कुछ वर्ष पहले नालन्दा के खण्डहर देखे थे, मन में पूर्वजों के प्रति कृतज्ञता के भाव जगे। तक्षशिला आक्रमणकारियों के घात न सह पाया और मात्र स्मृतियों में है। गुरुकुल केवल “कांगड़ी चाय” के विज्ञापन से जीवित है। आईआईटी, आईआईएम और ऐम्स जैसे संस्थान आज भी हमें उत्कृष्टता व शीर्षत्व का अभिमान व आभास देते हैं। शेष सब शून्य है।

मैं स्वप्न से नहीं जगा, वास्तविकता में डूबा हूँ। ज्ञाता कहते हैं कि शिक्षा, स्वास्थ्य और आधारभूत संरचना सरकार के कार्य हैं। सरकार शिक्षा व्यवस्था पर पाठ्यक्रम उपलब्ध कराने के साथ साथ सरकारी विद्यालयों का रखरखाव भी कर रही है।
सरकारी विद्यालयों में 10 रुपये महीने की फीस में पढ़कर किसी उच्चस्थ पद पर बैठे अधिकारियों को जब अपने पुत्र पुत्रियों की शिक्षा के बारे में विचार आता है तो उन सरकारी विद्यालयों को कतार के अन्तिम विकल्प के रूप में माना जाता है। किसी पब्लिक या कान्वेन्ट स्कूल में दाखिले के लिये अभिभावक को एक लाख रुपये अनुग्रह राशि नगद देकर भी अपनी बौद्धिक योग्यता सिद्ध करनी पड़ती है।
किसी भी छोटे शहर के प्रथम दस विद्यालयों में आज जीआईसी जैसे विद्यालयों का नाम नहीं है। बचपन में प्राइमरी के बाद जीआईसी में पढ़ने की निश्चितता अच्छे भविष्य का परिचायक था। वहीं के मास्टर मुँह में पान मसाला दबाये अपने विद्यार्थियों को घर में ट्यूशन पढ़ने का दबाव डालते दिखें तो भारत के भविष्य के बारे में सोचकर मन में सिरहन सी हो जाती है।
गरीब विद्यार्थी कहाँ पढ़े? नहीं पढ़ पाये और कुछ कर गुजरने की चाह में अपराधिक हो जाये तो किसका दोष?
नदी के उस पार नौकरियों का सब्जबाग है, कुछ तो सहारा दो युवा को अपना स्वप्न सार्थक करने के लिये। आरक्षण के खेत भी नदी के उस पार ही हैं, उस पर खेती वही कर पायेगा जो उस पार पहुँच पायेगा।
विश्वविद्यालय भी डिग्री उत्पादन की मशीन बनकर रह गये हैं। पाठ्यक्रम की सार्थकता डिग्रीधारी बेरोजगारों की संख्या से मापी जा सकती है। हाँ, राजनीति में प्रवेश के लिये बड़ा सशक्त मंच प्रस्तुत करते हैं विश्वविद्यालय।
जरा सोचिये तो क्या कमी है हमारी शिक्षा व्यवस्था में कि लोग सरकारी नौकरी पाने के लिये 5 लाख रुपये रिश्वत में देने को तैयार हैं जबकि उन्ही रुपयों से 5 व्यक्तियों को कार्य देने वाला एक व्यवसाय प्रारम्भ किया जा सकता है।
प्रवीण जी !! गंभीर बाते हैं आपकी !अगली किस्तों में किस तरह से सरकारी स्कूल ध्वस्त हुए ? इस पर भी चाहेंगे आपके विचार आयें!बाकी तो अनूप जी ने पूरी कहानी एक कथ्य में ठोंक ही दी है!!प्राइमरी के मास्टर की दीपमालिका पर्व पर हार्दिक बधाई स्वीकार करें!!!!तुम स्नेह अपना दो न दो ,मै दीप बन जलता रहूँगा !!अंतिम किस्त-कुतर्क का कोई स्थान नहीं है जी…..सिद्ध जो करना पड़ेगा?
LikeLike
संजय बेंगाणी जी की बात में दम है। यहां प्राईवेट सेक्टर में तो दिन रात एक कर दो तो भी मन झृंकृत नहीं होता, जबकि दूसरी ओर सरकारी शिक्षा व्यवस्था के चलते ही कहीं कहीं तो चैन के सितार 'बीटल्स स्टाईल' में बजाये जाते हैं। माना कि कुछ सरकारी नौकरियों में काफी चुनौतियां हैं लेकिन वह चुनौतियां प्राईवेट जॉब्स के भारीभरकम insecure ठप्पे के मुकाबले बहुत हल्की लगती हैं।
LikeLike
ऐसा क्यों हो रहा है और कैसे हो रहा है । क्या हम सब भी समान रूप से भागीदार नहीं है इस व्यबस्था के । अगर व्यबस्था सुधारनी है तो शुरुआत अपने ही घर से होनीं चाहिये । पोस्ट पढ़कर बहुत अच्छा लगा ।
LikeLike
श्रीलाल शुक्लजी ने लिखा है- हमारे देश की शिक्षा नीति रास्ते में पड़ी कुतिया है। जिसका मन करता है दो लात लगा देता है। जबसे यह बांचा है तबसे इसके अनगिन लातें लग चुकी हैं।
LikeLike
आप ने एक सच लिख दिया इस लेख मै आप से सहमत है जी.आप को ओर आप के परिवार को दीपावली की शुभ कामनायें
LikeLike
"गरीब विद्यार्थी कहाँ पढ़े?"एकलव्य भी तो गरीब था।संस्कार बदल गए हमारे क्योंकि भारत के स्वतन्त्र होने के बाद भी विदेशी शिक्षा नीति को लाद दिया गया। शायद हम स्वदेशी शिक्षा नीति बना पाने के योग्य ही नहीं हैं।
LikeLike
महत्वपूर्ण और सच्चाई को बयां करनेवाला आलेख। लगातार व्यस्त रहा। इस बीच मेरी दिलचस्पी के अनेक विषयों पर आपकी कलम चली। खासकर रेलवे से जुड़ी उन बातों पर जिन्हें आपका अनुभव ही व्यक्त कर सकता था। पढ़ता हूं धीरे-धीरे। दीवाली पर दो दिन की छुट्टी मिल रही है सो बैकलॉग पूरा हो जाएगा।
LikeLike
कम शब्दों मे सरकारी शिक्षा के बारे में बहुत कुछ कह दिया है।———-डिस्कस लगाएं, सुरक्षित कमेंट पाएँ
LikeLike
5 लाख में व्यवसाय तो हो जाए. मगर उसे चलाने के लिए 16 घंटे काम करना पड़ता है. इसलिए सरकारी नौकरी भली.
LikeLike
प्रवीण जी ने बिल्कुल सार्थक बात कही है ..और आज इस बात पर किसी का भी ध्यान नहीं जा रहा है. यही अफ़सोसनाक है ।
LikeLike