अद्भुत है हिन्दू धर्म! शिवरात्रि के रतजगे में चूहे को शिव जी के ऊपर चढ़े प्रसाद को कुतरते देख मूलशंकर मूर्तिपूजा विरोधी हो कर स्वामी दयानन्द बन जाते हैं। सत्यार्थप्रकाश के समुल्लासों में मूर्ति पूजकों की बखिया ही नहीं उधेड़ते, वरन गमछा-कुरता-धोती तार तार कर देते हैं। पर मूर्ति पूजक हैं कि अभी तक गोईंग स्ट्रॉग!
सबसे चतुर हनुमान जी हैं। भगवान राम के “तुम कौन हो?” के पूछने पर ओपन एण्डेड उत्तर देते हैं – “देह बुद्धि से आपका दास हूं, जीव बुद्धि से आपका अंश और आत्म बुद्धि से मैं आप ही हूं!”
![]() शिवलिंग का चढ़ावा चरती बकरी |
![]() नन्दी को हटा लगा तख्त |
![]() देवी मां के सानिध्य में बकरी |
![]() शिव जी के सानिध्य में श्वान |
भगवान से हम यही मन्नत मानते हैं कि आप हमें वह आत्म बुद्धि दें, जिससे हम अपने को आप समझ कर लिबरेट हो पायें। पर भगवान हैं कि कहते हैं – प्यारे, लिबरेशन लप्प से थोड़े मिलेगा। कई जन्म लगेंगे। इसमें खुदा वाले खुन्दक खा सकते हैं कि जो ऐसी तैसी करानी हो, इसी जन्म में करा लो। आगे डेड एण्ड है।
खैर, जब मैं कोटेश्वर महादेव और उसके आस पास देखता हूं तो लगता है कि यह लिबरेशन का सवाल हमारे मन में जबरदस्ती घुसा है। अन्यथा जो चेले चापड़ शंकर भगवान ने अपने आस पास बसा रखे हैं वे पूरी लिबर्टी लेते हैं शंकर जी से, इसी जन्म में और इसी वातावरण में।
आस-पास वालों ने बकरियां पाल रखी हैं। भगत लोग शंकर जी की पिण्डी पर बिल्वपत्र-प्रसाद चढ़ाते हैं तो उनके जाते ही बकरी उनका भोग लगाती है। शंकर जी और देवी मां के ऊपर से चरती हुई।
नन्दी शिव जी के सामने हैं ओसारे में। बारिश का मौसम है तो चेलों को ओसार चाहिये रात में सोने के लिये। लिहाजा नन्दी को एक ओर नीचे हटा कर मंदिर के ओसारे में खटिया लगा ली जाती है। नन्दीपरसाद बारिश में भीगें तो भीगें। स्पेशल हैं तो क्या, हैं तो बरदा (बैल)! उपेक्षा में उनकी टांगें भी टूट गई हैं। किसी मुसलमान ने तोड़ी होती तो बलवा हो जाता!
अपने प्रियजनों की स्मृति में लोगों ने छोटे छोटे मन्दिर बना दिये हैं शंकर जी के। मुख्य मन्दिर के बायें एक सीध में। उन्हीं में यह उपेक्षा देखने में आती है। एक मंदिर में तो कुत्ता कोने में सो रहा था – वर्षा से बचने को। बकरी के लेंड़ी तो यत्र-तत्र-सर्वत्र बिखरी नजर आती है। सड़क के किनारे छोटे और उपेक्षित से मन्दिर बनते ही हैं ईश्वर से पूरी लिबर्टी लेने को!
नवरात्रि के समय में हनुमान जी के दरवाजे पर मां दुर्गा को स्थापित कर देते हैं चेलागण – बतैर द्वारपाल। संतोषी माता की आंखों मे इतना काजल ढेपार दिया जाता है कि उनकी सुन्दर आंखें डायलेटेड नजर आती हैं। पूरे एस्थेटिक सेंस की ऐसी तैसी कर देते हैं भक्तगण! इतनी लिबर्टी और कौन धर्म देता होगा कि अपने संकुचित स्वार्थ, अपने भदेसपने और हद दर्जे की गंदगी के साथ अपने देवता के साथ पेश आ सकें!
