एक विचारधारा (Ideology) में बन्द होना आपको एक वर्ग में शामिल करा कर सिक्यूरिटी फीलिंग देता है। आप वामपंथी गोल वाली विचारधारा का वरण करें तो फोकट फण्ड में क्रान्तिकारी छाप हो जाते हैं। आप दक्षिणपंथी विचारधारा के हों तो आर.एस.एस. की शाखाओं में बौद्धिक ठेल सकते हैं। ज्यादा रिफाइण्ड ठेलते हों तो आप साहित्यकार भी मान लिये जाते हैं। बहुत सी जनता उदय प्रकाश को सिर माथे लेने लगती है।
पर उत्तरोत्तर उदय प्रकाश विचारधारा के मजूर होते जाते हैं।
अनेक मठ-सम्प्रदाय-दल-संगठन बड़े बड़े लोगों को इसी तरह ट्रैप करते हैं और मजूरी कराते हैं। वे उन्हें बौद्धिक आभामण्डल पहनाते हैं और धीरे धीरे उसी आभामण्डल से उनकी व्यक्तिगत आजादी का गला टीपने लगते हैं! आप साम्यवादी/समाजवादी/रामकृष्ण मठ/ब्रह्मकुमारी/आशाराम/सांई बाबा/आर.एस.एस./मानवतावाद/हेन/तेन के साथ जुड़ जाइये। काफी समय तक काफी मजा आयेगा।
पर फिर एक दिन ऐसा आयेगा कि आपको लगेगा आप गुलिवर हैं और लिलीपुट में बौनों ने आपको ट्रैप कर रखा है। हम भी ट्रैप हुये हैं मित्र और भविष्य में ट्रैप नहीं होंगे इसकी कोई गारण्टी नहीं!
इस देश में (मैं भारत की बात कर रहा हूं) विचारधारा (Ideology) की कमी नहीं है। नये नये विचारधारक भी पॉपकॉर्न की तरह फूटते रहते हैं। कमी है, और बहुत घनघोर कमी है, तो आदर्श (Ideal) की। आदर्श आपको कम्पास उपलब्ध कराते हैं – दिशा बताने को। विचारधारा आपको सड़क उपलब्ध कराती है – आगे बढ़ने को। आप सड़क बदल सकते हैं; बदलनी ही चाहिये। पर आप कम्पास नहीं बदलते।
मजे की बात है कि उदय प्रकाश जब विचारधारा वालों का आक्रमण झेलते हैं तो आदर्श (चरित्र और नैतिकता समाहित) की ही बात करने लगते हैं। तब शुरू से ही आदर्श की बात क्यों न करी जाये? और बात ही क्यों आदर्श पर ही क्यों न टिका जाये!
क्या है यह (इस पोस्ट में नीचे टिप्पणी) और किसपर कटाक्ष है यह श्री शिवकुमार मिश्र का:
आदर्श आदर्श है. विचारधारा विचारधारा है. ऐसे में एक आदर्श विचारधारा खोजी जा सकती है. विचारपूर्वक आदर्शधारा भी खोज सकते हैं. आदर्शपूर्वक विचारधारा खोजने का औचित्य वैसे भी नहीं है. आदर्श को विचारधारा के तराजू पर रखकर तौला जा सकता है लेकिन विचारधारा को आदर्श के तराजू पर नहीं रखा जा सकता. तराजू टूटने का भय रहता है. विचार विकसित होते हैं, आदर्श का विकास संभव नहीं. विकासशील या विकसित विचार कभी भी विकसित आदर्श की गारंटी नहीं दे सकते. विचार को आदर्श की कसौटी पर तौलें या आदर्श को विचारों की कसौटी पर, लक्ष्य हमेशा पता रहना चाहिए. लक्ष्य ही महत्वपूर्ण है. विचारधारा तभी तक महत्वपूर्ण है, जबतक हम उसपर चलते हैं.
ऐसे में कहा जा सकता है कि आदर्श पर ही चलना चाहिए.
itni gahri ki apan to doob hi gaye the
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सिरीमान जी ने बड़ी गहरी बात कह दी! 🙂
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इसी द्वंद में तो जीवन बीता जा रहा है.
