इस वर्ष की सिविल सेवा परीक्षा के प्रथम 100 चयनित अभ्यर्थियों में केवल एक के विषय गणित और भौतिकी हैं। मुझे यह तब पता लगा जब मैंने एक परिचित अभ्यर्थी से उसके विषयों के बारे में पूछा। आश्चर्य की बात यह थी कि वह एक इन्जीनियर हैं और विज्ञान के विषय न लेकर बिल्कुल ही नये विषय लेकर तैयारी कर रहे हैं।
यह बहस का विषय है कि इन्जीनियरों को सिविस सेवा में आना चाहिये कि नहीं लेकिन पिछले 10 वर्षों में विज्ञान विषयों को इतना कठिन बना दिया गया है कि इन विषयों को लेकर सिविल सेवा में चयनित होना लगभग असम्भव सा हो गया है।
सिविल सेवा परीक्षा ने देश के लाखों युवाओं को सार्थक अध्ययन में लगा कर रखा हुआ है। चयनित होना तो सच में भाग्य की बात है पर एक बार सिविल सेवा की तैयारी भर कर लेने से ही छात्र का बौद्धिक स्तर बहुत बढ़ जाता है। साथ ही साथ कई वर्ष व्यस्त रहने से पूरी कि पूरी योग्य पीढ़ी वैचारिक भटकाव से बच जाती है।
सिविल सेवा की परीक्षा कठिन है और पूरा समर्पण चाहती है। अभी कुछ अभ्यर्थियों के बारे में जाना तो पता लगा कि वो माता पिता बनने के बाद इस परीक्षा में चयनित हुये हैं। यदि आप किसी अन्य नौकरी में हैं या विवाहित हैं या माता-पिता हैं तो सिविल सेवा की तैयारी में कठिनता का स्तर बढ़ता जाता है। विशेषज्ञ कहते हैं कि तैयारी तब जोरदार होती है जब आप इनमें से कुछ भी न हों।
प्रवीण शैक्षणिक रूप से इन्जीनियर और पेशे से सिविल सर्वेण्ट हैं। मेरा मामला भी वैसा ही है। पर बतौर इंजीनियर अध्ययन में जो बौद्धिक स्तर बनता है, उसमे सिविल सेवा की तैयारी बहुत कुछ सप्लीमेण्ट करती है – ऐसा मेरा विचार नहीं है। उल्टे मेरा मानना है कि बतौर इंजीनियर जो विश्लेषण करने की क्षमता विकसित होती है, वह सिविल सर्वेण्ट को कार्य करने में बहुत सहायक होती है।
हां, अगर आप विज्ञान/इंजीनियरिंग से इतर विषय लेते हैं तब मामला व्यक्तित्व में एक नया आयाम जोड़ने का हो जाता है!
और यह तो है ही कि जैसे लेखन मात्र साहित्यकारों का क्षेत्राधिकार नहीं है वैसे ही सिविल सेवा पर केवल ह्यूमैनिटीज/साइंस वालों का वर्चस्व नहीं! और ऐसा भी नहीं है कि एक सिविल सर्वेण्ट बनने में एक डाक्टर या इंजीनियर अपनी कीमती पढ़ाई और राष्ट्र के रिसोर्स बर्बाद करता है।
लम्बे समय से मुझे लगता रहा है कि हिन्दी में बेकर-पोस्नर ब्लॉग की तर्ज पर ब्लॉग होना चाहिये, जहां दो व्यक्ति अपने विचार रखें और वे जरूरी नहीं कि एक रूप हों!। यह फुट-नोट लिखते समय वही अनुभूति पुन: हो रही है।
यह भी मुझे एक सुखद संयोग ही लगा कि आज ही आपको मैंने इसी बेकर-…जैसे ब्लॉग की परिकल्पना का प्रश्न ईमेल किया।
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ये परीक्षा इंटेलिजेंस से ज्यादा पेसेंस की परीक्षा हो गयी लगती है जी !अभिषेक ओझा की बात सटीक लगती है. आईएस की इतनी लम्बी फ़ौज होते हुए भी जो-जो जैसे-जैसे होना था अब तक वैसे न हो पाना इस बात को साबित करता है. इस चयन में आमूल-चूल परिवर्तन की आवश्यकता है ताकि आप दोनों जैसे सक्षम, सहृदय और विचारवान लोग अल्पसंख्यक न रहें.
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बेकर-पोस्नर ब्लॉग की तर्ज पर ब्लागिंग की शुरुआत आप और भाभीजी सबसे बढ़िया कर सकते हैं। आप पोस्ट लिखें उस पर भाभीजी अपनी प्रतिपोस्ट ठोंक दें। लेकिन मुझे पता यह भी है कि आप ऐसा करेंगे नहीं काहे से कि फ़िर उनके विचार हिट हो जायेंगे क्योंकि उनके विचार ज्यादा सहज और सच के करीब होते हैं। 🙂
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अपने देश में पढ़ाई-लिखाई में अच्छे माने जाने वाले बच्चे अच्छे माने जाने वाले पेशों में धंस जाते हैं। यह विडम्बना ही है कि देश के सबसे अच्छे माने जाने वाले बच्चे देश की सबसे अच्छी माने जानी वाली नौकरी में जाकर अंतत: देश की बागडोर संभालकर देश को चौपट करने में सहयोग करते हैं। व्यवस्था में कोई सार्थक बदलाव न इंजीनियर लाते हैं सिविल सर्वेन्ट! श्रीलाल शुक्ल ने अपने लेख सफ़ेद कालर का विद्रोह में लिखा है:१.इंजीनियर ,डाक्टर, सिविल सर्वेंट आदि जब ’युद्ध मार्ग पर प्रवृत्त ’ होते हैं तो मुझे इत्मिनान रहता है कि वे ऐसे खच्चर हैं जो तबेले में तलियाउझ करेंगे , कुछ देरे तबेले के बाहर टहलेंगे भी और फ़िर तबेले के अन्दर आकर अपने-आपको बन्द कर लेंगे। २. इस तरह सारा विद्रोह और आन्दोलन एक उस तालाब की शक्ल ले लेता है जिसमें गन्दे पानी की लहरें एक-दूसरे पर टूट रही हैं और बड़े जोश के सथ एक-दूसरों को काट रही हैं और तालाब के बाहर किनारे पर खड़े भारी-भरकम पेड़ों को इनसे कोई खतरा नहीं है।
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