण है कि मुझे उदात्त हिन्दुत्व भाता है। उदग्र हिन्दुत्व से भय लगता है।
पर वैचारिक असहमति के माने यह हो कि कीचड़ उछाल किसी को व्याभिचारी कहूं – तो न केवल ज्यादा हो जायेगा, वरन हाइपर थेथराइडिज्म (इसे हाइपर थायराइडिज्म से कन्फ्यूज न करें) की बीमारी का सार्वजनिक प्रदर्शन भी होगा।
ओह, यह चुनाव कब खत्म होंगे?
बापू के तथाकथित कृष्ण-पक्ष पर लिखा जा रहा है। एक पक्ष यह भी:
गांधीजी रेल से यात्रा कर रहे थे कि एक जगह उनका एक पैर का जूता फिसल कर ट्रैक के पास गिर गया। उन्होने अपना जूता वापस लेने की कोशिश की पर ट्रेन तब तक गति पकड़ चुकी थी। सह यात्रियों के लिये तब आश्चर्य तब हुआ जब बड़ी शान्ति से बापू ने अपने दूसरे पैर का जूता उतारा और उस स्थान पर फैंक दिया जहां पहला जूता गिरा था। जब एक सह यात्री ने पूछा कि उन्होंने ऐसा क्यों किया तो बापू ने जवाब दिया – “जब कोई गरीब आदमी मेरे एक पैर का जूता पायेगा तो शायद वह पूरा जोड़ा चाहे जिससे कि वह पहन सके।”
गांधी एक पैर का जूता खो कर गरीब नहीं बने वरन वे गरीब के साथ अपने को जोड़ कर कितने ऊंचे उठ गये।
आपके विचारों से सहमत हूँ। लेकिन राजनेताओं द्वारा घूसखोरी और मक्कारी के जो नित नये प्रतिमान खड़े किए जा रहे हैं उसे देखते हुए आशा कम ही बचती हैं।
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शुक्र है, किसी के हाथ में तो मशाल जल रही है । योगेश्वर कृष्ण का ध्यानस्थ चित्र मैंने आपके ब्लाॅग से कापी कर लिया है । मुझसे रहा नहीं गया ।
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