गूगल रीडर में हिन्दी की ब्लॉग फीड निपटाना भी कठिन पड़ रहा है। नवीनता भी बहुत नहीं मिल रही। बहुत से लोग (मैं भी) वही लिख रहे हैं – जो लिखते हैं।
मैं नये शब्द तलाश रहा हूं – बड़े और गरुह शब्द नहीं; पर नयापन लिये सहज ग्राह्य शब्द। लगता है कि पुस्तकों की ओर लौटना होगा। हिन्दी पुस्तकों की ओर।
अगर आप पढ़ते नहीं तो अनन्तकाल तक कैसे लिख सकते हैं? अर्सा हो गया हिन्दी की किताब खरीदे। क्या करूं; साहित्यकार की जै जैकार करूं? कहां मिलेंगे शब्द?
चौपटस्वामी लिखते क्यों नहीं। बड़ा प्रवाह में लिखते थे। अनूप सुकुल भी तरंग में नहीं लिख रहे कुछ। बाकी, अधिकतर हिन्दी चिठेरे खांचे में फिट होने को क्यों हलकान रहते हैं। सृजन/लेखन की गेंद उछालते क्यों नहीं आसमान तक!
क्या करें; बन्द कर दें ब्लॉगिंग कुछ समय को। बन जायें मानसिक कांवरिया। पैरॊ में तो जोर है नहीं १०० किलोमीटर चलने का। लिहाजा मन से ही चलें?
धन्नो की दुकान पर लुंगाड़े चाय-समोसा के साथ बड़ा ओरीजिनल भाषा प्रयोग करते हैं। वहीं बैठें? पर वहां भी कोई “नमस्ते साहब” कहता मिलेगा तो मजा बरबाद कर देगा। पूरी सुविधा के साथ बेपहचान जीने की अभिलाषा – एक ऐसी सोच जो अपनी प्रकृति की परिभाषा में ही बेहूदगीयत भरी है!
अगर आपको पाठक बांधने हैं तो मौलिकता युक्त लिखें या फिर अश्लील। दुन्नो नहीं है तो काहे टाइम खोटा किया जाये। पर खोटा होगा। ईर-बीर-फत्ते सब कर रहे हैं, सो हमहूं करेंगे। हांफ हांफ कर अपना फीड रीडर खंगालेंगे! एंवे ही पोस्ट करेंगे पोस्ट! हिन्दी की सेवा जो करनी है!
पत्नी जी की त्वरित टिप्पणी –
हुंह, यह भी कोई पोस्ट है? यह तो कायदे से टंकी पर चढ़ना भी नहीं है! यह सिर्फ किताब खरीदने के पैसें एंठने का हथकण्डा है।
यह बार बार टंकी पर चढ़ने की हुड़क क्यों उठती है?!
गुरुदेव, कहिए तो कुर्ता पाजामा पहनकर स्कूटर से आऊँ। आप धोती कुर्ता डालकर पीछे बैठिए और किसी सड़क पर शहर से बाहर की ओर चालीस किलोमीटर तक चला जाए। जो गाँव मिल जाय उसकी चौपाल में बैठकर देखा जाय क्या चल रहा है। चौपाल न हो तो चाय की दुकान या पुलिया पर ही बैठकर गलचौर किया जाय। कुछ न कुछ नया मसाला निकलेगा ही। 🙂
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मौलिक क्या बचा है भाई जी जी भर आया है
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change is law of the nature… ek kaam karte karte boriyat hoti aur hoti rahegi, lekin wo jo ye karte rahte hain aage badhte rahte hain..jo nahin kar pate hain wo philospher,intellect bante hain lekin kuch kar nahin paate…likhne ke liye kaafi kuch hai lekin aapke jaisi vaani nahin hai humare paas 😛 aap to likhte hain to log baadhya hote hain jawab dene ke liye..humein vastvikta pakad leti hai, ki jaisa humne likha hai kya wahi vastavik hai ya sirf comments ke liye likha hai..lagta hai isse ooper uthna padega aur apne liye likhna padega 🙂 aap aise hi logon ko jagate rahiye 🙂
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और वो गंगा किनारे वाली बनारस तक की साइकिल यात्रा का क्या हुआ?
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लम्बी छुट्टी काहे लेना! अभी दो-तीन दिन में एक बार करते हैं, चाहें तो हफ्ते में एक दिन करने लगें! इन तिलों में तेल तो हमेशा रहेगा.
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बेपहचान सिंड्रोम हर सफल आदमी पर हावी हो जाता है शायद आप भी संक्रमित हो चुके है . अवसादहारिणी माँ गंगा निश्चित आपकी सहायता करेंगी .
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मस्त रहिये ओर टेंशन छोडिये…असल ब्लोगिंग तो दरअसल वही है जो आप कर रहे है ….ओर हाँ ये बार बार टंकी पे मत चढा कीजिये टाइम खोटी होता है ….अनूप जी ओवर लोड से हलकान है…..
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अब तो टंकी पर इतनी भीड़ हो गई है कि क्या कहें:) दिल की बात लिखते हुए आपने जिन शब्दों का चुनाव किया वह मौलिक ही तो था। आप नाहक परेशान हुए:)
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अगर आपको पाठक बांधने हैं तो मौलिकता युक्त लिखें- आप की बात से सहमत हूं ।
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नये शब्द आपको केवल ईजाद करने से ही नहीं मिलेंगे , देशज शब्द ऐसे बहुत हैं जो आपने अभी शायद न सुने होंगे या भूल चुके होंगे . उन्हीं के पास फ़िर बगदा जा सकता है, जो शब्द घिस पिट गये हैं उन्हें दूर डिगार दिया जाय , और जो देशज में अच्छे लगें उन्हें पुचकार लिया जाय . और चाहें तो हमारे यहाँ चल रही स्कीम में पुत्त लेकर पुराने शब्द उधर से टरकाइये हम इधर से उसी को तोड़-मरोड़कर या नया शब्द ( जो आपके लिये नया हो )टरकाने की कोशिश करेंगे . आशा है किताब खरीदने के पैसे नहीं मिले होंगे लिहाजा आप ब्लॉगिंग में जमे रहेंगे . @ अनूप जी, बाकी लोगों का मालिक कौन है जी ?
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