मैं गांव गया। इलाहाबाद-वाराणसी के बीच कटका रेलवे स्टेशन के पास गांव में। मैने बच्चों को अरहर के तने से विकेट बना क्रिकेट खेलते देखा। आपस में उलझे बालों वाली आठ दस साल की लड़कियों को सड़क के किनारे बर्तन मांजते देखा। उनके बालों में जुयें जरूर रही होंगी, पर वे किसी फिल्मी चरित्र से कम सुन्दर न थीं। लोग दुपहरी में उनचन वाली सन की खटिया पर ऊंघ रहे थे। हल्की सर्दी में धूप सेंकते।
इंटवा में अड़गड़ानन्द जी के आश्रम में लोग दोपहर में सुस्ता रहे थे। पर वे मुझे प्रसाद देने को उठे। जगह अच्छी लगी गंगा के तट पर। उनके आश्रम से कुछ दूर द्वारकापुर गांव में कोई दूसरे महात्मा मन्दिर बनवा रहे हैं गंगाजी के किनारे। श्रद्धा का उद्योग सदा की तरह उठान पर है। मेरा विश्वास है कि लोग मैथॉडिकल तरीके से फण्ड रेजिंग कर लेते होंगे धर्म-कर्म के लिये।
अगर मैं रहता हूं गांव में तो कुछ चीजें तो अभी दिखाई देती हैं। आस पास मुझे बहुत हरिजन, केवट और मुसलमान बस्तियां दिखीं। उनकी गरीबी देखने के लिये ज्ञानचक्षु नहीं चाहियें। साफ नजर आता है। उनके पास/साथ रह कर उनसे विरक्त नहीं रहा जा सकता – सफाई, शिक्षा और गरीबी के मुद्दे वैसे ही नजर आयेंगे जैसे यहां गंगाजी का प्रदूषण नजर आता है। मैं बांगलादेश के मुहम्मद यूनुस जी के माइक्रोफिनांस के विचार से बहुत प्रभावित हूं। क्या ग्रामीण ज्ञानदत्त पाण्डेय उस दिशा में कुछ कर पायेगा?
और अगर वहां मात्र शहरी मध्यवर्ग का द्वीप बना रहना चाहता है ज्ञानदत्त तो इत्ती दूर जा कर घास खोदने की क्या जरूरत है। यहीं क्या बुरा है।
ऊर्जा की जरूरतें तो मुझे लगता है सोलर पैनल से पूरी होने जा रही हैं। वर्तमान लागत १०-१२ रुपया/यूनिट है जो अगले छ साल में और कम होगी। प्रवीण के अनुसार विण्ड-पैनल भी शायद काम का हो। वैसे प्रवीण की उत्क्रमित प्रव्रजन वाली पोस्ट पर टिप्पणी बहुत सार्थक है और भविष्य में बहुत काम आयेगी मुझे [१]!
मैं ग्रामोन्मुख हूं। छ साल बचे हैं नौकरी के। उसके बाद अगर किसी व्यवसाय/नौकरी में शहर में रुकने का बहाना नहीं रहा तो झण्डा-झोली गांव को चलेगा। तब तक यह ब्लॉग रहेगा – पता नहीं!
[मजे की बात है कि मैं यहां जो लिख-चेप रहा हूं, वह मेरे पर्सोना को गहरे में प्रभावित करता है। जब मैं कहता हूं कि मैं ग्रामोन्मुख हूं – तो वह मात्र एक पोस्ट ठेलने का मसाला नहीं होता। वह अपने कमिटमेण्ट को और सीमेंण्ट करने का काम करता है। और आप लोग जो कहते हैं, वह भी कहीं गहरे में प्रभावित करता है सोच को। ब्लॉगिंग शायद उसी का नाम है!]
बड़े नगर में ऊँचे मूल्य पर मकान लेने से अच्छा है कि आबादी से १०-१२ किमी दूर डेरा बसाया जाये । शहर की (कु)व्यवस्थाओं पर आश्रित रहने की अपेक्षा कम सुविधाओं में रहना सीखा जाये । यदि ध्यान दिया जाये तो सुविधायें भी कम नहीं हैं ।
१. नगर के बाहर भूमि लेने से लगभग ६-७ लाख रु का लाभ होगा । इसका एक वाहन ले लें । यदाकदा जब भी खरीददारी करने नगर जाना हो तो अपने वाहन का उपयोग करें ।
२. मकान में एक तल लगभग आधा भूमितल के अन्दर रखें । भूमि के १० फीट अन्दर ५ डिग्री का सुविधाजनक तापमान अन्तर रहता है जिससे बिजली की आवश्यकता कम हो जाती है । सीपेज की समस्या को इन्सुलेशन के द्वारा दूर किया जा सकता है ।
३. प्रथम तल में पु्राने घरों की तरह आँगन रखें । प्रकाश हमेशा बना रहेगा । यदि खुला रखना सम्भव न हो तो प्रकाश के लिये छ्त पारदर्शी बनवायें ।
४. एक कुआँ बनवायें । पानी पीने के लिये थोड़ा श्रम आवश्यक है ।
५. सोलर ऊर्जा पर निर्भरता कभी भी दुखदायी नहीं रहेगी । तकनीक बहुत ही विकसित हो चुकी है । यदि एक विंड पैनेल लगवाया जा सके तो आनन्द ही आ जाये ।
६. एक गाय अवश्य पालें । गायपालन एक पूरी अर्थव्यवस्था है ।
७. इण्टरनेट के बारे में निश्चिन्त रहें । डाटाकार्ड से कम से कम नेशनल हाईवे में आपको कोई समस्या नहीं आयेगी और आपका सारा कार्य हो जायेगा ।
८. स्वच्छ वातावरण के लिये पेड़ ही पेड़ लगायें । नीम के भी लगायें ।
९. निर्लिप्त भाव से साहित्य सृजन करें । हिन्दी की प्रगति होगी ।
१०. वहाँ के समाज को आपका आगमन एक चिर प्रतीक्षित स्वप्न के साकार होने जैसा होगा ।
११. अगल बगल कुछ प्लॉट रोक कर रखें । बहुत से लोग जल्दी ही टपकेंगे ।
कल मैने पॉस्टरस पर ब्लॉग बनाया। Gyan’s Desk – Straight from the keyboard of Gyandutt Pandey!