और एक हम हैं – जो ध्यानमग्न हो कर बाबा विश्वनाथ से याचना करते हैं – लिबरेशनम् देहि माम!
कहां हैं स्वामी दयानन्द सरस्वती!
भैय्या आप तो लिबरेटेड हैं तभी न हमारे धर्म के आत्मा की आवाज़ सुन पा रहे हैं. अति सुन्दर. आभार,
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एक दयानन्द हम सब में बैठा है. ऐसी आजादी और कहाँ?
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गिरिजेश जी से सहमत अलग से कुछ कहने की जरुरत नही समझ रही.
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यह हमारी सहिष्णुता है या विडम्बना …अंतर्द्वंद है …!!
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दुबारा बांच लिये नयी टिप्पणियों सहित।सतीश पंचम जी का सुझाव धांसू है-इस पोस्ट का नाम – पकल्ले बे बकरी(बकरिया) ऱखा जा सकता था 🙂
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Ek Hindu dharm hee hai jo hamen punarjanm ke roop me bar bar mauka deta hai bhoolon ko sudhar kar pap mukt aur is sansar se mukt hone ka.
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हम तो हर जीव में ईश्वर का अंश देखते हैं… इसी लिए श्वान और बकरी भी देवस्थल पर आमंत्रित है …वैसे उचित और विचारणीय लेख…. साधू!!
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अहा…एक नूर ते सब जग उपज्या कौन भले कौन मंदे।ईश्वर के हृदय में जब समस्त जीवों के लिये जगह हो सकत है तो ई मंदिर मां क्यों नाहीं।गिरिजेश जी और पंचम जी ने मूँह की बात ऐसे छीन ली जैसे कुत्ते के मुँह से हड्डी। अगली बार जल्दी टिपियाने का प्रयत्न करेंगे..
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अपने चारों ओर दृ्ष्टि डाली जाए तो हर तरफ बस यही कुछ दिखाई देता है। ये सब देख सुनकर तो अब लगने लगा है कि वास्तव में धर्म की हालत किसी कूडे कचरे से अधिक नहीं रही । सडक किनारे चार ईंटे खडी करके झंडा गाड दिया या किसी पत्थर को सिन्दूर लगा के रख दिया तो समझो धर्म हो गया । किसी नदी में डुबकी लगा ली, दो चार चक्कर पीपल या बड के लगा लिए तो समझिए धर्म हो गया । व्रत के नाम पर एक दिन भूखा रह लिए(कहने को) बाद में फिर हर रोज तरह तरह के तर माल उडाते रहे तो मानो धर्म हो गया । माथे पर चन्दन से साढे ग्यारह नम्बर का साईन बोर्ड लगा लिया तो समझिए धर्म हो गया । :)ऊपर वरूण कुमार जी ने अपनी टिप्पणी में लिखा है कि "शायद बहुत जन्मो के पुण्य को मिलाकर इस जन्म में हिन्दू होने का सौभाग्य हमें प्राप्त हुआ है" । यहाँ मैं उनसे एक बात कहना चाहूँगा कि यदि यही सब देखने करने के लिए हमने हिन्दू धर्म में जन्म लिया है तो फिर ये जरूर हमारे पुण्य नहीं बल्कि पापों का फल है । लोग भी पता नहीं किस भ्रम में जिए जा रहे हैं कि इसी को हिन्दू धर्म की श्रेष्ठता मानने में लगे हुए हैं । लेकिन कोई ये समझने को तैयार ही नहीं कि धर्म वास्तव में है क्या ?
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दैनिक और सामान्य सी लगने वाली चीज़ों में इतना गूढ़-गंभीर चिंतन! पोल-खोलू – यह असली 'मानसिक हलचल' है. वैसे यह कहना छोटे मुंह बड़ी बात होगी – मगर फिर भी बहुत अच्छा लिखा है.सौरभ
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