भाद्रपद बीत गया। कुआर के शुरू में बारिश झमाझम हो रही है। अषाढ़-सावन-भादौं की कमी को पूरा कर रहे हैं बादल। पर गंगामाई कभी उतरती हैं, कभी चढ़ती हैं। कभी टापू दीखने लगते हैं, कभी जलमग्न हो जाते हैं।
दिवाली के बाद कछार में सब्जी की खेती करने वाले तैयारी करने लगे हैं। पहले कदम के रूप में, कछार पर कब्जा करने की कवायद प्रारम्भ हो गयी है।
एक बारह तेरह साल का बच्चा मदार की डण्डी गाड़ रहा था गंगा तट पर। अपने खेत की सीमा तय करने को। उससे पूछा क्या कर रहे हो, तो साफ साफ जवाब न दे पाया। घर वालों ने कहा होगा यह करने को। मैने नाम पूछा तो बताया परवेज। परवेज़ अगले दिन भी दिखाई दिया। पूछने पर बताया कि चिल्ला गांव का रहने वाला है। पिछले साल तरबूज की खेती की थी। इस साल भी उसे आशा है कि गंगा और पीछे हटेंगी। और जमीन देंगी खेती करने को।
अच्छा है, गंगामाई हिन्दू-मुसलमान का भेदभाव नहीं करतीं।
केवल गंगा तट पर ही नहीं गाड़ रहे हैं लोग चिन्ह। दूर जहां टापू उभर रहे हैं, उनपर भी जा कर डण्डियां या लकड़ी गाड़ आ रहे हैं। बहुत विस्तार है गंगा तट पर और बहुत सी रेतीली जमीन। पर आदमी की हाह और भी ज्यादा है। मुझे लगता है कि आने वाले महीने में इस कब्जे को ले कर आपसी झड़पें-झगड़े भी होंगे!
http://picasaweb.google.com/s/c/bin/slideshow.swf
एक टापू पर चिन्ह गड़ा है। मैं फोटो लेने का प्रयास करता हूं तो देखता हूं कि दो कुत्ते तैरते हुये उस द्वीप की ओर चले जा रहे हैं। कुत्ते भी तैर लेते हैं। टापू पर कोई मछली या जलीय जीव फंसा है, जिसे ये अपना आहार बनाने को तैरने का जोखिम ले रहे हैं। एक कुतिया भी वहां जाने को पानी में हिलती है, पर उसकी हिम्मत अंगद छाप है – कछु संशय पुनि फिरती बारा! वह वापस आ जाती है।
मुझे इन्तजार है जब यहां सब्जी के खेत तैयार होने शुरू होंगे! आप तो पिछले साल की पोस्ट देखें – अरविन्द का खेत!
यह पोस्ट लिखे एक सप्ताह हो गया। उसके बाद यमुना में कहीं से पानी छोड़ा गया। संगम के पास पंहुच उस पानी ने धक्का मारा और शिवकुटी के पास गंगाजी का बहाव बहुत धीमा हो गया। तट पर यमुना से बैक वाटर आ गया। नाले जो गंगा में पानी डालते थे, उनमें पानी वापस जाने लगा। आज भी वह दशा है। अब गंगा किनारे सैर का मैदान ही न बचा! परवेज के कब्जा करने के ध्येय से गड़े डण्डे न जाने कहां चले गये। पर आदमी एक हफ्ते बार फिर वही काम चालू करेगा – डण्डा-झण्डा गाड़ने का!
पिछले शनिवार मैं लोकभारती प्रकाशन पर गया। वहां दिनेश ग्रोवर जी मिले। बात बात में दसवीं कक्षा की परीक्षा वैकल्पिक करने की चर्चा हुई। बड़ी सटीक टिप्पणी थी दिनेश ग्रोवर जी की –
ये अमेरिका की नकल कर रहे हैं वकील साहब (श्री सिब्बल)! जैसे निकम्मे बच्चे अमेरिका में बन रहे हैं, वैसे यहां भी पैदा होने लग जायेंगे।
आप ग्रोवर जी से सहमत हों या न हों। पर उनकी अस्सीवें दशक की उत्तरार्ध की उम्र में सोच की गहराई से प्रभावित हुये बिना नहीं रह सकते। (और यह मेरा कहना इस बात से प्रेरित नहीं है कि दिनेश ग्रोवर जी ने बहुत बढ़िया कॉफी पिलाई! )
"जैसे निकम्मे बच्चे अमेरिका में बन रहे हैं, वैसे यहां भी पैदा होने लग जायेंगे"सहमति का सवाल ही पैदा नहीं होता, यहाँ के बच्चे हमारे देश के छात्रों की तरह किताबी कीडे न भी हों मगर उन्हें किसी भी परिभाषा से निकम्मा नहीं कह सकते हैं.
