एक लड़की और दो लड़के (किशोरावस्था का आइडिया मत फुटाइये), छोटे बच्चे; दिवाली की लोगों की पूजा से बचे दिये, केले और प्रसाद बीन रहे थे। तीनो ने प्लास्टिक की पन्नियों में संतोषजनक मात्रा में जमा कर ली थी सामग्री। घाट से लौटने की बारी थी।
लड़की सबसे बड़ी थी। वापसी के रास्ते में गड्ढ़ा होने से उसमें पानी आ गया था। उसके आस पास चहला (कीचड़/दलदल) भी था। लड़की पानी में चल कर पार हो गयी। उसके पीछे उससे छोटा लड़का भी निकल गया। सबसे छोटे बच्चे को डर लगा। वह पानी की बजाय चहला से आने लगा। फिसला। कुछ दिये गिर गये। रोने लगा।
लड़की आगे बढ़ चुकी थी। जोर से चिल्लाई – चप्पला पहिर क चलबे? चप्पला काहे पहिर क आये? (चप्पल पहन कर चलता है? चप्पल क्यों पहन कर आया घर से?) बीच वाला लड़का आ कर छोटे को सहारा देने लगा। लड़की और बीच वाले लड़के के पैर में चप्पल नहीं थे (बाद में छोटे वाले का चप्पल बीच वाले ने पहन लिया जिससे छोटा पैर जमा कर चल सके)। छोटे के पैर में चप्पल होना उसे हैव-नॉट्स से हटा कर हैव्स में डाल रहा था; और लड़की के व्यंग का पात्र बना रहा था।
चप्पला हो या न हो – ज्यादा फर्क नहीं। पर जब आप असफल होंगे, तब यह आपको छीलने के लिये काम आयेगा।
कितनी बार आप अपने को उस छोटे बच्चे की अवस्था में पाते हैँ? कितनी बार सुनना पड़ता है – चप्पला काहे पहिर कर चलते हो! आम जिन्दगी और सरकारी काम में तो उत्तरोत्तर कम सुनना पड़ता है अब ऐसा; पर हिन्दी ब्लॉगिंग में सुनना कई बार हो जाता है।
प्योर 'फिलॉसफीयाना' पोस्ट 🙂
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अगर प्योर तर्क पर ही डटे रहें तो अभी जिज्ञासु पाठकों की जिज्ञासा का समाधान होता नहीं दिखा,जिस बात के बीच में 'पर''लेकिन' 'किन्तु' 'परन्तु' जैसे शब्द आ जाएं वहाँ इनके एक तरफ कोई न कोई गड़बड़ होती है,यदि इसी संदर्भ में लेखक की निम्न पंक्ति पर विचार किया जाय :'आम जिन्दगी और सरकारी काम में तो उत्तरोत्तर कम सुनना पड़ता है अब ऐसा; 'पर' हिन्दी ब्लॉगिंग में सुनना कई बार हो जाता है।तो प्रथम दृष्टया महसूस होता है कि लेखक को अफ़सोस है कि उसके वरिष्ठ होने के बावजूद हिन्दी ब्लॉगिंग में कभी कभी सुनने को हो जाना उसके साथ ज्यादती है ।अत: कहा जा सकता है कि ज्ञान जी ने अमित जी और अनूप जी को गिरा अवश्य लिया है पर अभी कुश्ती बरावरी पर मानी जाएगी, कोई भी चित्त नहीं हुआ अभी ।
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@ सर्वश्री अमित, अनूप > क्या आपकी वरिष्ठ ब्लागरी कन्फ़र्म हो गयी?प्योर तर्क पर जायें। मैने लिखा है – आम जिन्दगी और सरकारी काम में तो उत्तरोत्तर कम सुनना पड़ता है अब ऐसा; पर हिन्दी ब्लॉगिंग में सुनना कई बार हो जाता है।सरकारी काम में पद से और समाज/आम जिन्दगी में उम्र से वरिष्टता आ गयी है तो सुनना कम पड़ता है। अगर ब्लॉगरी में वरिष्टता आ गयी होती तो इसमें भी कम सुनना होता! 🙂
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