बढ़िया लग रहा है – ट्विटर/फेसबुक आदि से लिंक किया जा सकता है। भविष्य की तकनीक? शायद!
कितना आकर्षक बना दिया है आप विद्वत जनों ने रीटायरमेंट के बाद का जीवन..अभी तो सक्रिय जीवन भी मेरा शुरू नही हुआ और मै लगा लार टपकाने..!प्रवीण जी तो मज़बूत आधारशिला भी रख देते है आपके विचारों के लिए….!यह विचार निश्चित ही प्रेरणास्पद है..और क्यों यह निरंतर प्रासंगिक होता जा रहा है..सोचना तो इस पर भी है…उत्क्रमण…!
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रोचक रही यात्रा। बहुत कुछ कहती है आपकी यात्रा।युवा सोच युवा खयालातखुली खिड़कीफिल्मी हलचल
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अरे, आप अभी तक जग रहे हैं. तो फिर पूरी टिप्पणी ही सही: आपके आलेख और प्रवीण की पूरक टिप्पणी ने लगभग सबकुछ कह दिया. इत्तेफाक से मैंने ऐसे गाँव भी देखे हैं जहां सच्चाई की परम्परा को बचाने के लिए चींटी तक को कष्ट न पहुंचाने वाले सत्पुरुषों के पास भी नर-हत्या के सिवा कोई साधन नहीं बचा था और ऐसे भी जहाँ कुशल नेतृत्व, सामूहिक शक्ति और माइक्रो फिनान्सिंग (तब का नाम प्राथमिक/ न्यून ब्याज ऋण ) द्वारा गाँव में स्वर्ग दिखता था. कुँए के साथ समस्या एक तो प्रदूषित जल की है. दूसरी बात यह है की ज्यों ही पड़ोस के कसबे में जल-व्यवस्था शुरू हुई या नगर के नरक (बूचडखाने आदि) को आपके पड़ोस में नगर-निकाला मिला तो आपका कुआं दो दिन में सूख सकता है.
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कुँए के अलावा सब बातों से सहमत हूँ.
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विचार तो आते जाते रहते हैं… आप इसको लेकर गंभीर है. ये बात काम की है.
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हमें भी अपना गाँव याद आ गया। कितना ज़माना हो गया, वह गोधूलि वह अमराई देखे।——————ये तो बहुत ही आसान पहेली है?धरती का हर बाशिंदा महफ़ूज़ रहे, खुशहाल रहे।
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सबसे पहले तो क्षम-याचान, अन्तर्मन से। महीनों के बाद आपको पढ पाया। स्थिति, मन:स्थिति ऐसी ही रही। उबरने के लिए अभी भी स्वयम् से संघर्षरत हूं।यद्यपित, दिनेश रायजी दि)वेदी की तरह मेरे काम में भी सेवा निवृत्ति नहीं है फिर भी मैंने भी आपकी ही तरह सोचा हुआ है। गांव में बसने पर क्या करूंगा, यह नहीं सोचा। पांच-छ: बरस बाद तो गांव वाले भी आज जैसे नहीं रहेंगे। भाई प्रीण की बातों ने इरादे को मजबूत बनाने में मदद की। उकनी बातों में से अधिकांश पहले से ही दिमाग में हैं। हां, गाय पालन और तहखानावाली बात दिमाग में बिलकुल ही नहीं थी। मुझे लगता है, एक आयु-अवस्था में आने पर सोच में इसी प्रकार बदलाव आता है।बहरहाल, इस मामले में आप अकेले नहीं हैं। ईश्वर आपकी मनोकामना पूरी करे।हम सबको आपकी नीयत पर पूरा भरोसा है।
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आपकी नया ब्लाग देखा, अच्छा साधन है। गांवो में बेहया की डंडी से विकेट बना कर हम भी बहुत खेले है, अभी जब जाते है किक्रेट खेल लेते है। 11 सुत्रीय कार्यक्रम विचार करने योग्य है, आज के दौर मे कुआं काफी दिक्कत वाला होगा।
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गांव की ओर पढ़ा और श्री प्रवीण पाण्डेय जी की टिप्पणी पढ़ी तो आनंद आ गया।एक भोजपुरी गीत की दो लाइनें भी याद आ गईं-शहर बजरिया की ऊँची अटरिया ऊँची अटरिया से डर लागेमोहें गउंवा केऽ लोगवा सुघड़ लागे…
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