दो महीने पहले (नवम्बर २९ की पोस्ट) मिला था अर्जुन प्रसाद पटेल से। वे गंगा के कछार में खेती कर रहे थे। एक महीने बाद (दिसम्बर २५ की पोस्ट) फिर गया उनकी मड़ई पर तो वे नहीं थे। उनकी लड़की वहां थी। और तब मुझे लगा था कि सर्दी कम पड़ने से सब्जी बढ़िया नहीं हो रही। लिहाजा, मेरे कयास के अनुसार वे शायद उत्साही न बचे हों सब्जी उगाने में।
पर जनवरी में कस कर सर्दी पड़ी। लगभग पूरा महीना कोहरे में लिपटा रहा। ट्रेन परिचालन की ऐसी तैसी हो गयी। पर मुझे खबर लगी कि किसान खुश हैं इस सर्दी से। गेंहूं, आलू और दलहन बढ़िया होने जा रही है। सब्जियां भी अच्छी निकल रही हैं।
अब पिछले शनिवार (३० जनवरी) की दोपहर उनकी मड़ई के पास गया तो अर्जुन प्रसाद पटेल धनिया की क्यारी से धनिया चुन रहे थे। उन्होने बताया कि उस दिन उन्होने प्याज की तीन क्यारियां तैयार की थीं। घर के इस्तेमाल के लिये कुछ खीरा ककड़ी भी लगाने वाले हैं। प्रसन्नमन थे अर्जुन पटेल। उनसे इस उद्यम का अर्थशास्त्र पूछा तो बड़े काम की बात बताई उन्होने – इस सब से लड़का-प्राणी काम में लगे रहते हैं। नहीं तो समय इधर उधर की पंचाइत में लगता। घर की सब्जी इसी में निकल आती है। अन्यथा २५-३५ रुपये रोज खर्च होते। फिर अब तक डेढ़ हजार का पालक-धनिया-टमाटर बेच चुके हैं। आगे लगभग ४-५ हजार का प्याज, टमाटर निकल आयेगा।
पिछली साल सब्जी उगाते अरविन्द से मिला था। उनके लिये यह काम बोझ था - “और क्या करें, बाबूजी, यही काम है”। पर अर्जुन प्रसाद पटेल जी का नजरिया बिल्कुल उलट और उत्साह से भरा था। चलते चलते उन्होने और उनकी धर्मपत्नी ने मुझे बहुत मात्रा में क्यारी से पालक खोंट कर दी। मैने पैसा देने की कोशिश की तो अर्जुन जी बोले – खेत पर पैसे थोड़े ही लेंगे!
पैर में स्लीपर पहने और शॉल ओढ़े ज्ञानदत्त पाण्डेय को बहुत आत्मीय लगा यह पालक ले कर लौटना! घर के पास अड़ोस-पडोस के लोग कौतूहल से देख रहे थे कि क्या ले कर लौट रहा हूं! :-)
पालक (साग) के पालक (उगाने वाले) का नज़रिया बड़ा सही है.
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काश! किसान के प्रति सरकार और बिचौलिए भी थोड़े इथिकल हो जाते!
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किसान के एथिक्स देखिये..खेत पर पैसे नहीं लेंगे..
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आज भी अपने देश में कृषि कार्य सत्तर प्रतिशत से अधिक मौसम पर ही निर्भर करता है ऐसे में मौसम यदि सही चाल चले तो ही किसान दुर्गति से बच पाता है…मन हरा करती सुन्दर पोस्ट..
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देव ! खेत से आप 'प्यार' ले कर लौटे थे जिसे लोग निरख रहे थे …'' … पालक खोंट कर दी |'' — मुझे यहाँ का देशज खूब रुचा .. और कोई क्या जाने कि पलक 'खोंटी' जाती है , निकाली नहीं ! कितनी समृद्ध है शब्द-प्रयोगों की दृष्टि से अपनी 'भासा' ! काम का ढूंढ ही लिया मैंने न ! .ई तौ लाख टके की बात है — '' इस सब से लड़का-प्राणी काम में लगे रहते हैं। नहीं तो समय इधर उधर की पंचाइत में लगता। '' — यहिका सभी गाँठ बाँधि लियॅंय तौ बड़ा नीक !!!
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