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मै दिनेशराय द्विवेदी जी की टीप सा सहमत हूँ . आदर्श वैयक्तिक होते है ये व्यक्ति के गुणों पर निर्भर करते है . आभार.
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मेरे समझ में आपका "लक्ष्य" सबसे महत्वपूर्ण और अपरिवर्तनशील होना चाहिए. जिसमे आप "आदर्श" को "विचारधारा" के कसोटी पर या "विचारधारा" को "आदर्श" के कसोटी पर तौल सकते है. कभी- कभी सामायिक परिवर्तन आदर्श और विचारधारा में जरूरी होता हैं, जब आप लक्ष्य को निश्चित कर लेते है और यदि आप आदर्श और विचारधारा में अडिग रहते हैं तो आप कभी-कभी आप लक्ष्य से दूर हो जाते हैं. कम सव्दो में कहे तो "एक निर्दिष्ट लक्ष्य सही आदर्श और सही विचारधारा के द्वारा आसानी से प्राप्त किया जा सकता हैं.
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जीवन के कई दशक निकल जाने के बाद भी कई लोगों को विश्वास नहीं होता कि वो अनूठे हैं । प्रत्येक व्यक्ति अपने आप में विशेष है पर वास्तविक जीवन में यह एकाकीपन हमसे हज़म नहीं होता है । जिन आधारों पर हमने कभी कल्पना नहीं की थी लोग अपने आप को उन आधारों पर बाँट लेते हैं । कुछ दिन पहले मेरे सुपुत्र बोले कि हम तीन (माता, पिता व वह स्वयं) एक गुट में हैं और बिटिया (जो छोटी है) अलग गुट में है । कारण बताया कि हम तीनों अपने अपने भाई बहनों में सबसे बड़े हैं । यह विचारधारा अभी तक पल्लवित व प्रसारित नहीं हुयी है अन्यथा घर के अन्दर ही नये गुट तैयार हो जायेंगे ।गुटीय मानसिकता से वैश्विक चेतना की राह समग्र चिन्तन और उच्चतम आदर्शों से आती है और प्रायः कष्टप्रद रहती है । यदि लगता है कि आपने ठीक किया तो शोक कैसा और यदि किसी कार्य से शोक होता हो तो वह ठीक कहाँ से । अर्जुन के विचार भी प्रथम अध्याय में इसी प्रकार थे तब कृष्ण बोले ’क्लैब्यं मा स्म गमः पार्थ’ ।
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जब कोई किसी विचारधारा से बंध रहा होता है तो उसे आदर्श मान कर ही चलता है.विवेकशील वही है जो एक विचारधारा पर चल कर उसे बदलने की जरूरत नहीं समझता. उदय प्रकाश प्रकरण में विचारधारा से भटकने की वजह न हो कर दूसरी विचारधारा से घृणा होना है. यदि लाल ब्रिगेड का कोई सदस्य भूल से भी भगवा रंग छू लेगा तो अस्पृश्य हो जाएगा.
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लगता है हमने पहचान लिया पर कन्फ़र्मेशन के लिये पंगेबाज जी से सम्पर्क हो पाता तो बेहतर रहता.
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आदर्श आपको कम्पास उपलब्ध कराते हैं – दिशा बताने को। विचारधारा आपको सड़क उपलब्ध कराती है – आगे बढ़ने को। आप सड़क बदल सकते हैं; बदलनी ही चाहिये। पर आप कम्पास नहीं बदलते।huzoor ab to log compass bhi badal rahe hain……north pole aur south pole wala disha bhram ho gaya hai hum logon ko !! satire….propaganda….issues….controversies….sab ganda hai par dhanda hai ye….
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" तब शुरू से ही आदर्श की बात क्यों न करी जाये? और बात ही क्यों आदर्श पर ही क्यों न टिका जाए।" दरअसल विचारधारा को ही आदर्श मान कर चला जाता है और जब तक दिग्भ्रमित हो जाते है तब इतनी देर हो चुकी होती है वापिस लौटना कठिन हो जाता है-ठप्पा जो पड जाता है:)
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