एक साहबी आत्मा (?) के प्रलाप

DSC00291 मानसिक हलचल एक ब्राउन साहबी आत्मा का प्रलाप है। जिसे आधारभूत वास्तविकतायें ज्ञात नहीं। जिसकी इच्छायें बटन दबाते पूर्ण होती हैं। जिसे अगले दिन, महीने, साल, दशक या शेष जीवन की फिक्र करने की जरूरत नहीं।

इस आकलन पर मैं आहत होता हूं। क्या ऐसा है?

नोट – यह पोस्ट मेरी पिछली पोस्ट के संदर्भ में है। वहां मैने नीलगाय के पक्ष में अपना रुंझान दिखाया था। मैं किसान के खिलाफ भी नहीं हूं, पर मैं उस समाधान की चाह रखता हूं जिसमें दोनों जी सकें। उसपर मुनीश जी ने कहा है – very Brown Sahib like thinking! इस पोस्ट में ब्राउन साहब (?) अपने अंदर को बाहर रख रहा है।

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और क्या दमदार टिप्पणियां हैं पिछली पोस्ट पर। ऐसी परस्पर विरोधी, विचारों को खड़बड़ाने वाली टिप्पणियां पा कर तो कोई भी ब्लॉगर गार्डन गार्डन हो जाये! निशाचर जी तो अन्ततक लगे रहे नीलगायवादियों को खदेड़ने में! सारी डिबेट क्या क्या मारोगे और क्या क्या खाना छोड़ोगे की है! असल में समधान उस स्तर पर निकलना नहीं, जिस स्तर ने समस्या पैदा की है!

मेरे समधीजी कहते हैं – भईया, गांव जाया करो। जमीन से जुड़ाव महसूस होगा और गांव वाला भी आपको अपना समझेगा। जाने की जरूरत न हो, तब भी जाया करो – यूंही। छ महीने के अन्तराल पर साल में दो बार तो समधीजी से मिलता ही हूं। और हर बार यह बात कहते हैं – “भईया, अपने क्षेत्र में और गांव में तो मैं लोगों के साथ जमीन पर बैठने में शर्म नहीं महसूस करता। जो जमीन पर बैठे वो जम्मींदार और जो चौकी पर (कुर्सी पर) बैठे वो चौकीदार”!  मैं हर बार उनसे कहता हूं कि गांव से जुड़ूंगा। पर हर बार वह एक खोखले संकल्प सा बन कर रह जाता है। मेरा दफ्तरी काम मुझे घसीटे रहता है।

और मैं जम्मींदार बनने की बजाय चौकीदार बने रहने को अभिशप्त हूं?! गांव जाने लगूं तो क्या नीलगाय मारक में तब्दील हो जाऊंगा? शायद नहीं। पर तब समस्या बेहतर समझ कर समाधान की सोच सकूंगा।

संघ लोक सेवा आयोग के साक्षात्कार में केण्डीडेट सीधे या ऑब्ट्यूस सन्दर्भ में देशभक्ति ठेलने का यत्न करता है – ईमानदारी और देश सेवा के आदर्श री-इटरेट करता है। पता नहीं, साक्षात्कार लेने वाले कितना मनोरंजन पाते होते होंगे – “यही पठ्ठा जो आदर्श बूंक रहा है, साहब बनने पर (हमारी तरह) सुविधायें तलाशने लगेगा”! चयनित होने पर लड़की के माई-बाप दहेज ले कर दौड़ते हैं और उसके खुद के माई बाप अपने को राजा दरभंगा समझने लगते हैं। पर तीस साल नौकरी में गुजारने के बाद (असलियत में) मुझे लगता है कि जीवन सतत समझौतों का नाम है। कोई पैसा पीट रहा है तो अपने जमीर से समझौते कर रहा है पर जो नहीं भी कर रहा वह भी तरह तरह के समझौते ही कर रहा है। और नहीं तो मुनीश जी जैसे लोग हैं जो लैम्पूनिंग करते, आदमी को उसकी बिरादरी के आधार पर टैग चिपकाने को आतुर रहते हैं।

नहीं, यह आस्था चैनल नहीं है। और यह कोई डिफेंसिव स्टेटमेण्ट भी नहीं है। मेरी संवेदनायें किसान के साथ भी हैं और निरीह पशु के साथ भी। और कोई साहबी प्रिटेंशन्स भी नहीं हैं। हां, यह प्रलाप अवश्य है – चूंकि मेरे पास कई मुद्दों के समाधान नहीं हैं। पर कितने लोगों के पास समाधान हैं? अधिकांश प्रलाप ही तो कर रहे हैं। और मेरा प्रलाप उनके प्रलाप से घटिया थोड़े ही है!     


Published by Gyan Dutt Pandey

Exploring village life. Past - managed train operations of IRlys in various senior posts. Spent idle time at River Ganges. Now reverse migrated to a village Vikrampur (Katka), Bhadohi, UP. Blog: https://gyandutt.com/ Facebook, Instagram and Twitter IDs: gyandutt Facebook Page: gyanfb

37 thoughts on “एक साहबी आत्मा (?) के प्रलाप

  1. ज्ञान जी, इस पोस्ट पर भी मैंने एक टिपण्णी दी थी जो तुरंत प्रकाशित भी हो गयी थी परन्तु आज नहीं दिख रही है. टिप्पणी कुछ यूँ थी-आदरणीय ज्ञान जी, एक महत्त्वपूर्ण एवं ज्वलंत विषय पर पोस्ट लिखने के लिए धन्यवाद. यह चर्चा शायद कुछ लम्बी खिंचती यदि comment moderation न होता (कृपया इसे अपने अधिकार क्षेत्र में अतिक्रमण न माने). इसी तरह व्यावहारिक परन्तु अनछुए मुद्दों पर स्वस्थ एवं रचनात्मक बहस होती रहे तो ब्लागजगत का वातावरण ज्यादा शुद्ध एवं "स्वच्छ" रहेगा. प्रणाम स्वीकार करें.

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  2. @ निशाचर जी, यह मुझे भी समझ में नहीं आ रहा है! आपकी इस पोस्ट पर तो कोई टिप्पणी नहीं थी, पर पिछली पोस्ट पर कुछ टिप्पणियां और थीं – यह तो पासवर्ड हेकिंक का मामला सा लगता है?! मैं आपकी पिछली पोस्ट पर सभी टिप्पणियों का कम्पैण्डियम लगाता हूं।

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  3. ज्ञान जी, आपने मेरी टिप्पणियां हटा क्यों दीं मुझे कुछ समझ नहीं आया……….

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  4. आप कुछ भी हों, हिप्पोक्रेट तो नहीं हैं न। बस इतना काफी है। बिला वजह अपनी बात को पेले पड़े रहने वाले भी बहुत हैं, और किसी बात के पीछे लट्ठ लेकर पिल जाने वाले भी।अगर आप ब्राउन साहब भी हों, तो भी अधिसंख्यों से लाख गुना बेहतर हैं।रही बात गाँव जाने की, तो सिर्फ ताजी हवा और ताजा दूध के सिवा कुछ भी स्वस्थ नहीं मिलेगा अब आपको। गाँवों का वातावरण भी बहुत विषाक्त हो चुका है। टुच्ची राजनीति, सामाजिक सरोकारों और तेजी से बदलते मानदंडॊं ने कुछ भी पहले जैसा नहीं रहने दिया है।

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