LikeLike
पहले सुना है कि आठवीं का भी बोर्ड होता था बाद में हटा दिया गया। अब दसवीं का बोर्ड भी हटाया जा रहा है। अमेरिकी स्टाईल में Cow Boys school अर्थात चरवाहा विद्यालय की ओर तो नहीं बढ रहे हैं हम लोग 🙂
LikeLike
ग्रोवर जी की चिन्ता जायज है, हम भी इसी बात से परेशान हैं
LikeLike
"मुझे इन्तजार है जब यहां सब्जी के खेत तैयार होने शुरू होंगे…."ओह! मैं तो समझा आप इन्तज़ार कर रहे हैं उन झड़पों का, ताकि चित्र हम तक पहुंचा सके:)
LikeLike
जीविका का संधान कहीं भी ले जा सकता है। गंगामाई तो दूर, हिन्द महासागर का तल भी जरा सा गिरे तो गाड़ने वाले वहाँ भी झंडॆ गाड़ आयेंगे।बोर्ड परीक्षा को वैकल्पिक करने के निर्णय से तो मैं भी सहमत नहीं हूँ।
LikeLike
आदरणीय पाण्डेय जी,क्या बताऊं इधर इलाहाबाद नहीं आ पा रहा हूं नहीं तो कैमरा लेकर मैं भी आपके साथ कछार में टहलता।कोशिश करूंगा दशहरे में आऊं। तब तक आपके ब्लाग एवम लेखों के माध्यम से ही गंगा जी का दर्शन करके सन्तोष कर लेता हूं।शुभकामनाओं के साथ।हेमन्त कुमार
LikeLike
१. 'अरविन्द का खेत' पोस्ट मुझे बहुत पसंद आई थी और इस पर एक पोस्ट लिखने का सोचा था जो अब तक ड्राफ्ट में ही है :)२. गंगा माई हिन्दू मुसलमान क्या किसी भी बात का भेद भाव नहीं करती इसीलिए तो माई हैं. सूरज की रौशनी तो हर वस्तु पर समान रूप से ही पड़ती है… !३. आप फोटो खिचाने ही बैठे या नौका विहार भी किया 🙂 पोज तो दार्शनिक की है. जो स्वाभाविक ही है. ४. सिब्बल साहब वाली बात पर… मुझे तो अब तक लगता था कि पाठ्यक्रम में जो भी बदलाव होते हैं काफी सोच समझ कर किये जाते हैं, और अगर समय के साथ ९०-९५ प्रतिशत अंक आने लगे थे तो मैं ये कभी नहीं कहता था कि पढाई हलकी या खराब होती जा रही है. पर जिस आनन-फानन में ये फैसला इम्प्लीमेंट हुआ. मुझे वो बात नहीं दिखी. और तीन लोगों की कही बातें याद आ रही है. अभी हाल में ही कोर्नेल में पीएचडी कर रही एक छात्रा इन्टर्न करने आई थी हमारे ग्रुप में और उसने बताया कि कोर्नेल में पीएचडी में भारत से आने वाले (मुख्यतः आईआईटी से) छात्रों और बाकीयों के इंटेलिजेंस लेवल में एक बड़ा गैप होता है. दुसरे मेरे एक प्रोफेसर साहब कि बात जिन्होंने बताया कि जब बादेन (स्विट्जरलैंड) में एबीबी कंपनी के कारन कई भारतीय परिवार आते हैं और अंग्रेजी माध्यम स्कूलों कि महंगाई और कम सीटों की वजह से उन्हें अपने बच्चों का नाम जर्मन माध्यम में लिखवाना पड़ता है. और बच्चे जो भारत से आते हैं वो गर्मी कि छुट्टियों में जर्मन सीख लेते हैं और फिर क्लास में उनके अंक और वहां के बच्चों के अंक में एक गैप होता है. कई जर्मन परेंट्स इस बात से परेशान हैं ! और हाल में मेरी मौसी के बेटे जो दसवी पास कर के ऑस्ट्रेलिया चले गए. शुरू में काफी दिनों तक इस बात को लेकर परेशान रहे कि वहां कुछ पढना ही नहीं होता है. अब थोड़े नोर्मल हुए हैं और ऑस्ट्रेलिया कि सबसे बड़ी समझी जाने वाली एक स्कोलरशिप मिली है उन्हें !ये बातें कैसे बदलेंगी ये तो समय ही बतायेगा.
LikeLike
अपने मंत्री जी लोग ऐसे ही हैं. मुझे लगता है सिब्बल साहब जब विज्ञानं और तकनीक मंत्रालय में थे तब मानव संसाधन विकास मंत्रालय के बारे में छोड़कर और कुछ सोचते ही नहीं होंगे. शायद यही कारण है कि वर्तमान मंत्रालय में आने के बाद उन्होंने तुंरत यह घोषणा कर डाली कि परीक्षा हटाने के बारे में विचार कर रहे हैं. ऐसा कहने से यह साबित करने में सुभीता रहता है कि मंत्री जी गंभीरता से काम कर रहे हैं.
LikeLike
गंगा मैया सबके पाप धो देती है वो तब भी नही पूछती कि तो अनिल है आलम्। वैसे ग्रोवर साब की बात मे दम है।
LikeLike
कुछ समय बाद जमीन के लिए हफ्ता देना पड़ेगा. आबादी जिस तरह से बढ़ी है…अराजकता लाएगी ही.
LikeLike